मलाणा, हिमाचल के सुरम्य पर दुर्गम पहाड़ों की उचाईयों पर बसा वह गांव जिसके ऊपर और कोई आबादी नहीं है। आत्म केन्द्रित से यहां के लोगों के अपने रीति रिवाज हैं, जिनका पूरी निष्ठा तथा कड़ाई से पालन किया जाता है, और इसका श्रेय जाता है इनके ग्राम देवता जमलू को जिसके प्रति इनकी श्रद्धा, खौफ़ की हद छूती सी लगती है। अपने देवता के सिवा ये लोग और किसी देवी-देवता को नहीं मानते। यहां का सबसे बडा त्योहार फागली है जो सावन के महिने मे चार दिनों के लिये मनाया जाता है। इन्ही दिनों इनके देवता की सवारी भी निकलती है, तथा साथ मे साल मे एक बार बादशाह अकबर की स्वर्ण प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। कहते हैं एक बार अकबर ने अपनी सत्ता मनवाने के लिये जमलू देवता की परीक्षा लेनी चाही थी तो उसने अनहोनी करते हुए दिल्ली मे बर्फ़ गिरवा दी थी तो बादशाह ने कर माफी के साथ-साथ अपनी सोने की मूर्ती भिजवाई थी। इस मे चाहे कुछ भी अतिश्योक्ति हो पर लगता है उस समय गांव का मुखिया जमलू रहा होगा जिसने समय के साथ-साथ देवता का स्थान व सम्मान पा लिया होगा। सारे कार्य उसी को साक्षी मान कर होते हैं। शादी-ब्याह भी यहां, मामा व चाचा के रिश्तों को छोड, आपस मे ही किए जाते हैं। वैसे तो यहां आठवीं तक स्कूल,डाक खाना तथा डिस्पेंसरी भी है पर साक्षरता की दर नहीं के बराबर होने के कारण इलाज वगैरह मे झाड-फ़ूंक का ही सहारा लिया जाता है।भेड पालन यहां का मुख्य कार्य है, वैसे नाम मात्र को चावल,गेहूं, मक्का इत्यादि की फसलें भी उगाई जाती हैं पर आमदनी का मुख्य जरिया है भांग की खेती। यहां की भांग जिसको मलाणा- क्रीम के नाम से दुनिया भर मे जाना जाता है, उससे बहुत परिष्कृत तथा उम्दा दरजे की हिरोइन बनाई जाती है तथा विदेश मे इसकी मांग हद से ज्यादा होने के कारण तमाम निषेद्धों व रुकावटों के बावजूद यह बदस्तूर देश के बाहर कैसे जाती है वह अलग विषय है।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
गुरुवार, 31 जुलाई 2008
मलाणा, यहाँ के लोगों ने कचहरी का मुंह नही देखा है
हमारा देश विचित्रताओं से भरा पड़ा है। अनोखे लोग, अनोखे रीति-रिवाज, अनोखे स्थल। ऐसी ही एक अनोखी जगह है, हिमाचल की पार्वती घाटी या रूपी घाटी मे 2770मी की ऊंचाई पर बसा गावं मलाणा। विद्वानों के अनुसार यह विश्व का लोकतांत्रिक प्रणाली से चलने वाला सबसे पुराना गावं है। यहां पहुंचने के दो रास्ते हैं, पहला कुल्लू जिले के नग्गर इलाके का एक दुर्गम चढ़ाई और तिक्ष्ण उतराई वाला, जिसका बरसातों मे बहुत बुरा हाल हो जाता है, पर्यटकों के लिये तो खास कर ना जाने लायक। दूसरा अपेक्षाकृत सरल, जो जरी नामक स्थान से होकर जाता है। यहां मलाणा हाइडल प्रोजेक्ट बन जाने से जरी से बराज तक सुंदर सडक बन गयी है, जिससे गाडियां बराज तक पहुंचने लग गयीं हैं। यहां से पार्वती नदी के साथ-साथ करीब 2किमी चलने के बाद शुरू होती है 3किमी की सीधी चढ़ाई, पगडंडी के रूप मे। घने जंगल का सुरम्य माहौल थकान महसूस