जब तक हम ही अपनी भाषा की कद्र नहीं करेंगे, जब तक खुद उसे उचित सम्मान नहीं देंगे, तब तक हमें बाहर वालों की आलोचना करने का भी हक नहीं बनता।
आस्ट्रेलिया की सरकार का मानना है कि भारत में जाने वाले उसके राजनयिकों को हिंदी जानने की कोई जरूरत नहीं है। हांलाकि उसके विदेशी मामलों के एक प्रमुख के अनुसार किसी भी राजनयिक के लिए किसी भी देश में जाने से पहले उसकी भाषा को जान-समझ लेना उस देश के प्रति अपना सम्मान जताना भी होता है। पर अधिकांश अफसरों के अनुसार जब भारत में सारे काम अंग्रेजी भाषा के द्वारा आसानी से करवाए जा सकते हैं तो फिर हिंदी सीखने में समय की बर्बादी क्यूं।
ध्यान देने की बात है कि यही आस्ट्रेलिया अपने राजनयिकों को चीन, जापान, इंडोनेशिया, ईरान, टर्की या कोरिया जैसे देशों में भेजने के पहले उन्हें वहां की भाषा सीखने की हिदायत देता है। पर भारत को हल्के से लेते हुए यहां आने वालों के लिए ऐसी कोई बंदिश नहीं है। इसमें आस्ट्रेलिया का कोई दोष नहीं है, बाहर के किसी भी देश से आने वाले मेहमान से हम हिंदी में बात करना अपनी तौहीन जो समझते हैं। बात-चीत के दौरान गलती से भी हिंदी का कोई शब्द मुंह से निकलने नहीं देते जिससे सामने वाला हमें अनपढ-गंवार ना समझ बैठे। बहुत बार सामने वालों ने, खासकर मारिशस जैसे देश, जहां हिंदी काफी प्रचलित है, से आए लोगों ने बातों का जवाब हिंदी में दे ऐसे काले अंग्रेजों के मुंह पर तमाचा मारा है पर हमारी वह नस्ल ही नहीं है जो सुधर सके। इसी के चलते दुनिया में हमने अपनी पहचान एक अंग्रेजी भाषी लोकतंत्र की बनवा दी है। वह भी तब जब हमारी भाषा हर तरह से, हर सक्षम है, हर कसौटी पर खरी है। कमजोर है तो हमारी मानसिकता।
हिंदी की इस हालत के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। सोचने की बात है कि अपनी मातृभाषा को बचाने संभालने के लिए हमने साल में एक दिन तय कर रखा है। उस दिन भी अधिकांश वक्ता ऐसे हिंदी बोलते हैं जैसे खाना खाते समय मुंह में कंकड आ गया हो। विडंबना ही तो है कि हमारे बडे से बडे नेताओं को भी साफ और शुद्ध हिंदी बोलनी नहीं आती। विदेश की तो जाने भी दें अपने लोगों को भी अंग्रेजी में संबोधित करते उन्हें हिचक नहीं होती। ऐसा कर वे विदेशों को क्या संदेश देते हैं, इस पर शायद ही उनका ध्यान गया हो।
कहा जाता है कि बिना अंग्रेजी जाने ज्ञान-विज्ञान में तरक्की करना मुश्किल है। एक हद तक यह ठीक हो सकता है। पर चीन, जापान, कोरिया, फ्रांस, रशिया जैसे और बहुतेरे देशों को भी तो देखिए जिन्होंने तरक्की भी की और अपनी भाषा का सम्मान भी बनाए रखा।
जब तक हम ही अपनी भाषा की कद्र नहीं करेंगे, जब तक खुद उसे उचित सम्मान नहीं देंगे, तब तक हमें बाहर वालों की आलोचना करने का भी हक नहीं बनता।
4 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही कहा, पहले हमें अपनी भाषा का सम्मान करना चाहिए।
बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है यह देश के लिये।
सारी दुनिया भाषा के प्रति हमारी कमजोरी जानती है। आस्ट्रेलिया ने खुल कर बोल दिया है बाकि चुप-चाप अपना काम करते रहते हैं।
आपकी बात जायज़ है.
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