उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर में फूहड़ता प्रदर्शित करती युवती जैसे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उनके कर्म-कुकर्म के विरोध में यदि हजार आवाजें उठेंगीं तो पक्ष में भी सौ लोग खड़े हो जाएंगे ! यही सौ लोग सदा ऐसे सिरफिरों की ताकत और ढाल बन उनका मंतव्य पूरा करवाने का जरिया बन जाते हैं। । कुछ दिनों पहले तक कौन इस युवती को जानता था ! आज वह घर-घर में पहचानने वाली "चीज'' हो गयी है। उसका उद्देश्य पूरा हो गया है; देख लीजिएगा आने वाले कुछ ही दिनों में हमारे किसी ''पारखी-जौहरी'' फिल्म निर्माता ने उसे अपनी फिल्म ऑफर कर देनी है...........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
तकरीबन साल भर पहले चुनिंदा मंदिरों में कुछ लोगों के लिए प्रतिबंध होने पर बहुत गुल-गपाड़ा मचा था। इसको ले कर काफी बहस-बाजी भी होती रही, विरोध दर्ज करवाया जाता रहा, आंदोलन होते रहे, और यह सब उन लोगों द्वारा ज्यादा किया गया जिन पर कोई पाबंदी लागू नहीं थी। कुछ लोग जरूर ऐसे हैं जो इंसान की बराबरी के सच्चे दिल से हिमायती हैं, जो अच्छी बात है; पर विडंबना यह भी है कि ज्यादातर प्रतिवाद करने वालों को प्रतिबंधित वर्ग से उतनी हमदर्दी नहीं थी, जितना वे दिखावा करते रहे !! तब ऐसे ही एक विचार मन में आया था कि ऐसा क्यों है ? जबकि पूजास्थलों की व्यवस्था संभालने वाले लोग, विद्वान, धर्म को समझने वाले, धर्म-भीरु होते हैं। उनको क्या यह पता नहीं होता कि उनका वैसा रवैया गलत है ? क्या वे नहीं जानते कि प्रभू के यहां सब बराबर होते हैं ? क्या उन्हें मालुम नहीं कि ऊपर वाले के यहाँ कोई भेद-भाव नहीं होता ! फिर क्यों भगवान् के घर में ही इंसान और इंसान में फर्क किया जाता है ? कोई तो कारण होगा ?
जो कुछ समझ आता है, उसमें पहला तो यही है कि भले ही हम कितना भी कहें पर कड़वी सच्चाई और इतिहास गवाह है अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अलग मतों में, विरोधी मान्यताओं, अपने पंथ को श्रेष्ठ मनवाने की जिद, अपने इष्ट को सर्वोपरि मानने के हठ के कारण अक्सर टकराव होते रहे हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जन-धन-स्थल को हानि पहुंचाने के उपक्रमों को भी मौके-बेमौके, जानबूझ कर अंजाम दिया जाता रहा है। हो सकता है ऐसी मानसिकता वाले लोग दूसरे पंथ के पूजा-स्थल में जा गैर-वाजिब हरकतें करते हों ! शुचिता का ध्यान ना रखते हों ! स्थल के सम्मान में कोताही बरती जाती हो ! पूजा-अर्चना में बाधा उत्पन्न करते हों, और वैसे कुछ अवांछनीय, असमाजिक, गैरजिम्मेदाराना लोगों की हरकतों का खामियाजा औरों को भी भुगतना पड़ गया हो।
दूसरे दुनिया में ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जिनका ध्येय किसी न किसी तरह खबरों में बने रहना होता है ! अपने को कुछ अलग दिखाने की लालसा, तुरंत प्रसिद्ध होने की कामना ! अपने को ख़ास मनवाने की इच्छा ! अप्राप्य को येन-केन-प्रकारेण हासिल करने की लालसा उनसे कुछ भी करवा लेती है ! इन्हें ना किसी शुचिता की परवाह होती है, ना हीं किसी तरह की परंपराओं की, ना किसी की आस्था की, ना हीं वर्षों से चली आ रही व्यवस्थाओं की; ऐसे लोग पहले नाम फिर उससे दाम पाने के लिए कुछ भी नैतिक-अनैतिक करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं ! ये लोग अच्छी तरह जानते हैं कि इनके कर्म-कुकर्म के विरोध में यदि हजार आवाजें उठेंगीं तो पक्ष में भी सौ लोग खड़े हो जाएंगे ! यही सौ लोग सदा ऐसे सिरफिरों की ताकत और ढाल बनते आए हैं। दो दिन पहले उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर में फूहड़ता प्रदर्शित करती एक युवती ने फिर इस बात को सिद्ध कर दिया। कुछ दिनों पहले तक कौन इसे जानता था ! पर आज वह घर-घर में पहचानने वाली "चीज'' हो गयी है। उसका मंतव्य सफल हो गया है; देख लीजिएगा आने वाले कुछ ही दिनों में हमारे किसी ''पारखी-जौहरी'' फिल्म निर्माता ने उसे अपनी फिल्म ऑफर कर देनी है !
