मे महीने की तपती गर्मी. इस महीने की 22 तारीख को होने वाली एक शादी में शिरकत करने पंजाब जाना बहुत जरुरी था। कहने को तो मेरे मौसेरे भाई की कन्या की शादी थी पर वह मेरी बेटी के समान ही है। मौसीजी का स्नेह इतना ज्यादा रहा है हमारे साथ कि कभी लगा ही नहीं कि हमारे दो अलग परिवार हैं। इसीलिए मेरी माताजी, जिनकी उम्र 80 को छू रही है अपने को वहां जाने से नहीं रोक पाईं। हालांकि दोनों रिहाईशों में 2000 कीमी का फासला है। वैसे तो मेरे भाई जीवनजी परिवार समेत कुल्लू मे रहते हैं पर लड़के वालों के कहने पर शादी जालंधर जिले के जमशेर कस्बे के पास एक गांव चननपुर, जो शहर से करीब 25-26 कीमी दूर है, के पुश्तैनी घर में होनी थी और "विवाह उपरांत भोज" हिमाचल के कुल्लू इलाके में।
महीनों से मुझे दसेक दिन पहले आने को कहा जा रहा था पर मौका आने पर एक दिन पहले ही चलना हो पाया। फिर भी छोटे भाई प्रशांत को परिवार समेत पहले ही भेज दिया था। जिसने बखूबी वहां सब का हाथ बटाया। उस परिवार मे इस पीढी की यह पहली शादी थी। इसलिए शिरकत बहुत जरूरी थी।
तो 21 की शाम चार बजे के आस-पास निकलना संभव हुआ जो कुछ देर से ही कहा जाएगा। इसी देरी के निवारण हेतु दिल्ली से बाहर निकलते ही गाडी की गति 100-120 के आस-पास बनी रहने लगी। इधर राजधानी की सीमा खत्म हुई कि एक बोर्ड दिखलाई पड़ा जिस पर लिखा था ‘हरियाणा पुलिस द्वारा आपका स्वागत है।' इसका प्रमाण भी कुछ ही आगे जाने पर मिल गया जब पानीपत के ‘उड़न पुल’ पर गाड़ी को रोकने का इशारा हुआ। बड़ी नम्रता से गाड़ी की रफ्तार 90 के उपर होना बताया गया, जोकि सरकार द्वारा निर्धारित गति सीमा है। प्रेम पूर्वक 400/- का चूना लगा मीठी भाषा में विदाई दी गयी। गलती थी तो भुगतना तो था ही।
खैर आगे बढे पर अब सरकारों की सरकार के तीखे तेवरों का सामना करने की बारी थी। जो मौसम के तेवरों से साफ पता चल रही थी। अंबाला पहुंचते-पहुंचते जो बारिश शुरु हुई, अपने साथियों आंधी और तूफान के साथ, तो गाड़ी का आगे बढना मुश्किल हो गया। गति बमुश्किल बीस के आस-पास सिमट कर रह गयी। पंजाब से लगातार फोन आ रहे थे "Whereabouts" के। घर पर सभी ऐसे मौसम के कारण चिंताग्रस्त थे। उधर जालंधर के ‘रामा मँड़ी’ चौक पर दो जने तैनात थे, मेन रोड़ छोड़, हमें आगे ले जाने के लिए। पर लगातार बढते इंतजार के चलते वे भी उस भीषण रात में परेशान हो रहे थे। पर कोई चारा भी नहीं था क्योंकि यह भाई पहली बार उधर आ रहा था तथा जिसका इस अंजान रास्ते, अंधेरी रात, सुनसान सड़क से घर तक पहुंचना बिल्कुल नामुमकिन था। किसी तरह संभलते-संभालते, साथ रखे राशन से गुजारा करते करीब रात के पौने एक बजे रामा मंड़ी चौक पहुंचे तो दसियों लोगों ने ठंड़ी सांस ली। वहां से भी घर तक पहुंचने में करीब आधा घंटा और लग गया। घर पहुंचने पर पता चला कि अंधड़-पानी के गैर जिम्मेदराना रवैये से नाखुश हो बिजली रानी रूठ कर चली गयी हैं। मोमबत्तियों की रोशनी में ही पैरों का छूना, छुआना, गले मिलना सब निपटा। उसी “कैंडल लाइट” में पेट में कुछ हल्का-फुल्का डालते, बिस्तर तक जाते-जाते तीन तो बज ही गये थे।