नहीं होने देता पर रास्ता बेहद बीहड तथा दुर्गम है। कहीं-कहीं तो पगडंडी सिर्फ़ दो फ़ुट की रह जाती है सो बहुत संभल के चलना पड़ता है। पहाडों पर रहने वालों के लिए तो ऐसी चढ़ाईयां आम बात है पर मैदानों से जाने वालों को तीखी चढ़ाई और विरल हवा का सामना करते हुए मलाणा तक पहुंचने मे करीब चार घंटे लग जाते हैं। कुछ सालों पहले तक यहां किसी बाहरी व्यक्ती का आना लगभग प्रतिबंधित था। चमडे की बनी बाहर की कोई भी वस्तु को गावं मे लाना सख्त मना था। पर अब कुछ-कुछ जागरण हो रहा है,लोगों की आवाजाही बढ़ी है, पर अभी भी बाहर वालों को दोयम नजर से ही देखा जाता है। यहां करीब डेढ सौ घर हैं तथा कुल आबादी करीब पांच-छह सौ के लगभग है जिसे चार भागों मे बांटा गया है। यहां के अपने रीति-रिवाज हैं जिनका पूरी निष्ठा तथा सख्ती के साथ पालन होता है। अपने किसी भी विवाद को निबटाने के लिये यहां दो सदन हैं, ऊपरी तथा निचला। यही सदन यहां के हर विवाद का फ़ैसला करते हैं। यहां के निवासियों ने कभी भी कचहरी का मुंह नही देखा है।
मंगलवार, 29 जुलाई 2008
यक्क दम सच्ची कहानी, कसम लपुझंने की
अनुराधाजी की लघु तथा समीरजी की अणु कथाओं को समर्पित ---- पूरी कायनात बनाने के बाद सृष्टीकर्ता ने अपनी सर्वोत्तम रचना पुरुष को पृथ्वी पर भेजा। सारे प्राकृतिक सौंदर्यों के बावजूद वह कुछ ही दिनों मे ऊब महसूस करने लगा सो उसने प्रभू के पास जा {उन दिनों ऊपर आना-जाना बहुत आसान था} अपनी उलझन बताई प्रभू ने तुरंत नारी का निर्माण कर उसे पुरुष के साथ कर दिया। कुछ दिन तो मौज-मस्ती मे निकल गये पर फिर एक साथ रहना मुश्किल होता देख पुरुषवा, उन दिनों नाम कहां होते थे, फिर अपने रचयिता के पास पहुंचा और नारी को वापस बुला लेने की गुहार करने लगा, दयालु प्रभू ने अपने बच्चे की बात मान नारी को वापस बुलवा लिया। पर कहते हैं ना कि किसी के जाने या मरने के बाद ही उसकी कीमत पता चलती है सो पुरुष भी बेहाल रहने लगा ना दिन कटते थे ना रात तो फिर एक बार वह पहुंचा अपने पिता के पास और अपनी संगिनी को वापस ले जाने की इच्छा जताई भगवान ने उसकी बात मान दोनो को विदा किया। पर वह नर और नारी ही क्या जो आपस मे शांति के साथ रह लें। रोज की किच-किच से तंग आ पुरुष ने फिर एक बार कर्ता के पास जा नारी को वापस बुलवा लेने की बात कही, पर इस बार तो गजब ही हो गया, प्रभू खुद उठ कर उसके पास आये और हाथ जोड कर बोले भैइये उसे तुम ही संभालो, तुम तो मेरे पास दौडे चले आते हो अरे मैं किसके पास जाउं। पुरुषवा बेचारा हताश निराश लौट आया, और उसी दिन से ऊपर का रास्ता भी वन-वे हो गया।
रविवार, 27 जुलाई 2008
तसलीमा के मुखौटे के पीछे का चेहरा