महाकाल मंदिर में यह जो कुछ घटा, यह हिन्दू पूजा स्थलों पर पहली बार नहीं हुआ था ! उस कन्या को लोग भूले नहीं होंगे, जिसने जबरदस्ती शिंगणापुर के शनि-चबूतरे पर चढ़ने को ले कर हंगामा मचाया था ! उसके भी पहले एक फोटो अक्सर दिख जाती थी जिसमें एक लड़का किसी मंदिर में शिवलिंग पर जूते समेत एक पैर रखे दिखाई पड़ता था। भले ही वह सच हो ना हो या फोटो से छेड़-छाड़ की गयी हो; पर वैसा या ऐसा करने वाले की दूषित मानसिकता का तो पता चलता ही था ना !! इसी दौरान सोशल मीडिया पर कुछ तथाकथित आधुनिक महिलाओं ने गर्व से यह स्वीकारा था कि माह के अपने कुछ ख़ास दिनों में भी वे मंदिर जाती हैं ! जबकि समाज के कई परिवारों में शुद्धता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों में रसोई में भी जाना अनुचित समझा जाता है। यह कैसी आजादी है ? यह कैसी आधुनिकता है ? ये कैसे संस्कार हैं ?
आश्चर्य होता है कि साल भर पहले मंदिरों में कुछ लोगों के प्रवेश निषेद्ध को ले कर गुल-गपाड़ा मचाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, आजादी (?) के पक्षकार, मानवाधिकार के स्वयंभू एक पक्षीय झंडावदार, जो उन दिनों जामे से बाहर हो अपन राशन-पानी ले पिले पड़ रहे थे; वे लोग क्या कोमा में चले गए हैं आज ! उनकी सांस की भी आवाज नहीं आ रही ! क्यों नहीं ऐसे लोग उन तथाकथित बाबाओं के विरुद्ध मोर्चा खोलते जो भगवान के नाम पर ज्यादातर महिलाओं का ही शोषण करते हैं ! क्यों नहीं उन पंथों के खिलाफ आवाज उठाते जो जबरन धर्म परिवर्तन करवाने का दुःसाहस करते हैं ! क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वहां नाम मिले ना मिले पर जान को जरूर खतरा होता है !! और यहां तालियां बजती हैं, सम्मान मिलता है ! ऐसे लोगों यह समझ नहीं आता कि अगला तो इनके कंधे पर बंदूक रख इन्हें माध्यम बना अपना काम निकाल गया और यह जूतियों में दाल बाँट-बाँट कर पीते रहे।
इंसान की बराबरी की हिमायत अच्छी बात है पर वह यदि वही चीज उच्श्रृंखल हो जाए तो ? शायद ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे जब पवित्र स्थानों की सुचिता को बरकरार रखने के लिए कठोर कदम उठाते हुए कुछ इसी प्रकार के अलोकप्रिय निर्णय लेने पड़े होंगे और जैसे गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है उसी प्रकार कुछ लोगों के अनैतिक कार्यों के परिणाम का खामियाजा कई लोगों को भोगने पर मजबूर होना पड़ा होगा !
