यह सन्देश अभी-अभी Internet पर मिला इस आशा के साथ कि इसे और लोग भी देखें-पढ़ें। इसीलिए...........
एक रोटी नहीं दे सका कोई उस मासूम बच्चे को लेकिन उसकी यह तस्वीर लाखों मे बिक गयी, जिसमें रोटी के लिये वह बच्चा उदास बैठा है……………।

वैसे भी हमें बीस रुपये भीख मे देना बहुत ज्यादा लगता है, पर होटल मे इतनी टिप देना बहुत कम लगता है।
7 टिप्पणियां:
ठीक कहा आपने... इस तरह से सोचते भी कहाँ हैं हम
संवेदनाओं का अकाल है।
नव-वर्ष की मंगल कामनाएं ||
बात तो सही लगी.... लेकिन कुछ उलझन में रहता हूँ...
— जब एक जरूरतमंद भिक्षुक को देने के बाद दूसरे-तीसरे से मुँह छिपाता हूँ या उपेक्षा दर्शाता हूँ.
— क्या प्रतिदिन १० रुपये दान करने से भिक्षावृत्ति में सुधार (घटाव) आयेगा अथवा वह फलेगी-फूलेगी.
— मैं अपने मन की पुरानी बात कहता हूँ....
जेब में मेरे ........ 'अठन्नी'
हाथ फैलाता.......... 'भिखारी' ...........दूर दिखता.
काटता हूँ ........... मैं इधर ........चुपचाप 'कन्नी'.
शब्दों की कटार लगी आपकी पोस्ट.
भावनाएं मर चुकी हैं अब हमारे अंदर कुछ नहीं बचा है अगर कुछ है तो केवल दिखावा सर से पाओं तक सिर्फ झूठ .... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आप्क स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
प्रतुलजी, एक बात और भी है, अक्सर हाथ थम जाता है क्योंकि आज कौन सचमुच जरूरतमंद है और कौन धंधा कर रहा है इसकी पहचान ना होने के कारण।
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