मंगलवार, 16 अगस्त 2016

तीन अवकाश और बालाजी धाम की यात्रा

कुछ दिनों पहले इसी ब्लॉग पर लिखा था कि अपनी हजार इच्छा हो, बिना प्रभु की मर्जी के किसी भी देवस्थान तक नहीं जाया जा सकता है और जब उनकी अनुमति होती है तो कोई भी बाधा वहाँ जा दर्शनों से नहीं रोक पाती। यह बात फिर एक बार सत्य साबित हुई जब इस बार 13-14-15 अगस्त को पड़ने वाले तीन अवकाशों का सदुपयोग फिर सालासर बालाजी के दर्शनों को करने का कार्यक्रम बना लिया गया। इस बार दो बच्चों समेत दस सदस्य थे इस लिए कार की बजाए टेम्पो-ट्रैवेलर का इंतजाम किया गया।    

यात्रा के लिए रास्ता चुना गया दिल्ली-बहादुरगढ़-झझ्झर-चर्खीदादरी-लोहारू-झुंझुनू-मुकुंदगढ़-लक्ष्मणगढ़ होते हुए सालासर का। इस रास्ते का पहला फ़ायदा यह है कि इधर से जाने पर करीब 70-80 की. मी. की बचत होती है। दूसरे इस मार्ग पर टोल-टैक्स बहुत कम लगता है। सिर्फ 170 रुपये जबकि राष्ट्रीय राजमार्ग पर करीब सात सौ रुपये चुकाने पड़ते हैं। हाँ यह जरूर है कि इस तरफ से जाने पर करीब चालीस प्रतिशत घटिया सडकों पर सफर करना पड़ता है जिससे यात्रा का समय कुछ बढ़ जाता है। वापसी में सीकर जिले के खाटू में स्थित खाटू श्याम जी के दर्शनों के बाद मुख्य मार्ग, रींगस-माधोपुर-कोटपुतली-नीमराना-भिवाड़ी-गुड़गांव होते हुए दिल्ली लौटना तय हुआ था।

तेरह अगस्त की सुबह साढ़े दस बजे गाडी ने सालासर का रुख कर लिया। रुकते, चलते, खाते-बतियाते अपराह्न साढ़े तीन बजे कार्यक्रमानुसार,   राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के झुंझनु जिले में स्थित करीब चार सौ साल पुराने




रानी सती मन्दिर पहुँचना हो गया था। इस जगह का साफ़-सुथरा, शांत, सुन्दर, पवित्र माहौल सबको बरबस आकर्षित कर लेता है। मंदिर परिसर में ही राम दरबार, गणेश मंदिर, हनुमान मंदिर, तथा शिव जी के मंदिरों के साथ ही 13 सती मंदिर भी बने हुए हैं। मन्दिर के एक बाजू में कुछ गहराई में सीढ़ियों युक्त सुंदर लॉन बना हुआ है जिसमें फौव्वारे लगाए गए हैं। दूसरी तरफ एक बगीचा है जिसमें भगवन शिव की प्रतिमा के साथ कुछ वन्य पशुओं की सजीव सी लगने वाली   मूर्तियां मन मोह लेती हैं। ऐसी मान्यता है   






कि यहां मांगी हुई मुरादें बहुत जल्दी पूरी हो जाती हैं तथा कठिन समय में माँ अपने बच्चों को सहारा जरूर देती हैं। देश में ही नहीं विदेशों में भी इनके अनगिनत भक्त हैं। महाभारत के युद्ध में जब अभीमन्यु वीर गति को प्राप्त होते हैं तब उनकी पत्नी उत्तरा भी उन्हीं के साथ अपने प्राण त्यागना चाहती है। तब भगवान् श्री कृष्ण ने उसे समझाया और वरदान दिया कि वह कलियुग में नारायाणी  रूप में अवतार ले, सती दादी के रूप में विख्यात होगी और जन जन का कल्याण करेगी तथा सारी दुनिया में पूजी जाएगी। उसी वरदान के फलस्वरूवप उत्तरा ने वि. सं. 1638 में कार्तिक शुक्ला नवमीं दिन मंगलवार को डोकवा गाँव में जन्म लिया तथा लगभग 715 वर्ष पूर्व 06.12.1295 को सती हुईं। 




इस संगमरमर से बने मंदिर की विशेषता है कि इसमें किसी पुरुष या महिला की मूर्ति के बदले एक अलौकिक शक्ति की आराधना की जाती है। भारत में सती प्रथा प्रतिबन्धित होने के कारण यहां कई तरह के उत्सवों और मेलों पर रोक होने के बावजूद इस जगह अत्यधिक मान्यता है। अधिकृत रूप में ना सही पर यह आंकलन है कि यहां चढने वाले चढ़ावे का मूल्य  देश के सबसे धनी मंदिर तिरुपति के बालाजी के बराबर है। 

उमस और गर्मी यहां भी काफी थी, वाहन चालक के वाहन में वातानुकुलित अवस्था में बैठे रहने से, सुबह से चल रही गाडी का इंजन काफी गर्म हो गया और उसे सामान्य हालात में लाते-लाते शाम के छह बज गए तब जा कर बालाजी धाम की ओर अग्रसर होना संभव हो पाया। जहां पहुंचते-पहुंचते रात के नौ बज गए थे। रानी सती मंदिर में भी लोग थे पर ज्यादा भीड़-भाड़ महसूस नहीं हो रही थी पर सालासर में तो अपार जन-समूह उमड़ा पड़ा था। सब एक साथ पड़े तीन अवकाशों का कमाल था। कोई होटल, कोई धर्मशाला खाली नहीं था। कहीं भी रहने की जगह नहीं मिल पा रही थी। वह तो दो दिन पहले किया गया फोन सहायता कर गया और मंदिर से करीब एक की.मी. की दूरी पर स्थित अग्रवाल सेवा सदन में दो कमरे मिलने पर हमने प्रभु को शुक्रिया अदा किया और थके होने के बावजूद बच्चे भी रात की अंतिम आरती में भाग लेने मंदिर की ओर अग्रसर हो गए।   
आगे का हाल कल........ 

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