आज हारमोनियम ने पंजाब के एक छोटे से शहर के, एक छोटे से मोहल्ले के, एक छोटे से घर में रहने वाले अपने प्रियजन, पुरषोत्तम दास जलोटा के सुपुत्र अनूप जलोटा को, उनकी पकी उम्र के बावजूद, ऐसा सम्मान, ऐसी शोहरत, ऐसी मित्र मंडली फिर दिलवाई, जिसके लिए युवा लोग तरसते रह जाते हैं। आज अनूप जी के जलवे देख लोग दांतों के नीचे ऊँगली रख चबाए जा रहे हैं। चबाने से ध्यान आया कि उंगली तो मेरी भी दर्द कर रही है; और क्यों ना करे ! पंजाब के उसी शहर फगवाड़े के उसी हांड़ों के मोहल्ले, उसी गली में मेरा भी तो निवास था ! मेरे घर पर भी हारमोनियम था ! भजनों से मेरा भी नाता था ! आज मेरी भी उम्र हो गयी है ! तो; जलोटा कहां और मैं यहां !ऐसा क्यों ? फिर सोचता हूँ.....
#हिन्दी_ब्लागिंग
पंजाबी में एक कहावत है, ''कख्ख दी बी लोड़ पै जांदी ऐ'' ! यानी तिनके की भी जरुरत पड़ जाती है, उसे भी बेकार नहीं समझना चाहिए। ऐसी कहावतें, मुहावरे या लोकोक्तियाँ यूं हीं नहीं बन जातीं, इनके पीछे जन-साधारण के अनुभवों, अनुभूतियों, तजुर्बों का पूरा हाथ रहता है। इसी मुहावरे को लें तो इसकी सच्चाई का प्रमाण तो रामायण काल में ही मिल गया था, जब सीताजी ने अशोक वाटिका में रावण के आने पर एक तृण की ओट ली थी। महाभारत में भी इसी की सहायता से श्री कृष्ण जी ने द्रौपदी को दुर्वासा के क्रोध से बचाया था। पर हम समझते कहां हैं ! अक्ल तो तब आती है जब उस चीज की जरुरत पड़ती है जिसे बेकार समझ हम फेंक चुके होते हैं ! जैसे मुझे आज एक अदद हारमोनियम की आवश्यकता आन पड़ी है और विडंबना देखिए कि यह सौगात मेरे पास थी, पर आज जब जरुरत है तब नहीं है ! चलिए पहेली ना बुझा कर सारी बात बताता हूँ।
बात अंग्रेजों के शासनकाल के कलकत्ते की है। मेरी दादीजी स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ आर्यसमाज की बड़ी नेत्री भी थीं। जहां अक्सर हारमोनियम पर भजनों की ओट में देश प्रेम के गीत भी गाये-बजाये जाते थे। देश स्वतंत्र हुआ; परिवार उस हारमोनियम के साथ पंजाब के फगवाड़ा शहर के मध्य में स्थित ''हांडेयों के मौहल्ले'' में आ बसा। उसी मौहल्ले में हिंदुस्तानी शास्त्रीय और भक्ति गायक, पुरषोत्तम दास जी जलोटा भी रहते थे। जो अपनी भजन गायकी के लिए देश भर में प्रसिद्ध थे। सतलुज में और पानी बहने के साथ ही परिवार उस हारमोनियम को साथ ले दिल्ली आ गया; पर वह बेचारा साज बदलते माहौल के साथ ताल ना मिला पाने की वजह से उपेक्षित सा हो कर रह गया। फिर वही हुआ जो आज लगता है कि नहीं होना चाहिए था ! धूल-मिट्टी के कारण बदरंग होते उस हीरे को बिना मोल एक मंदिर में दान स्वरुप दे दिया गया, ताकि वहां उसकी कुछ तो कद्र हो सके !
