तब कलकत्ता, कलकत्ता ही हुआ करता था. कोलकाता नहीं.





कलकत्ता को महलों का शहर कहा जाता है। ज्यादातर अट्टालिकाएं इसी इलाके में हैं, जो वास्तु और शिल्प का बेजोड नमूना हैं। धर्मतल्ला के 8-10 की.मी. के दायरे मे अंग्रेजी कलाकारी का बेहतरीन कार्य दिखाई पडता है। चाहे वह ताजमहल की तर्ज पर बना विक्टोरिया मेमोरियल हो, चाहे देश के सुंदरतम भवनों में से एक गवर्नर हाउस हो, या फिर फोर्ट विलियम, एक ऐसा किला जो जमीन की सतह से नीचे बनाया गया है, दूर से पता ही नहीं चलता कि वहां कुछ है भी कि नहीं। इनके अलावा ग्रैंड होटल की विशाल इमारत, राइटर्स बिल्डिंग, विक्टोरिया हाउस, अजायब घर, मुख्य पोस्ट आफिस का भव्य भवन, मेट्रोपोलेटिन बिल्डिंग, सेना का मुख्यालय, शहीद मिनार, मेट्रो सिनेमा, टीपू की मस्जिद, स्टेटस मैन का भवन या फिर देश का पहला प्लैनेटेरियम जो बिडलाजी की सौगात है इस शहर को, क्या-क्या गिनाया जाए।
आदमी घूमता-घूमता थक जाए तो पास ही बहती गंगा के किनारे बना बाबूघाट जैसे बाहें पसारे लोगों की थकान मिटाने को आतुर हुआ करता था। शाम ढले किताबों के शौकीनों के लिए हर तरह की किताबों का एक विशाल "जखीरा" पसरा रहता था मेट्रो सिनेमा और शहीद मिनार के बीचो-बीच।
पर अब सब कुछ बदल सा गया है, ना वह शांति है ना पहले जैसा सकून नाही फुरसत का वैसा माहौल। पैदल पथों पर फेरी वालों ने अतिक्रमण कर चलना दूभर कर दिया है। मेट्रो के बनने से अब वह खुलापन भी दिखाई नहीं देता। शाम ढलते-धलते असामाजिक तत्वों के डर से लोगों ने मैदान की तरफ हवाखोरी के लिए जाना बंद सा कर दिया है। चारों ओर अफरा-तफरी और भागम-भाग ही दिखाई पडती है। कभी जाओ तो हूक सी उठती है दिल में, बरबस याद आ जाता है वह गुजरा जमाना।
14 टिप्पणियां:
बखूब याद किया है आपने पुराने दिनों को ... मेरी भी काफी सारी यादें जुड़ी हुयी है इस शहर से ... मेरी जन्मभूमि है कलकत्ता !
अच्छी जानकारी दी....बहुत पहले एक बार हम भी कलकत्ता गये थे।
शर्माजी इस पोस्ट को पढ़ कर पुरानी यादे ताजी हो गयी !अब तो tramway भी लुप्त प्राय है ! मानव द्वारा खींचते रिक्से तो चार चाँद लगा देते है !
कलकत्ता के दिन याद आ गये।
शिवमजी,
बचपन से लेकर करीब 35 साल वहां गुजरे हैं। कहां भूल पाया जाएगा वह समय। वैसे आप कहां रहा करते थे?
मेरा आधा समय हावडा लाइन पर स्थित 'कोननगर' तथा बाकि सियालदह लाइन पर बैरकपुर के आगे 'कांकिनाडा में व्यतीत हुआ था। स्कूल कालेज सब कलकत्ता में ही निपटा था।
शाहजी, ट्राम को भी कयी अच्छे-बुरे समय से गुजरना पडा है। पर अब उसे 'हेरीटेज' का दर्जा प्राप्त हो गया है। रही हाथ रिक्शे की बात तो वह अमानवीय तो था ही।
प्रवीणजी, यह शहर ही ऐसा है, पता नहीं क्या बात है भुलाए नहीं भूलता।
शिवमजी,
बचपन से लेकर करीब 35 साल वहां गुजरे हैं। कहां भूल पाया जाएगा वह समय। वैसे आप कहां रहा करते थे?
मेरा आधा समय हावडा लाइन पर स्थित 'कोननगर' तथा बाकि सियालदह लाइन पर बैरकपुर के आगे 'कांकिनाडा में व्यतीत हुआ था। स्कूल कालेज सब कलकत्ता में ही निपटा था।
शर्मा जी ,
मैं बैरकपुर से लगभग 5 - 6 स्टॉप पहले अगरपाड़ा मे रहता था ! 1997 तक हम लोग वहाँ रहे फिर मैनपुरी आ गए और तब से यहाँ ही है !
अरे, मेरी पहली नौकरी भी आपके पास ही लगी थी, कमरहट्टी में स्थित कमरहट्टी जूट मील में। वहां 78 तक था मैं। पिताजी कांकीनाडा में रिलायंस जूट मील में थे।
शर्मा सर जी 78 मे मैं सिर्फ एक साल का था ... और अब आपसे निवेदन है कि मुझे केवल शिवम ही कहे ... मेरे पिता जी वही पास मे जो सिगरेट फैक्टरी थी NTC उस मे काम करते थे ... 1994 मे उनका रिटायरमेंट हो गया फिर 1997 मे हम सब मैनपुरी आ गए !
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कब तक अस्तिनो में सांप पालते रहेंगे ?? - ब्लॉग बुलेटिन
शिवम.....जी, जी लगा रहने दें :-)
कितना अच्छा लगता है इस तरह के अनोखे संबन्ध बनने से। जिनके लिए शब्द ही ना मिलते हों। मैंने अनदेखे अपनों का नाम दिया हुआ है।
'यह सर जी बहुत भारी लग रहा है।'
♥
आदरणीय गगन शर्मा जी
सादर नमस्कार !
तब कलकत्ता, कलकत्ता ही हुआ करता था, कोलकाता नहीं ! पढ़ कर स्मृतियों की वीथियों में भटकने चला गया मन … … …
मैं कलकता कभी नहीं गया मेरे बाबूजी अपने बचपन की बातें बताया करते थे कलकत्ता के बारे में… … …
उदासी-सी तारी हो रही है ……
# कवि हूं, दो-चार बार आमंत्रण मिले भी कलकत्ता आने के … इसी होली से पहले भी निमंत्रित था…
लेकिन कभी संयोग नहीं बन पाया
आपके आलेख ने कलकत्ता के लिए मन में बसे एक 'चार्म' ने अंगड़ाई ली है …
चित्रों के लिए आभार !
शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
राजेन्द्रजी, मौका मिलते ही जरूर जाएं। गुणी-जनों के लिए यह शहर सदा बाहें पसारे रहता है।
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