माफी चाहता हूं, इस विषय पर लिखना नहीं चाहता था पर तसलीमा नसरीन का यह रूप उजागर करने से रोक भी तो नहीं पा रहा था खुद को। मेरे जीवन का बडा हिस्सा अपने बंगाल मे बीता है,बहुत नजदीक से जाना है मैने वहां के लोगों को। वहां से जब इस लेखिका का निष्काशन हुआ तो आश्चर्य हुआ था मुझे क्योंकि तसलीमा की जो छवि थी वह एक पुरुष प्रधान समाज से लडती नारी की थी और वहां के वासी अन्याय सहन नही करते, फिर भी किसी ने इस महिला के पक्ष मे आवाज नहीं उठाई। परन्तु दिल्ली से प्रकाशित होने वाली एक प्रतिष्ठित पत्रिका, जिसकी तसलीमा स्तंभ लेखिका हैं, के जुलाई के अंक मे समलैंगिकता के पक्ष मे छपे नसरीन के लेख ने मुझे जोर का झटका और जोर से दे डाला। उनके लेख के कुछ अंश तो यहां लिखे जाने लायक भी नहीं हैं, फिर भी भरसक बचते हुए उन्ही के कुछ शब्दों को उद्धृत कर रहा हूं "समलैगिकों को अब बाहर निकलकर आना होगा। जितने दिनों तक ये लोग घर के अंदर बंद रहेंगे, उतने दिनों तक लोगों को उनके प्रति नफ़रत उगलने मे सहूलियत होगी।" ---"हर इनसान को यह अधिकार है कि वह अपनी कामना पूर्ती के लिये अपना साथी खुद चुने और उसके साथ रहे। मेरे अधिकांश सम* साथी एक साथ रहते हैं और त्याग कर प्यार की कद्र करते हैं।" हमारी अरब पार आबादी मे हर तरह के लोग हैं अच्छाई मे बुराई देखने वाले, बुराई को अच्छाई बताने वाले, भले को बुरा समझने वाले, बुरे को भला बनाने वाले। तो ऐसे देश मे किसी को भी रहना सुहाता है क्योंकि यहां कोई किसी का कत्ल भी कर देता है तो उसे बचाने के लिये सैंकडों हाथ आगे आ जाते हैं। चाहे समाज विरोधी हो या देशद्रोही उसे संरक्षण देने के लिये उसके पीछे लाईन लग जाती है। इसीलिये जितने भी तथाकथित लेखक या पेंटर हैं वह सब वापस आना चाहतें हैं इस सहिष्णु देश मे।
शनिवार, 26 जुलाई 2008
संवेदनहीन होते हम
कल बेंगलूर और आज अहमदाबाद ----- फिर वही वहशत, वही दरिंदगी, वही हैवनियत, वही बेगुनाहों की लाशें, वही मौत का नंगा नाच। जो मरे और जो सैकडों की तादाद मे घायल हुये, क्या कसूर था उनका। किस खता की सजा उन्हें दी गयी। जिन्होने यह सब किया वे तो जो हैं वो तो दुनिया जानती है। पर दुनिया जो शायद नहीं जानती वो यह है कि हम संवेदनहीन हो गये हैं, कोई व्याधि हमं नहीं व्याप्ति। हमारा विरोध सिर्फ़ चैनल बदल-बदल कर और ज्यादा रोमांचक दृश्य देखने तथा मूंह से अफ़सोसजनक शब्द निकालने तक ही रह गया है। इसी का फ़ायदा उठा रहे हैं ये तथाकथित न्यूज वाले। नकल करने के लिये हमारा आदर्श अमेरिका है। पर उसी अमेरिका मे 9/11 को जब दहशत का ज्वालामुखी फटा था तो वहां पूरा देश गम के बादलों के अंधेरे मे एकजुट हो आंसू बहा रहा था। मनोरंजन तो दूर टी वी पर सिर्फ खबरें थीं सिर्फ खबरें। पर हमारे यहां चैनलों के लिये यही वह समय होता है जब विज्ञापन छप्पर फाड कर और दुगनी तिगुनी कीमतों पर हथियाए जाते हैं। मातमी चेहरों का मुखौटा लगाए सारे न्यूज चैनलों के संवाद दाता हर दो मिनट के बाद हमें पांच मिनट के खुशनुमा विज्ञापनों को झेलने के लिये छोड चल देते हैं। हम भी दो मिनट देख अफसोस के दो शब्द बोल, सरकार के सिर जिम्मेदारी मढ किसी और चैनल की तरफ बढ जाते हैं। क्योंकि संवेदना खत्म हो चुकी है हमारे मे।
शुक्रवार, 25 जुलाई 2008
क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आता है