आज फिर सब कुछ बदला है ! फिर हारमोनियम की पूछ-गूछ होने लगी है ! कहते हैं ना कि घूरे के दिन भी बदलते हैं; वो तो फिर भी साज-ए-जहां था। किसी जमाने में सारे साजों का सिरमौर। लोग भले ही उसे भूल गए पर उसने अपने लोगों को नहीं भुलाया ! जब उसका समय आया तो बिना गिला-शिकवा किए, बिना किसी मान के, पंजाब के एक छोटे से शहर के एक छोटे से मौहल्ले के एक छोटे से घर में रहने वाले अपने प्रियजन, पुरषोत्तम दास जलोटा के सुपुत्र अनूप जलोटा को, उनकी पकी उम्र के बावजूद, ऐसा सम्मान, ऐसी शोहरत, ऐसी मित्र मंडली फिर दिलवाई, जिसके लिए युवा लोग तरसते रह जाते हैं। आज अनूप जी के जलवे देख लोग दांतों के नीचे ऊँगली रख चबाए जा रहे हैं। चबाने से ध्यान आया कि उंगली तो मेरी भी दर्द कर रही है; और क्यों ना करे ! पंजाब के उसी शहर फगवाड़े के उसी हांड़ों के मौहल्ले में मेरा भी तो निवास था ! मेरे घर पर भी हारमोनियम था ! भजनों से मेरा भी नाता था ! और आज मेरी भी उम्र हो गयी है ! तो फिर जलोटा कहाँ और मैं यहां ! ऐसा क्यों ? फिर सोचता हूँ पता नहीं ऐसा मौका मिलता, तो मैं क्या करता ! क्या यह सब मुझसे हो पाता ? क्या पैसे के लालच से इस कीचड़ में उतरने के पहले मेरे सामने मेरी दादी जी, बाबूजी, माँ के दिए गए संस्कार आकर खड़े नहीं हो जाते ? क्या मेरी आँखों का पानी मर जाता ? क्या अपने परिवार, अपने बच्चों, अपने इष्ट मित्रों का सामना मैं कर पाता ? सबसे बड़ी बात क्या मेरी ही अंतरात्मा मानती ? या अपने भविष्य के लिए पैसा और शोहरत (?) बटोरने में मुझे कुछ गलत नहीं लगता ! और भविष्य भी कौन सा ? और कितने दिन ? कितनी लालसा ? ये सारे सवाल जलोटे के सामने भी तो आ कर खड़े हुए होंगे !!
फिर एक आखीरी नजर उपरोक्त काण्ड पर ! आज जलोटे की सभी भर्त्सना कर रहे हैं पर उस "'नासमझ-अबोध-मासूम'' कन्या पर कोई ऊँगली नहीं उठा रहा, जिसके बिना सारा प्रकरण अधूरा रह जाता है ! क्या वह भी उतनी ही दोषी नहीं है जितना उसका पुरुष साथी ? क्या इस तरह के कर्म में उसकी कोई भी महत्वकांक्षा नहीं है ? क्या इस शो के द्वारा वह फिल्म निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न नहीं कर रही ? या उसको दोष नहीं देने का कारण यह है कि ऐसा करने वाला महिला विरोधी हो जाएगा ? पुरुष प्रधान समाज की वकालत हो जाएगी ? नारी की प्रगति में अड़चने आने लगेंगी ? और फिर जलोटा ही अकेला दोषी क्यों ? शो के अन्य दसियों प्रतिभागी क्यों नहीं ? वह चैनल क्यों नहीं ? उसे संचालित करने वाले क्यों नहीं ? कानों में रूई और आँखों पर पट्टी बांधे बैठे नियंता क्यों नहीं ? धर्म के तथाकथित ठेकेदार क्यों नहीं ? उसे सफल बना वर्षों-वर्षों से हिमाकत करने देने की छूट देने वाले हम क्यों नहीं ?