#हिन्दी_ब्लागिंग
तकरीबन साल भर पहले चुनिंदा मंदिरों में कुछ लोगों के लिए प्रतिबंध होने पर बहुत गुल-गपाड़ा मचा था। इसको ले कर काफी बहस-बाजी भी होती रही, विरोध दर्ज करवाया जाता रहा, आंदोलन होते रहे, और यह सब उन लोगों द्वारा ज्यादा किया गया जिन पर कोई पाबंदी लागू नहीं थी। कुछ लोग जरूर ऐसे हैं जो इंसान की बराबरी के सच्चे दिल से हिमायती हैं, जो अच्छी बात है; पर विडंबना यह भी है कि ज्यादातर प्रतिवाद करने वालों को प्रतिबंधित वर्ग से उतनी हमदर्दी नहीं थी, जितना वे दिखावा करते रहे !! तब ऐसे ही एक विचार मन में आया था कि ऐसा क्यों है ? जबकि पूजास्थलों की व्यवस्था संभालने वाले लोग, विद्वान, धर्म को समझने वाले, धर्म-भीरु होते हैं। उनको क्या यह पता नहीं होता कि उनका वैसा रवैया गलत है ? क्या वे नहीं जानते कि प्रभू के यहां सब बराबर होते हैं ? क्या उन्हें मालुम नहीं कि ऊपर वाले के यहाँ कोई भेद-भाव नहीं होता ! फिर क्यों भगवान् के घर में ही इंसान और इंसान में फर्क किया जाता है ? कोई तो कारण होगा ?
जो कुछ समझ आता है, उसमें पहला तो यही है कि भले ही हम कितना भी कहें पर कड़वी सच्चाई और इतिहास गवाह है अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अलग मतों में, विरोधी मान्यताओं, अपने पंथ को श्रेष्ठ मनवाने की जिद, अपने इष्ट को सर्वोपरि मानने के हठ के कारण अक्सर टकराव होते रहे हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जन-धन-स्थल को हानि पहुंचाने के उपक्रमों को भी मौके-बेमौके, जानबूझ कर अंजाम दिया जाता रहा है। हो सकता है ऐसी मानसिकता वाले लोग दूसरे पंथ के पूजा-स्थल में जा गैर-वाजिब हरकतें करते हों ! शुचिता का ध्यान ना रखते हों ! स्थल के सम्मान में कोताही बरती जाती हो ! पूजा-अर्चना में बाधा उत्पन्न करते हों, और वैसे कुछ अवांछनीय, असमाजिक, गैरजिम्मेदाराना लोगों की हरकतों का खामियाजा औरों को भी भुगतना पड़ गया हो।
दूसरे दुनिया में ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जिनका ध्येय किसी न किसी तरह खबरों में बने रहना होता है ! अपने को कुछ अलग दिखाने की लालसा, तुरंत प्रसिद्ध होने की कामना ! अपने को ख़ास मनवाने की इच्छा ! अप्राप्य को येन-केन-प्रकारेण हासिल करने की लालसा उनसे कुछ भी करवा लेती है ! इन्हें ना किसी शुचिता की परवाह होती है, ना हीं किसी तरह की परंपराओं की, ना किसी की आस्था की, ना हीं वर्षों से चली आ रही व्यवस्थाओं की; ऐसे लोग पहले नाम फिर उससे दाम पाने के लिए कुछ भी नैतिक-अनैतिक करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं ! ये लोग अच्छी तरह जानते हैं कि इनके कर्म-कुकर्म के विरोध में यदि हजार आवाजें उठेंगीं तो पक्ष में भी सौ लोग खड़े हो जाएंगे ! यही सौ लोग सदा ऐसे सिरफिरों की ताकत और ढाल बनते आए हैं। दो दिन पहले उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर में फूहड़ता प्रदर्शित करती एक युवती ने फिर इस बात को सिद्ध कर दिया। कुछ दिनों पहले तक कौन इसे जानता था ! पर आज वह घर-घर में पहचानने वाली "चीज'' हो गयी है। उसका मंतव्य सफल हो गया है; देख लीजिएगा आने वाले कुछ ही दिनों में हमारे किसी ''पारखी-जौहरी'' फिल्म निर्माता ने उसे अपनी फिल्म ऑफर कर देनी है !
