जैसा कि सुब्रमणियन जी ने बताया कि महाबलीपुरम के शिव मंदिरों में गणेश जी की प्रतिमा नहीं मिलती तो मेरे ख्याल से इसके लिये शायद वह पौराणिक घटना जिम्मेवार हो सकती है जिससे कार्तिकेय जी नाराज हो गये थे। कथा तो बहुत से लोगों को मालुम होगी फिर भी प्रसंगवश दिये दे रहा हूं :-
पुराणों के अनुसार एक बार कार्तिकेय और गणेश जी में इस बात पर बहस हो गयी कि उन दोनों में कौन श्रेष्ठ तथा माता-पिता को ज्यादा प्रिय है। फैसला करवाने दोनों भाई शिव जी तथा माता पार्वती जी के पास पहुंचे और इस गुत्थी को सुलझाने के लिये कहा। शिव जी तथा मां पार्वती दोनों पेशोपेश में पड़ गये फिर भी उन्होंने एक रास्ता निकाला और कहा कि जो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा पहले आएगा वही श्रेष्ठ कहलायेगा। इतना सुनते ही कार्तिकेय जी अपने वाहन मयूर पर सवार हो निकल पड़े। इधर गणेश जी कभी अपने भारी भरकम शरीर को देखें और कभी अपने वाहन छोटे से चूहे को, जिस पर सवार हो पूरी यात्रा करने में उन्हें महिनों लग जाने थे। तभी उनकी तीव्र बुद्धी ने उन्हें एक मार्ग सुझाया कि सारे ब्रह्मांड़ से बड़ा और श्रेष्ठ मां-बाप का पद होता है। फिर क्या था उन्होंने झट अपने माता-पिता की सात प्रदक्षिणाएं कीं और हाथ जोड़ दोनों की स्तुति कर उनके चरणों में बैठ गये। उनकी इस चतुराई से दोनों जने बहुत खुश हुए और उन्हें श्रेष्ठ होने का पुरस्कार प्रदान कर दिया।
उधर जब पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा कार्तिकेय लौटे तो उन्हें इस बात की जानकारी से बहुत दुख हुआ और वे नाराज हो विंध्य पर्वत के पार कभी भी लौट कर ना आने की कसम ले चले गये। उनके इस तरह नाराज हो चले जाने से अब तक दोनों भाईयों की बहस को बच्चों की झड़प मानने वाले शिव तथा पार्वती जी ने बात की गंभीरता को समझा और वे तुरंत अपने बड़े बेटे को मनाने निकल पड़े, पर तब तक बात बहुत बिगड़ चुकी थी। कार्तिकेय को न मानना था और न वह माने। हां उन्होंने अपने माता-पिता की बात रखते हुए अपनी नाराजगी तो दूर कर ली और पर साथ ही यह भी कहा कि मैं तो कैलाश नहीं आउंगा पर आप मुझसे मिलने इधर विंध्य पार जरूर आते रहें। तब से ही दक्षिण में कार्तिकेय जी, जिन्हें वहां मुरुगन जी के नाम से भी जाना जाता है, के मंदिरों की बहुतायद है।
हो सकता है कि यही कारण हो जो यहां के मंदिरों में गणेश जी की प्रतिमाएं नहीं पायी जातीं।
* एक छोटी सी जिज्ञासा, यदि ऐसा हुआ था तो क्या यह कार्तिकेय जी, जिन्होंने माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर उनके आदेश को सर्वोपरि माना, उनका रूठना क्या जायज नहीं था ?
पर ऐसा भी हो सकता है कि अपने-अपने देवों को प्रमुखता देने के लिये भक्तों ने अपनी-अपनी तरफ से कथाएं गढ ली हों। ऐसा पाया भी गया है और इसकी संभावना भी बहुत है।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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5 टिप्पणियां:
शर्माजी आपकी इस बात मे दम है कि भक्तों ने अपने २ भगवानों को प्रमुखता देने के हिसाब से ही ये कथाएं गढी होंगी. खैर जो भी हो यें है बडी प्रीति पुर्ण कथाएं. बहुत आभार आपका.
रामराम.
शर्माजी , आप की बात सही है यह हमीं लोगे ने ओर हमारे बुजुर्गो ने ही कहानीयां गढी है, बाकी भगवान जाने , लेकिन आप ने जानकारी बहुत अच्छे ढंग से दी है.आप का धन्यवाद
ऐसा नहीं कि वे बिलकुल ही नहीं हैं.गोपुरम में कहीं कहीं विराजमान हैं जो साधारणतया कोई देख नहीं पता. हमारे पास वे चित्र भी है. आपकी बात खारिज नहीं की जा सकती. वैसे गणेश जी कि पूजा आदि एकदम वैदिक नहीं है. कुछ विद्वानों का मत है कि वे जन जातीय देवता हैं और वैदिक धर्म में उनका विलय हुआ था..
ऐसी कथाओं पर जिज्ञासाएं सर उठाती हैं किन्तु 'किंवदन्तियों' क नाम पर वे सदैव ही उनुत्तरित रहती हैं।
गणेश पूजन को लेकर मेरे कस्बे के एक पण्डितजी (निश्चय ही वे ब्राह्मण ही हैं) कहते हैं - जरा तलाश्ा कीजिए कि गणपति के आविर्भाव से पहले किसी पूजा से प्रारम्भ हुआ करता था?
कथा तो थोड़ी बहुत पता थी पर पूरी नहीं. बाँटने के लिए आभार
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