रविवार का दिन खुशनुमा था। मान-मन्नौवल के बाद बिजली रानी भी करीब नौ बजे के आस-पास लौट आईं थीं। कुछ बच्चे तो पहली बार खेत और टयूब-वेल देख अपने को नहीं रोक पाए और वहीं नहाने का स्वर्गिक आनंद ले कर ही माने। वर्षों बाद बहुत से लोगों से मिलना हुआ था। मिलते-मिलाते, खाते-पीते, गपियाते कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। वैसे इस जगह पहली बार आना हुआ था पर वहां के लोगों के भाईचारे, आत्मीयता, स्नेह देख एक क्षण को भी ऐसा नहीं लगा कि किसी अनजान जगह में अपरिचित लोगों के बीच हैं। पता ही नहीं चलता था कि शादी वाला मकान कौन सा है। क्योंकि आस-पास के आठ-दस घरों में बाहर से आए लोगों की ठहरने की व्यवस्था थी, तो कोई कहीं भी बैठ रहा है, कहीं बतिया रहा है, कहीं भी आ-जा रहा है, सब “ऐट होम” जैसा। कोई अफरा-तफरी नहीं, कोई अव्यवस्था नहीं, किसी को कोई परेशानी नहीं। ऐसा लगता था जैसे बहुत ही कुशल हाथों में सारा प्रबंधन हो। बहुत से लोग ऐसे थे जो पहली बार शहर से बाहर आए थे वे इस ठेठ गांव का ठाठ देख कर विस्मित थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था ऐसी सुविधाओं के वहां होने का। जो अच्छे खासे शहरों को मात दे रही थीं। वहां का “मनीला पैलेस”, जहां शादी के सारे कार्यक्रम होने थे, सारी सुविधाओं से सुसज्जित था। साफ-सुथरे कमरे, करीने से कटी घास वाला लान, अत्याधुनिक टायलेट्स, सुंदर तरीके से सजे स्टाल जहां ट्रेंड़ बेयरे बड़े सलीके से अपने काम को अंजाम दे रहे थे। शहर से दूर शांत वातावरण में हल्के मधुर संगीत ने माहौल को खुशगवार बनाए रखा था। हां ध्वनीरोधक हाल में जरूर तेज, शोर भरा "डी.जे." अपना जलवा बिखेर रहा था, पर उसकी आवाज बाहर नहीं आ रही थी।
सबसे बड़ी बात खाने की हर चीज लजीज और सुस्वादु थी। सब कुछ था पर मेरे मन में एक कसक भी जगह बनाए जा रही थी। साफ दिख रहा था कि गांव के भोलेपन पर शहर अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ हावी होते जा रहा है। सुदूर गांवों की ओर भी उसके निर्मम कदमों की बढती चापें सुनाई देने लग गयी हैं। इस पर तो अब किसी का वश भी नहीं रहा। वहां के रहने वाले भी शहर की चकाचौंध से अभीभूत हैं। वे सब भी शहरी जिंदगी जीना चाहते हैं। वैसे यह भी तो कोई बात नहीं हुई ना कि हम तो शहर छोड़ना ना चाहें और गांव में रहने वालों को “म्यूजियम” की तरह रखना चाहें जिससे हमारे बच्चे गांव क्या होता है इसकी जानकारी लेते रह सकें। समय के साथ-साथ बदलाव तो होना ही है।
खैर प्रभू की दया से बिना किसी अड़चन के सारे शुभ कार्य पूर्ण हो गये। मुंह-अंधेरे बिटिया की विदाई भी हो गयी उसके नये घर, परिवार के लिए जहां से उसके जीवन की एक नयी शुरुआत होनी है।
अब कोई जालंधर तक आ कर अमृतसर ना जाए यह तो हो ही नहीं सकता जब तक कि कोई मजबूरी ही ना हो। सो हम भी एक नींद ले तरोताजा होने के लिए बिस्तर पर जा गिरे जिससे दोपहर में हरमंदिर साहब के दर्शनों के लिए अपनी यात्रा को आगे बढा सकें।