रविवार, 8 मार्च 2009

क्या कभी स्वर्ग में महिला का राज सुना है ?

आठ मार्च, महिला दिवस। सभी खुश हैं जैसे किसी लुप्तप्राय प्रजाति को बचाने के लिए प्रयास किया जा रहा हो। वे और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर आज का दिन मनाया जा रहा है।
आश्चर्य होता है, दुनिया के आधे हिस्से के हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए, उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन निश्चित किया गया है। इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर समाज ने, समाज में उन्हें इतना चौंधिया दिया होता है कि वे अपने कर्मों के अंधेरे को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगं।
ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं उद्यमी नहीं हैं, लायक नहीं हैं, मेहनती नहीं हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। पर पुरुष वर्ग ने बार-बार, हर बार उन्हें दोयम होने का एहसास करवाया है। आज सिर्फ माडलिंग को छोड दें, हालांकि वहां और बहुत से तरीके हैं शोषण के, तो हर जगह महिलाओं का वेतन पुरुषों से कम है। हो सकता है इक्की दुक्की जगह इसका अपवाद हो।
इतिहास को छोड़ पौराणिक ग्रंथ इसके गवाह हैं कि जब-जब पुरुष को महिला की सहायता की जरूरत पड़ी है उसने उसे सिर-आंखों पर बैठाया है, मतलब निकलते ही तू कौन तो मैं कौन?
देवता, चाहे कल्पना हो चाहे हकीकत, जो अपने आप को बहुत दयालू, न्यायप्रिय, सबका हित करने वालों की तरह पेश करती आये हैं, उन पर जब-जब मुसीबतें पड़ीं उन्होंने एकजुट हो कर शक्ति रूपी नारी का आवाहन किया पर मुसीबत टलते ही उसे पूज्य बना कर एक कोने में स्थापित कर दिया। कभी सुना है कि स्वर्ग में किसी महिला का राज रहा हो। इस धरा पर माँ जैसा जन्मदाता, पालनहार, ममतायुक्त, गुरू जैसा कोई नहीं है फिर भी अधिकांश माओं की हालत किसी से छिपी नहीं है।
आज के दिन का नामकरण अमेरिका में घटी एक घटना से हुआ। जो तथाकथित रूप से दुनिया का सबसे ज्यादा सम्पन्न, शिक्षित, न्यायप्रिय और सर्व साधन सम्पन्न देश है। वहां महिलाओं को अपने हितों के लिए लड़ना पड़ा। तो बाकि जगहों की क्या कहें।
होना तो यह चाहिए कि महिलाएं खुद इस दिन का बहिष्कार कर यह जतातीं कि जब पुरुषों ने अपने लिए कोई दिन निश्चित नहीं किया तो हमें क्यों एक दिन समर्पित कर एहसान जता रहे हो। पर ऐसा कैसे हो। इस एक दिन के बहाने, एक और दिन मिल जाता है, पांच सितारा होटलों में, लज़ीज़ व्यंजनों की महक लेते हुए घड़ियाली आंसू बहाने का। यहां इकठ्ठा बहूरूपिए कभी खोज-खबर लेते हैं, सिर पर ईंटों का बोझा उठा मंजिल दर मंजिल चढती रामकली की। अपने घरों में काम करतीं, सुमित्रा, रानी, कौशल्या, सुखिया की। कभी सोचा है तपती दुपहरी में खेतों में काम करती रामरखिया के बारे में। कभी ध्यान दिया है दिन भर सर पर सब्जी का बोझा उठाए घर-घर घूमती आसमती पर।
नहीं ! क्योंकि उससे अखबारों में सुर्खियां नहीं बनतीं, टी.वी. पर चेहरा नज़र नहीं आता। ऐसा यदि करना पड़ जाता है तो पहले कैमरे और माईक का इंतजाम होना जरूरी होता है। ऐसे दिखावे जब तक खत्म नहीं होंगें, महिला जब तक महिला का आदर करना नहीं शुरु करेगी तब तक चाहे एक दिन इनके नाम करें चाहे पूरा साल, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

4 टिप्‍पणियां:

manvinder bhimber ने कहा…

बिल्कुल सही बात । महिला दिवस की बधाई।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुंदर लेख लिखा.
धन्यवाद

आपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी भीगी भीगी बधाई।
बुरा न मानो होली है। होली है जी होली है

बेनामी ने कहा…

बात तो सही है,

बेनामी ने कहा…

इतना संतुलित तो भगवान् शिव भी नहीं हो पाए थे. बेहद सुन्दर. आभार.

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