तभी उनमें से एक बच्चे के मोबाइल की घंटी बज उठी उसने हेलो कहा और अपनी मां की ओर यह कहते हुए फोन बढा दिया, लो आपके उनका है, उदास हैं आपके बगैर। मां ने मुस्कुरा कर हम सब को ऐसे देखा जैसे अपने पुत्तर की विद्वत्ता पर मोहर लगा रही हो।
कभी-कभी ना चाहते हुए भी कुछ ऐसा हो जाता है जो मन को गवारा नहीं होता। खासकर किसी यात्रा के दौरान जहां अजनबियों का साथ होता है। पर सब कुछ जैसे अपने-आप घटित होता चला जाता है।
अपने बच्चे सभी को प्यारे होते हैं। इसीलिए हर आमो-खास उनकी छोटी-छोटी बातों को, उनकी जरा-जरा सी उपलब्धियों को भी दूसरों के सामने बढा-चढा कर पेश कर गौरव का अनुभव करता है इस तथ्य को भूल कर कि सामने वाले के भी बच्चे हैं वे इससे बढ कर भी लायक हो सकते हैं। फिर चाहे सामने वाला सौजन्यवश ही हां-हूं करता रहे।
इधर कुछ अजीबोगरीब चलन फिर जोर पकडने लगा है। मां-बाप बच्चों के अज्ञान को भी महिमामंडित करने लगे हैं। खासकर नवधनाढ्य वर्ग। बडे फक्र से ये लोग बताते हैं कि उनके बच्चे को तिरसठ या तिहत्तर जैसे हिंदी शब्दों का अर्थ नहीं मालुम या बच्चे दिनों के नाम हिंदी में नहीं जानते या कि उन्हें देसी कार्न-फ्लेक्स तो बिल्कुल ही पसंद नहीं है इत्यादि-इत्यादि। ऐसा बता कर शायद अपने आप को आम से अलग कुछ खास जताने की मंशा रहती हो।
अभी पिछले दिनों यात्रा के दौरान ट्रेन में दो ऐसे ही परिवारों से सामना हो गया। एक सिख परिवार था दो बच्चे, करीब सात और नौ के दर्मियान और माँ तथा दूसरा छत्तीसगढ के मिँया-बीवी थे तकरीबन 30-35 साल के। उनके बच्चे साथ नहीं थे। लगे हुए थे दोनों परिवार अपने-अपने बच्चों की प्रशंसा में जमीन-आसमान एक करने। बेटों की मां तो ऐसे न्योछावर थी अपने सिंह शावकों पर कि क्या माता यशोदा कृष्ण पर हुई होंगी। बच्चों के ज्ञान का बखान करते नहीं थक रही थीं, उनका मोबाइल ज्ञान, उनका इंटरनेट ज्ञान, उनका गेम्स का ज्ञान, उनका फिल्मों का ज्ञान। गर्वीली मां के अनुसार उनके पापा खुद तो कहीं गिर-गुर जाने या खोने के डर से पुराना और सस्ता मोबाइल ही प्रयोग करते हैं पर बाज़ार में आया हर नया “उपकरण” बच्चों को उपलब्ध करवाते हैं।
दूसरा परिवार भी पीछे नहीं था। जैसे ही पहली मां सांस लेने के लिए छोटा सा ब्रेक लेती ये महाशय शुरु हो जाते। इनका एक प्लस प्वाइंट यह था कि किसी और के कर्मों के योग से यह देश के बाहर का भ्रमण कर आए थे जिसको जाहिर करने के लिए ये बार-बार छतीसगढी उच्चारण के साथ आंग्ल भाषा का प्रयोग जम कर कर रहे थे। उनके अनुसार उनके सपूत किसी छोटे-मोटे देसी रेस्त्रां में जाना ही पसंद नहीं करते। विदेशी फास्ट फुड उनकी पहली पसंद है। घर में भी आपस में हिंदी बोलना उन्हें गवारा नहीं है। अंदाज लगाया जा सकता है कि जब भाई साहब ही 30-35 के हैं तो उनके बरखुरदारों की उम्र क्या होगी।
