शनिवार, 28 जुलाई 2012

गंगा घर से बह रही हो तो कोई कैसे ना नहाए ?



पर कोई करे भी तो क्या, इन इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं से बचा भी तो नहीं जा सकता। अब हर कोई महात्मा गांधी या लाल बहादुर शास्त्री तो  हो नहीं  सकता  !!!


महत्वाकांक्षा हर इंसान में होती है। होनी भी चाहिए। इसी से जीवन में आगे बढने का, सफल होने का जज्बा बना रहता है। यह प्रकृति प्रदत्त इच्छा कुछ लोगों में जीवन भर बनी रहती है। वैसे भी हर इंसान की चाहत होती है कि समाज उसे भी कुछ महत्व दें, लोग उसे जानें, आदर-सम्मान का हकदार समझें। 
पहले इस महता को अपनी योग्यता, विद्वता, लियाकत और कठोर परिश्रम से अर्जित किया जाता था। समय बदला, हर चीज की मान्यताएं बदल गयीं। अब अपने को खास बनाने के लिए पारिवारिक संबंधों, आर्थिक हैसियत और "डानियत" का सहारा लिया जाने लगा है क्योंकि इससे बेकार की मेहनत नहीं करनी पडती। खासकर राजनैतिक मैदान में कूदने में यह बैसाखियां काफी सहायक होती हैं खासकर पारिवारिक।

कांग्रेस का गांधी परिवार तो मुफ्त में बदनाम है। यदि चारों ओर नज़र दौडाई जाए तो पाएंगे की  हर प्रदेश, हर पार्टी, हर मुकाम पर जरा सा रसूख पाते ही लोग अपनों को आम से खास बनाने में जुट जाते  हैं। इसमें देश के कुछ हिस्से तो आदर्श हैं बाकियों के लिए। वहां तो खून के रिश्तों के अलावा अडोसी-पडोसी, गांव-शहर के लोगों को भी लाभान्वित करने में कोई कसर नहीं छोडी जाती। आज किसी भी रसूखदार को देख लें, भाई-भतीजा वाद से अछूता नहीं मिलेगा। हर वह शख्स जिसका माँ-बाप, भाई-बहन, चाचा-ताऊ खासम-खास हो, वह बचपन से ही सत्ता के झूले में झूलने के सपने देखने लगता है। जिसको हवा मिलती रहती है अपने अग्रजों की शह से। अभी कुछ दिनों पहले "बच्चों" के लिए केंद्र और प्रदेशों के बीच की तनातनी का तमाशा देखा ही जा चुका है।  

इधर मीडिया के रवैये के कारण भी कभी-कभी अजीबोगरीब परिस्थितियां सामने आ जाती हैं। कुछ सीरियलों के दिशानिर्देशों से अब एक चलन सा बन चुका है कि समाज के किसी भी वर्ग से आया इंसान यदि कोई उपलब्धि हासिल करता है तो दृष्य मीडिया कैमरा उठाए उसके घर के अंदर तक पहुंच उनकी प्रतिक्रियाओं को कैद करने की आपसी होड में जुट जाता है, बिना यह जाने-सोचे कि क्या सामने वाला इस लायक है भी कि नहीं। उधर घर वाले अचानक अपनी इस बढी हुई हैसियत को संभाल नहीं पाते और कुछ भी ऊल-जलूल बोल एक विवादास्पद स्थिति पैदा कर रख देते हैं। इसका ताज़ा उदाहरण है हमारे महामहिम के सुपुत्र जिन्होंने अपने पिता के राष्ट्पति बनते ही दौडे चले आए खबरचियों के सामने पहले तो कसाब और सरबजीत के बारे में एक अजीब सी टिप्पणी कर दी फिर पिता की खाली हुई 'सीट' को ले कर अपनी दबी-ढकी हार्दिक इच्छा के तहत अपना दावा पेश कर दिया। बाद में जिसका जवाब देना दादा को भारी पड गया था। 

पर कोई करे भी तो क्या इन इच्छाओं, कामनाओं, लालसाओं से बचा भी तो नहीं जा सकता। अब हर कोई महात्मा गांधी या लाल बहादुर शास्त्री तो हो  नहीं सकता !!!       


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