बात कुछ पुरानी है। तब की जब गधा शेर की खाल ओढ़ने के कारण मार खा चुका था। सियार ख़ुद को रंग कर पिट-पिटा चुका था। मगरमच्छ बन्दर से मुहंकी खा पानी में दुबका पडा था और खरगोश तो कछुए से हार कर कहीं भी मुहँ दिखाने के लायक नहीं बचा था। इस सब के बावजूद कौवे की धाक जमी हुयी थी। वह अभी भी चतुर सुजान समझा जाता था।
ऐसे ही वक्त बीतता गया। समयानुसार गर्मी का मौसम भी आ खड़ा हुआ अपनी पूरी प्रचंडता के साथ। सारे नदी-नाले, पोखर-तालाब सब सूखने की कगार पर पहुंच गए। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच गई। ऐसे ही एक दिन हमारा वही चतुर-सुजान कौवा भी पानी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। उसकी जान निकली जा रही थी, पंख जवाब दे रहे थे, कलेजा मुँह को आ रहा था। तभी अचानक उसकी नजर एक झोंपडी के बाहर पड़े एक घडे पर पड़ी। वह तुरंत वहां गया, घड़े में पानी तो था पर एक दम तले में, पहुँच के बाहर। कौवे ने इधर-उधर देखा, अपनी अक्ल दौडाई और पास पड़े कंकडों को ला-ला कर घडे में डालना शुरू कर दिया। परन्तु एक तो गरमी दुसरे पहले से थक कर बेहाल ऊपर से प्यास , कौवा जल्द ही पस्त पड़ गया । अचानक उसकी नजर झाडी के पीछे खड़ी एक बकरी पर पड़ी जो न जाने कब से उसका क्रिया-कलाप देख रही थी। उसे देख कौवा सन्न रह गया, वह यह सोच कर ही काँप उठा कि यदि बकरी ने उसकी इस नाकामयाबी का ढोल पीट दिया तो ? उसकी इज्जत तो दो कौड़ी की तीन रह जाएगी ! अचानक उसके दिमाग का बल्ब जला, उसे ऐसी तरकीब सूझी कि आम तो खाने को मिले ही गुठलियों की कीमत भी वसूल हो गयी। कौवे ने बकरी को पास बुलाया और अपनी दरियादिली का परिचय देते हुए उससे कहा, कि मेरे घड़े में कंकड़ डालने से पानी काफी ऊपर आ गया है, पर तुम ज्यादा प्यासी लग रही हो, सो पहले तुम पानी पी लो। बकरी भी प्यासी थी वह कौवे कि शुक्रगुजार हो आगे बढ़ी पर घडे से पानी ना पी सकी। कौवा जानता था कि ऐसा ही होना है, उसने अपने-आप को अक्लमंद दर्शाते हुए बकरी को फिर राह सुझाई कि तुम ऐसे नहीं पी पाओगी ऐसा करो कि अपने सर से टक्कर मार कर घडा उलट दो, इससे पानी बाहर आ जायेगा तो फिर तुम पी लेना। बकरी ने कौवे के कहेनुसार घडे को गिरा दिया। घडे का सारा पानी बाहर आ गया, दोनों ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई।
बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का जम कर ऐसा प्रचार किया कि आज तक कौवे का गुणगान होता आ रहा है । इंसान तक अपने बच्चों को उसकी अक्लमंदी के किस्से पढ़वाते-सुनाते हैं।
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
कुल्लू के मक्खन महादेव ----------------आगे चलते हैं