महाकाल मंदिर में यह जो कुछ घटा, यह हिन्दू पूजा स्थलों पर पहली बार नहीं हुआ था ! उस कन्या को लोग भूले नहीं होंगे, जिसने जबरदस्ती शिंगणापुर के शनि-चबूतरे पर चढ़ने को ले कर हंगामा मचाया था ! उसके भी पहले एक फोटो अक्सर दिख जाती थी जिसमें एक लड़का किसी मंदिर में शिवलिंग पर जूते समेत एक पैर रखे दिखाई पड़ता था। भले ही वह सच हो ना हो या फोटो से छेड़-छाड़ की गयी हो; पर वैसा या ऐसा करने वाले की दूषित मानसिकता का तो पता चलता ही था ना !! इसी दौरान सोशल मीडिया पर कुछ तथाकथित आधुनिक महिलाओं ने गर्व से यह स्वीकारा था कि माह के अपने कुछ ख़ास दिनों में भी वे मंदिर जाती हैं ! जबकि समाज के कई परिवारों में शुद्धता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों में रसोई में भी जाना अनुचित समझा जाता है। यह कैसी आजादी है ? यह कैसी आधुनिकता है ? ये कैसे संस्कार हैं ?
आश्चर्य होता है कि साल भर पहले मंदिरों में कुछ लोगों के प्रवेश निषेद्ध को ले कर गुल-गपाड़ा मचाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, आजादी (?) के पक्षकार, मानवाधिकार के स्वयंभू एक पक्षीय झंडावदार, जो उन दिनों जामे से बाहर हो अपन राशन-पानी ले पिले पड़ रहे थे; वे लोग क्या कोमा में चले गए हैं आज ! उनकी सांस की भी आवाज नहीं आ रही ! क्यों नहीं ऐसे लोग उन तथाकथित बाबाओं के विरुद्ध मोर्चा खोलते जो भगवान के नाम पर ज्यादातर महिलाओं का ही शोषण करते हैं ! क्यों नहीं उन पंथों के खिलाफ आवाज उठाते जो जबरन धर्म परिवर्तन करवाने का दुःसाहस करते हैं ! क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वहां नाम मिले ना मिले पर जान को जरूर खतरा होता है !! और यहां तालियां बजती हैं, सम्मान मिलता है ! ऐसे लोगों यह समझ नहीं आता कि अगला तो इनके कंधे पर बंदूक रख इन्हें माध्यम बना अपना काम निकाल गया और यह जूतियों में दाल बाँट-बाँट कर पीते रहे।
इंसान की बराबरी की हिमायत अच्छी बात है पर वह यदि वही चीज उच्श्रृंखल हो जाए तो ? शायद ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे जब पवित्र स्थानों की सुचिता को बरकरार रखने के लिए कठोर कदम उठाते हुए कुछ इसी प्रकार के अलोकप्रिय निर्णय लेने पड़े होंगे और जैसे गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है उसी प्रकार कुछ लोगों के अनैतिक कार्यों के परिणाम का खामियाजा कई लोगों को भोगने पर मजबूर होना पड़ा होगा !
3 टिप्पणियां:
शास्त्री जी, स्नेह बरकरार रहे
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन साक्षरता दिवस सिर्फ कागजों में न रहे - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
कुमारेन्द्र जी, हार्दिक आभार
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