काफी देर तक मैं सब सुनता रहा। रोकता रहा किसी तरह अपने-आप को उनके रंग में भंग डालने से। तभी उनमें से एक बच्चे के मोबाइल की घंटी बज उठी उसने हेलो कहा और अपनी मां की ओर यह कहते हुए फोन बढा दिया, लो आपके उनका है, उदास हैं आपके बगैर। मां ने मुस्कुरा कर हम सब को ऐसे देखा जैसे अपने पुत्तर की विद्वत्ता पर मोहर लगा रही हो। अब तो अपुन से भी रहा नहीं गया, मौका भी मिल गया था तो पहले शेर के पुत्तर से दोस्ती गांठी इधर-उधर की बातें की और फिर पूछ लिया, बेटा बताओ अपने दस गुरु कौन –कौन थे? छोटे सरदार ने कुछ सोचा फिर बोला, नानक देवजी, अर्जुनदेवजी, गोविंद सिंह जी और फिर मां का मुंह देखने लगा। मां क्या करती या बोलती खिसियानी सी हंसी से सफाईयां देती रही। मैंने माहौल भारी नहीं होने दिया कुछ इधर-उधर की बातें करते-करते 'छत्तीसगढिया साहब' से उनकी यात्रा की बातें और बाहर के अनुभवों की बात छेड दी। वह भी सब कुछ विस्तार से बताने लगे। ऐसे ही उनसे बातों-बातों में पूछ लिया कि बाहर इन फास्ट फूड वालों का क्या हाल है? उन्होंने बताया कि वहां तो कम खपत देख-महसूस कर रेस्त्रां वालों ने खाद्यपदार्थों की कीमतें बहुत कम कर दी हैं, पता नहीं वहां जैसी गुणवत्ता ना होने के बावजूद हमारे यहां कीमतें ज्यादा क्यों हैं। मैं ने फिर कुरेदा कि स्वादिष्ट होने के बावजूद वहां ऐसा क्यों है? तो बोले, वहां के लोगों की ज्यादा जागरूकता के कारण अब ऐसे खाद्यों से लोग दूर होने लगे हैं। मैंने कहा आप सब देख-सुन कर आए हैं। आपको इस तरह के खाद्य पदार्थों के दूरगामी नुक्सानों की भी जानकारी है। आपके बच्चे अभी नासमझ हैं। फिर भी आप उन्हें समझा नहीं पा कर जानते-बूझते उन्हें गलत पोषण दे रहे हैं तो इसमें गलती किसकी है। महाशय का जवाब था कि वे मानते ही नहीं हैं, बहुत जिद्दी हैं, घर सर पर उठा लेते हैं। मैंने कहा कि बुरा मत मानिएगा पर कभी गौर से सोच कर देखिएगा कि उनका जिद्दी स्वभाव कहीं आपके गलत मोह-प्यार का नतीजा तो नहीं है। उनके रोने-धोने, जिद करने से आप जानते-बूझते उनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड कर रहे हों।
वातावरण कुछ भारी हो गया था पर शुक्र है गाडी तभी दुर्ग पहुंच गयी जो उन दोनों परिवारों का गंतव्य था। सामान समेट वे उतर गये शायद मुझे कोसते हुए क्योंकि जाहिर है उनका धृतराष्ट्रिय प्रेम भविष्य में भी बच्चों का “बिलखना” नहीं सह पाएगा।
इधर मैं सोच रहा था कि यह कैसा प्रेम, मोह, वात्सल्य है जो अपने ही बच्चों को ना उचित संस्कार दे पा रहा है ना अच्छे-बुरे का ज्ञान करवा पा रहा है, अपनी सक्षमता को उनकी जायज-नाजायज मांगों की पूर्ति में जाया कर रहा है। आज के युग में बच्चों को समय के साथ चलने में साथ देने में तो कोई बुराई नहीं है पर उम्र के इस नाजुक दौर में उन्हें अच्छे-बुरे, सही-गलत की पहचान करवाना भी बहुत जरूरी है।
2 टिप्पणियां:
अपने जड़ों का ज्ञान नहीं तो सब व्यर्थ है..
प्रवीण जी
अब इन दिनों के एकल परिवार में ज्ञान दे कौन ! जब कि अभिभावक खुद ही ज्ञान हीन हों !
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