मंदिर तक पहुंचने के लिए कुल्लु से बस या टैक्सी उपलब्ध हैं। व्यास नदी पार कर 15किमी का सडक मार्ग चंसारी गावं तक जाता है। उसके बाद करीब तीन किलोमीटर की श्रमसाध्य, खडी चढ़ाई है जो अच्छे-अच्छों का दमखम नाप लेती है। मथान के एक तरफ़ व्यास नदी की घाटी है, जिस पर कुल्लु-मनाली इत्यादि शहर हैं तथा दूसरी ओर पार्वती नदी की घाटी है जिस पर मणीकर्ण नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। उंचाई पर पहुंचने में थकान और कठिनाई जरूर होती है पर जैसे ही यात्री चोटी पर स्थित वुग्याल मे पहुंचता है उसे एक दिव्य लोक के दर्शन होते हैं। एक अलौकिक शांति, शुभ्र नीला आकाश, दूर दोनों तरफ़ बहती नदियां, गिरते झरने, आकाश छूती पर्वत श्रृंखलाएं किसी और ही लोक का आभास कराती हैं जहां आंखें नम हो जाती हैं, हाथ जुड जाते हैं, मन भावविभोर हो जाता है तथा जिव्हा एक ही वाक्य का उच्चारण करती है - त्वं शरणं। कण-कण मे प्राचीनता दर्शाता मंदिर पूर्ण रूप से लकडी का बना हुआ है। चार सिढ़ीयां चढ़ दरवाजे से एक बडे कमरे मे प्रवेश मिलता है जिसके बाद गर्भ गृह है जहां मक्खन मे लिपटे शिवलिंग के दर्शन होते हैं। जिसका व्यास करीब 6फ़िट तथा उंचाई 2फ़िट के लगभग है।ऊपर बिज़ली-पानी का इंतजाम है। आपात स्थिति मे रहने के लिये कमरे भी बने हुए हैं। बहुत ज्यादा ठंड हो जाने के कारण रात मे यहां कोई नहीं रुकता है। सावन के महिने मे यहां हर साल मेला लगता है। दूर-दूर से ग्रामवासी अपने गावों से अपने देवताओं को लेकर शिवजी के दरबार मे हाजिरी लगाने आते हैं। वे भोले-भाले ग्रामवासी ज्यादातर अपना सामान अपने कंधों पर लाद कर ही यहां पहुंचते हैं। उनकी अटूट श्रद्धा तथा अटल विश्वास का प्रतीक है यह मंदिर जो सैकडों सालों से इन ग्रामिणों को कठिनतम परिस्थितियों मे भी उल्लासमय जीवन जीने को प्रोत्सहित करता है। कभी भी कुल्लु-मनाली जाना हो तो शिवजी के इस रूप के दर्शन जरूर करें।
शनिवार, 19 जुलाई 2008
क्या आपके साथ भी ऐसा होता है ?
* जब आप घर में अकेले हों और नहा रहे हों तभी फ़ोन की घंटी बजती है।
* जब आपके दोनों हाथ तेल आदि से सने हों तभी आपके नाक में जोर की खुजली होती है।
* जब भी कोई छोटी चीज आपके हाथ से गिरती है तो वहाँ तक लुढ़क जाती है जहाँ से उसे उठाना कठिन होता है।
* जब भी आप गर्म चाय या काफ़ी पीने लगते हैं तो कोई ऐसा काम आ जाता है जिसे आप चाय के ठंडा होने के
पहले पूरा नहीं कर पाते।
* जब आप देर से आने पर टायर पंचर का बहाना बनाते हैं तो दूसरे दिन सचमुच टायर पंचर हो जाता है।
* जब आप यह सोच कर कतार बदलते हैं कि यह कतार जल्दी आगे बढेगी तो जो कतार आपने छोडी होती है
वही जल्दी बढ़ने लगती है।
क्यों -----होता है क्या ?
* जब आपके दोनों हाथ तेल आदि से सने हों तभी आपके नाक में जोर की खुजली होती है।
* जब भी कोई छोटी चीज आपके हाथ से गिरती है तो वहाँ तक लुढ़क जाती है जहाँ से उसे उठाना कठिन होता है।
* जब भी आप गर्म चाय या काफ़ी पीने लगते हैं तो कोई ऐसा काम आ जाता है जिसे आप चाय के ठंडा होने के
पहले पूरा नहीं कर पाते।
* जब आप देर से आने पर टायर पंचर का बहाना बनाते हैं तो दूसरे दिन सचमुच टायर पंचर हो जाता है।
* जब आप यह सोच कर कतार बदलते हैं कि यह कतार जल्दी आगे बढेगी तो जो कतार आपने छोडी होती है
वही जल्दी बढ़ने लगती है।
क्यों -----होता है क्या ?