तो फिर सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? क्यों कुछ लोग अपनी जीवन भर की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा, बदनामी मोल ले, इस तरह की ओछी, असामाजिक व गैर जिम्मेदाराना हरकतें करने पर उतारू हो जाते हैं ? जवाब साफ़ है कि इन सब के पीछे नाम (?) के साथ चल कर आने वाले दाम हैं ! वे लोग जिन्होंने अपने आस-पास कभी हर तरह की चकाचौंध देखी हो और आज कोई पहचान ना रहा हो, वे इस तरह के मौके को भुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते और पैसे के साथ-साथ नाम, चाहे वह बद ही हो, लपकने से बाज नहीं आते ! देखा जाए तो इस तरह के कर्मों में अधिकतर वे ही महिला-पुरुष लिप्त होते हैं जो येन-केन-प्रकारेण किसी भी तरह खबरों में सुर्खियां बटोरने को लालायित रहते हैं, उनके लिए नैतिक-अनैतिक कुछ भी नहीं होता ! अमर्यादित बयान व वस्त्र, अनर्गल वार्तालाप, तथाकथित आजादी के छद्म हिमायती, स्थापित परंपराओं का अपने मतलब से विरोध आदि, इनके हथकंडे हैं, हर तरह के मीडिया में आने और छाने के ! और मीडिया !! जिसकी नकेल या तो नेताओं के हाथ में है या पूँजीपतियों के, उसकी तो बात ही करना बेकार है ! दृशव्य हो या प्रिंट उसे सिर्फ और सिर्फ अपने से मतलब है ! उनके लिए देश, समाज, संस्कृति, परंपराएं, मान्यताएं सब दकियानूसी बातें हैं। दिल्ली का एक मुख्य अंग्रेजी अखबार है #Times_of_India उसके साथ आता है #Delhi_times उसके गुणी सम्पादक महिलाओं की ऐसी-ऐसी तस्वीरें रोज परोसते हैं, जिनके बारे में बात भी नहीं की जा सकती ! आश्चर्य भी होता है कि इनका घर-परिवार कैसा होता होगा ? क्या वहां बच्चे नहीं होते ? क्या माँएं-बहनें नहीं होतीं ? क्या बुजुर्ग नहीं होते ? कैसे ये लोग नग्नता की वकालत कर उसे जायज ठहरा देते हैं ? और क्यों इन्हें ऐसा लगता है कि इन्हीं तस्वीरों से इनका अखबार चलता है ?
फिर एक आखीरी नजर उपरोक्त काण्ड पर ! आज जलोटे की सभी भर्त्सना कर रहे हैं पर उस "'नासमझ-अबोध-मासूम'' कन्या पर कोई ऊँगली नहीं उठा रहा, जिसके बिना सारा प्रकरण अधूरा रह जाता है ! क्या वह भी उतनी ही दोषी नहीं है जितना उसका पुरुष साथी ? क्या इस तरह के कर्म में उसकी कोई भी महत्वकांक्षा नहीं है ? क्या इस शो के द्वारा वह फिल्म निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न नहीं कर रही ? या उसको दोष नहीं देने का कारण यह है कि ऐसा करने वाला महिला विरोधी हो जाएगा ? पुरुष प्रधान समाज की वकालत हो जाएगी ? नारी की प्रगति में अड़चने आने लगेंगी ? और फिर जलोटा ही अकेला दोषी क्यों ? शो के अन्य दसियों प्रतिभागी क्यों नहीं ? वह चैनल क्यों नहीं ? उसे संचालित करने वाले क्यों नहीं ? कानों में रूई और आँखों पर पट्टी बांधे बैठे नियंता क्यों नहीं ? धर्म के तथाकथित ठेकेदार क्यों नहीं ? उसे सफल बना वर्षों-वर्षों से हिमाकत करने देने की छूट देने वाले हम क्यों नहीं ?
10 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-09-2018) को "नीर पावन बनाओ करो आचमन" (चर्चा अंक-3106) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
चली कोई तो बहाना बना ... हार्मोनिअम आज फेमस हुआ ... दुबारा से ...
राधा जी, सम्मलित करने हेतु हार्दिक आभार
नासवा जी, इसी के साथ एक बात और सिद्ध हो गयी कि दिन तो फिरते हैं, चाहे कोई भी हो :-)
बहुत बढ़िया व्यंगात्मक आलेख,शर्मा जी।
ज्योति जी, ''कुछ अलग सा'' पर सदा स्वागत है
हा हा। बेहतरीन व्यंग्य। पर खाली हारमोनियम से काम नहीं चलेगा। मखमली आवाज़ भी चाहिए होगी ताकि गा सकें: चाँद अंगड़ाइयाँ ले रहा है, चाँदनी मुस्कुराने लगी हैं।
विकास जी, वे दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था 😁😂😄
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन श्रद्धांजलि - जसदेव सिंह जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
हर्ष जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार
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