उनके पिता कहोल अध्ययन में इतने डूबे रहते थे कि उन्हें और किसी चीज की सुध ही नहीं रहती थी। गर्भस्थित शिशु ने अपनी मां को परेशान देख अपने पिता को उलाहना दे डाला जिससे क्रोधित हो पिता ने शिशु को अष्टवक्री होने का शाप दे दिया। पर फिर शांत होने और पत्नी सुजाता की प्रार्थना पर उन्होंने शिशु को जगत-प्रसिद्ध होने का वरदान भी दिया।
पुरानी कथाओं में एक ऐसे महान दार्शनिक का विवरण मिलता है जिनका शरीर आठ जगहों से वक्री याने टेढा था। जिसके कारण उनका नाम ही अष्टावक्र पड गया था। अपने समय के वे प्रकांड विद्वान और महान दार्शनिक थे। उनका शरीर जन्म से ही आठ जगहों से टेढा था, इसीलिए उन्हें अष्टावक्र कह कर पुकारा जाने लगा। कथा है कि उनके पिता कहोल अध्ययन में इतने डूबे रहते थे कि उन्हें और किसी चीज की सुध ही नहीं
रहती थी। गर्भस्थित शिशु ने अपनी मां को परेशान देख अपने पिता को उलाहना दे डाला जिससे क्रोधित हो पिता ने शिशु को अष्टवक्री होने का शाप दे दिया। पर फिर शांत होने और पत्नी सुजाता की प्रार्थना पर उन्होंने शिशु को जगत-प्रसिद्ध होने का वरदान भी दिया।
अष्टावक्र जन्म से ही मेधावी थे। बहुत जल्द वे सभी शास्त्रों के ज्ञाता हो गये। विवाह योग्य होने पर उन्होंने वदान्य ऋषि की कन्या सुप्रभा से विवाह करना चाहा। ऋषि ऐसे कुरुप युवक को कैसे अपनी कन्या का हाथ दे सकते थे सो साफ मना ना करते हुए उन्होंने एक कठिन शर्त रखी कि हिमालय में तपस्या कर रही वृद्ध स्त्री का आशिर्वाद ले कर आने के बाद ही उनका विवाह संभव हो पाएगा। उनकी सोच थी कि ऐसा अपंग युवक कहां ऐसी दुर्गम यात्रा कर पाएगा। परंतु वदान्य अष्टावक्र के दृढ-संकल्प को नहीं समझ पाए थे। अष्टावक्र ने उनकी शर्त पूरी कर सुप्रभा को अपनी पत्नी बना लिया।
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पहुंचे तो वहां उपस्थित सभासद उनके वक्री शरीर और चाल को देख माखौल में हंस पडे पर धीर-गंभीर ऋषि जरा भी विचलित नहीं हुए, उल्टे उन्होंने सभासदों से ही सवाल कर डाला कि आपलोग किस बात पर हस रहे हो? इस नश्वर शरीर पर या उस परम पिता की कृति पर ? हमें तो सिर्फ परम सत्य को जानने की अभिलाषा होनी चाहिए। आप सब मुझे नहीं परम तत्व को देखने समझने की इच्छा करें। ऐसा विद्वता पूर्ण और सार-गर्भित बात सुनते ही सभी सभासद नतमस्तक हो गये।
अष्टावक्र ने अपने समय में बहुत सारे विद्वता पूर्ण दृष्टांत, आध्यात्मिक संवाद और शरीर की नश्वरता पर अकाट्य संवाद रखे जो उनकी विद्वता का प्रमाण हैं। उनके द्वारा राजा जनक को सुझाए मार्ग और उन दोनों के बीच हुए विद्वतापूर्ण संवादों के संकलन को अष्टावक्र संहिता या अष्टावक्र गीता के नाम से जाना जाता है।
10 टिप्पणियां:
सचमुच अलग सा.बधाई
आपका सदा स्वागत है
अष्टावक्र का जीवन शरीर को उसकी सही वस्तुस्थिति बताने के सिये आवश्यक है।
उसके लिए भी कितना कठोर प्रयत्न करना पडा होगा
गगन जी नमस्कार.. बहुत खुशी हुई आपके लेख एवं विचार देख कर..
अपने एक पोस्ट किया था नाक के बारे मे उसके बारे मै मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करनी है आशा करता हूँ कि आप मेरे से सम्पर्क करेंगे..
सम्पर्क करने के लिये आप मुझे मेल कर सकते है..इस ID par dev1986@gmail.com , मुझे आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा..
और आप मेरा blog devdlove.blogspot.com. यहाँ आपको मेर फोन नम्बर भी मिल जायेगा.,.!
धन्यवाद..:)
देव नेगी
महान दार्शनिक के बारे में बहुत ही अल्प जानकारी थी। आपके इस आलेख से उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से अवगत हुआ। बहुत उपयोगी आलेख।
अष्टावक्र जी के बारे में जानकारी नहीं थी. आभार.
नेगी जी, आपका सदा स्वागत है।
मनोज जी, हार्दिक धन्यवाद
सुब्रमनियन जी, ऐसे ही स्नेह बना रहे
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