गुरुवार, 17 जुलाई 2008
सुंदरवन में इंसानी जिंदगी
संसार में सुंदरवन अकेली जगह है, जो करीब 500 शेरों (बाघों) का आश्रय स्थल है। एक ही स्थान पर शायद ही इतने शेर कहीं और पाए जाते हों। पर यहां इंसान भी बसते हैं, जो मजबूर हैं, यहां रहने के लिए, दहशत भरी जिंदगी जीने के लिए।
संसार में सुंदरवन अकेली जगह है, जहां शेर लगातार आदमी का शिकार करते रहतें हैं। हर साल करीब 50 से 60 लोग यहां शेरों के मुंह का निवाला बन जाते हैं। वहां के लोग किन परस्थितियों में जी रहे हैं इसका रत्ती भर अंदाज भी बाहर की दुनिया को नही है। यहां आकर तो लगता है कि जानवर ही नहीं आदमी को भी बचाने, संरक्षण देने की जरूरत है।
सुंदरवन करीब 500 शेरों (बाघों) का आश्रय स्थल है। एक ही स्थान पर शायद ही इतने शेर कहीं और पाए जाते हों। पर यहां इंसान भी बसते हैं, जो मजबूर हैं, यहां रहने के लिए, दहशत भरी जिंदगी जीने के लिए। रोजी-रोटी, परिवार को पालने की जिम्मेदारी जो है सर पर। समुद्र के पास होने के कारण यहां ज्वार-भाटा काफी भयंकर रूप से उठता है जिससे शेरों को अपना शिकार खोजने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। दूसरी तरफ यहां रहने वाले लोगों का जीवनयापन नदी से प्राप्त होने वाली मछलियों और जंगल की वनोत्पजों पर निर्भर करता है। इसीलिए जंगलों से आना-जाना उनकी मजबूरी है जिसका फ़ायदा यहां के वनराज को मिलता है। वैसे भी जंगली जानवरों के शिकार की बनिस्पत मानव को अपना भोजन बनाना बहुत आसान है, इसीलिए यहां के शेर आसानी से मनुष्य भक्षी बन जाते हैं। पानी के पास रहते-रहते ये अच्छे तैराक भी हो गए हैं। जिससे ये इतने निडर हो गए हैं कि मौका पाते ही नाव में सवार मछुआरों पर भी हमला करने से नहीं झिझकते।
सरकार ने और यहां के रहवासियों ने अपने-अपने स्तर पर इस आपदा से बचने के लिए कुछ इंतजाम किए भी हैं, जिससे हमले से मरने वालों की संख्या में कमी भी आई है। शेर हरदम मनुष्य पर पीछे से हमला करता है, खासकर रीढ़ की हड्डी पर। इसीलिए सरकारी कर्मचारी कमर से लेकर गरदन तक का एक मोटा पैड सा पहने रहते हैं जिससे काफी हद तक हमले की गंभीरता कम हो जाती है। यहां के लोग जंगल में या नौका में आते-जाते समय अपने चहरे के पीछे, गरदन के ऊपर एक मुखौटा लगा कर चलते हैं। जिससे शेर को लगे कि सामने वाला मुझे देख रहा है, पर वह ज्यादा देर
धोखे में नहीं रहता और हमला कर देता है। इसके अलावा यहां के निवासी पूजा-पाठ में भी बहुत विश्वास करते हैं इसीलिए अपने रोजगार पर निकलने के पहले वनदेवी जिसे स्थानीय भाषा में "बोनदेवी" कहते हैं (बंगला भाषा में 'वन' का उच्चारण 'बोन' होता है ) की पूजा-अर्चना कर निकलते हैं। पर कहीं न कहीं, कभी न कभी भिड़ंत हो ही जाती है। दोनों की मजबूरी है, कोई भी पक्ष अपनी रिहाइश छोड़ और कहीं जा नहीं सकता। शेरोन पर तो यह एक तरह से दोहरी मार है। इनकी प्रजाति पर पहले से ही "पोचरों" से खतरा बना हुआ था, उस पर अब एक और गंभीर समस्या
बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे यहां के मनुष्यों और शेरों में एक अघोषित युद्ध शुरू हो चुका है। जैसे ही कोई मानव शेर का शिकार करता है वैसे ही शेर से बदला लेने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। यह बात दोनों ही पक्षों के लिए घातक हैं। इस आपसी भिड़ंत को ख़त्म या कम करने के लिए अभी तक आजमाए गए उपायों का बहुत ही कम असर हुआ है। फिर भी कुछ न कुछ उपाय किए ही जा रहे हैं जैसे घने जंगल में तार का घेराव या फिर शेरों को उनके भोजन के लिए जानवरों की उपलब्धता इत्यादि। पर पूर्णतया कारगर कोई उपाय अभी सामने नहीं आया है।
