पुरानी कहानी है कि एक गुरु अपने शिष्यों को लेकर एक जंगल से कहीं जा रहे थे। एक दिन पहले ही भयानक तूफान वहां से तबाही मचाते हुए गुजरा था। जिसके फलस्वरूप बडे-बडे पेड धराशाई हो गये थे पर लता, गुल्म, ऊंची घास, खर-पतवार वैसे के वैसे अपने स्थान पर झूम रहे थे। गुरु ने इन सब की ओर इंगित कर अपने शिष्यों से कहा कि देखो जो गरूर में अकडा रहा उसका नाश हो गया और जो परिस्थिति के अनुसार अपने को ढाल गये वे जीवित बच गये। तुम भी इनसे सीख ले अपने को ऐसा ही बना डालो।
सोचता हूं कि गुरु यह भी तो कह सकते थे कि इन रीढ विहीन, मतलब परस्त, अन्याय का सामना ना कर सकने वाले खर-पतवार की बजाए इन पेडों से सीख लो कि भले ही हमारा नामोनिशान मिट जाए हम कभी भी आतंक, अत्याचार, अन्याय या आक्रमणकारी के आगे सर नहीं झुकाएंगे।
6 टिप्पणियां:
उत्तम लेखन, बढिया पोस्ट - देहात की नारी का आगाज ब्लॉग जगत में। कभी हमारे ब्लाग पर भी आईए।
सबको एक दिन जाना है।
शर्माजी नमस्कार !
आपकी इस सीख पर भी गौर किया जाना चाइए लेकिन टूट जाना , अस्तित्व को समाप्त कर देना , इसमें कौनसी बुद्धिमानी है?
वाह!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
यथा नाम तथा गुण.....
कुछ अलग सा .............
बहुत बढ़िया सर................
बहुत ही बढ़िया....
सादर
अनु
बहुत बढिया!! सही कहा...
सचिनजी, बात टूटने या खत्म होने की नहीं है बात है अन्याय के विरोध की। यदि कहीं से उसके खिलाफ आवाज नहीं उठेगी तो अंजाम क्या होगा? वैसे आपकी राणा प्रताप, झांसी की रानी, भगत सिंह, आजाद और अभी हाल के ही अन्नाजी जैसे अनगिनत लोगों के बारे में क्या राय है?
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