संसार में सुंदरवन अकेली जगह है, जहां शेर लगातार आदमी का शिकार करते रहतें हैं। हर साल करीब 50 से 60 लोग यहां शेरों के मुंह का निवाला बन जाते हैं। वहां के लोग किन परस्थितियों में जी रहे हैं इसका रत्ती भर अंदाज भी बाहर की दुनिया को नही है। यहां आकर तो लगता है कि जानवर ही नहीं आदमी को भी बचाने, संरक्षण देने की जरूरत है।
सुंदरवन करीब 500 शेरों (बाघों) का आश्रय स्थल है। एक ही स्थान पर शायद ही इतने शेर कहीं और पाए जाते हों। पर यहां इंसान भी बसते हैं, जो मजबूर हैं, यहां रहने के लिए, दहशत भरी जिंदगी जीने के लिए। रोजी-रोटी, परिवार को पालने की जिम्मेदारी जो है सर पर। समुद्र के पास होने के कारण यहां ज्वार-भाटा काफी भयंकर रूप से उठता है जिससे शेरों को अपना शिकार खोजने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। दूसरी तरफ यहां रहने वाले लोगों का जीवनयापन नदी से प्राप्त होने वाली मछलियों और जंगल की वनोत्पजों पर निर्भर करता है। इसीलिए जंगलों से आना-जाना उनकी मजबूरी है जिसका फ़ायदा यहां के वनराज को मिलता है। वैसे भी जंगली जानवरों के शिकार की बनिस्पत मानव को अपना भोजन बनाना बहुत आसान है, इसीलिए यहां के शेर आसानी से मनुष्य भक्षी बन जाते हैं। पानी के पास रहते-रहते ये अच्छे तैराक भी हो गए हैं। जिससे ये इतने निडर हो गए हैं कि मौका पाते ही नाव में सवार मछुआरों पर भी हमला करने से नहीं झिझकते।
सरकार ने और यहां के रहवासियों ने अपने-अपने स्तर पर इस आपदा से बचने के लिए कुछ इंतजाम किए भी हैं, जिससे हमले से मरने वालों की संख्या में कमी भी आई है। शेर हरदम मनुष्य पर पीछे से हमला करता है, खासकर रीढ़ की हड्डी पर। इसीलिए सरकारी कर्मचारी कमर से लेकर गरदन तक का एक मोटा पैड सा पहने रहते हैं जिससे काफी हद तक हमले की गंभीरता कम हो जाती है। यहां के लोग जंगल में या नौका में आते-जाते समय अपने चहरे के पीछे, गरदन के ऊपर एक मुखौटा लगा कर चलते हैं। जिससे शेर को लगे कि सामने वाला मुझे देख रहा है, पर वह ज्यादा देर
धोखे में नहीं रहता और हमला कर देता है। इसके अलावा यहां के निवासी पूजा-पाठ में भी बहुत विश्वास करते हैं इसीलिए अपने रोजगार पर निकलने के पहले वनदेवी जिसे स्थानीय भाषा में "बोनदेवी" कहते हैं (बंगला भाषा में 'वन' का उच्चारण 'बोन' होता है ) की पूजा-अर्चना कर निकलते हैं। पर कहीं न कहीं, कभी न कभी भिड़ंत हो ही जाती है। दोनों की मजबूरी है, कोई भी पक्ष अपनी रिहाइश छोड़ और कहीं जा नहीं सकता। शेरोन पर तो यह एक तरह से दोहरी मार है। इनकी प्रजाति पर पहले से ही "पोचरों" से खतरा बना हुआ था, उस पर अब एक और गंभीर समस्या
बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे यहां के मनुष्यों और शेरों में एक अघोषित युद्ध शुरू हो चुका है। जैसे ही कोई मानव शेर का शिकार करता है वैसे ही शेर से बदला लेने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। यह बात दोनों ही पक्षों के लिए घातक हैं। इस आपसी भिड़ंत को ख़त्म या कम करने के लिए अभी तक आजमाए गए उपायों का बहुत ही कम असर हुआ है। फिर भी कुछ न कुछ उपाय किए ही जा रहे हैं जैसे घने जंगल में तार का घेराव या फिर शेरों को उनके भोजन के लिए जानवरों की उपलब्धता इत्यादि। पर पूर्णतया कारगर कोई उपाय अभी सामने नहीं आया है।
सोमवार, 14 जुलाई 2008
आम का नाम लंगडा क्यों ?
अपनी सुगंध, मिठास तथा स्वाद के कारण आम फ़लों का राजा कहलाता है। तरह-तरह के नाम हैं इसके - हापुस, चौसा, हिमसागर, सिंदुरी, सफ़ेदा, गुलाबखास, दशहरी इत्यादि-इत्यादि, पर बनारस का एक कलमी सब पर भारी पडता है। यह खुद जितना स्वादिष्ट होता है उतना ही अजीब नाम है इसका लंगडा आम। यह आमों का सरताज है। इसका राज फ़ैला हुआ है बनारस के रामनगर के इलाके में। इसका नाम ऐसा क्यों पडा इसकी
भी एक कहानी है। बनारस के राम नगर के शिव मंदिर में एक सरल चित्त पुजारी पूरी श्रद्धा-भक्ती से शिवजी की पूजा अर्चना किया करते थे। एक दिन कहीं से घूमते हुये एक साधू महाराज वहां पहुंचे और कुछ दिन मंदिर मे रुकने की इच्छा प्रगट की। पूजारी ने सहर्ष उनके रुकने की व्यवस्था कर दी। साधू महराज के पास आम के दो पौधे थे जिन्हें उन्होंने मंदिर के प्रांगण में रोप दिया। उनकी देख-रेख में पौधे बड़े होने लगे और समयानुसार उनमें मंजरी लगी जिसे साधू महराज ने शिवजी को अर्पित कर दिया। रमता साधू शायद इसी दिन के इंतजार मे था, उन्होंने पुजारीजी से अपने प्रस्थान की मंशा जाहिर की और उन्हें हिदायत दी कि इन पौधों की तुम पुत्रवत रक्षा करना, इनके फ़लों को पहले प्रभू को अर्पण कर फ़िर फ़ल के टुकडे कर प्रसाद के रूप में वितरण करना, पर ध्यान रहे किसी को भी साबुत फ़ल, इसकी कलम या टहनी अन्यत्र लगाने को नहीं देनी है। पुजारी से वचन ले साधू महाराज रवाना हो गये। समय के साथ पौधे वृक्ष बने उनमें फ़लों की भरमार होने लगी। जो कोई भी उस फ़ल को चखता वह और पाने के लिये लालायित हो उठता पर पुजारी किसी भी दवाब में न आ साधू महाराज के निर्देशानुसार कार्य करते रहे। फ़लों की शोहरत काशी नरेश तक भी पहुंची, उन्होंने प्रसाद चखा और उसके दैवी स्वाद से अभिभूत रह गये। उन्होंने पुजारी को आम की कलम अपने माली को देने का आदेश दिया। पुजारीजी धर्मसंकट मे पड गये। उन्होंने दूसरे दिन खुद दरबार में हाजिर होने की आज्ञा मांगी।सारा दिन वह परेशान रहे। रात को उन्हें आभास हुआ जैसे खुद शंकर भगवान उन्हें कह रहे हों कि काशी नरेश हमारे ही प्रतिनिधी हैं उनकी इच्छा का सम्मान करो। दूसरे दिन पुजारीजी ने टोकरा भर आम राजा को भेंट किये। उनकी आज्ञानुसार माली ने उन फ़लों की अनेक कलमें लगायीं। जिससे धीरे-धीरे वहं आमों का बाग बन गया। आज वही बाग बनारस हिंदु विश्वविद्यालय को घेरे हुये है। यह तो हुई आम की उत्पत्ती की कहानी। अब इसके अजीबोगरीब नाम की बात। शिव मंदिर के पुजारीजी के पैरों में तकलीफ़ रहा करती थी, जिससे वह लंगडा कर चला करते थे। इसलिये उन आमों को लंगडे बाबा के आमों के नाम से जाना जाता था। समय के साथ-साथ बाबा शब्द हटता चला गया और आम की यह जाति लंगडा आम के नाम से विश्व विख्यात होती चली गयी।
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