मंगलवार, 24 जनवरी 2012

रायपुर से चला पत्र ग्यारह दिनों में भी दिल्ली नहीं पहुंचा

एक बात जानने की इच्छा है कि इस तरह की लापरवाही की शिकायत किसे और कहाँ की जाए, जिसकी सुनवाई हो सकेप्रतीक्षा रहेगी

एक समय था कि सरकारी सेवा होने के बावजूद डाक विभाग सबसे ज्यादा भरोसेमंद विभाग हुआ करता था। उस समय के समर्पित कर्मचारी आधे-अधूरे पते पर भी चिट्ठी-पत्रियों को येन-केन-प्रकारेण पहुंचाना अपना कर्तव्य समझा करते थे। पर समय बदला वह समर्पण भी ख़त्म हो गया।
१४ जनवरी शनिवार को एक पत्र साधारण डाक से दिल्ली के लिए पोस्ट किया था। आज मंगलवार २४ जनवरी तक वह अपने गन्तव्य तक नहीं पहुँच पाया है। एक तरफ तो रोना रोया जाता है कि लोगों ने पत्र लिखना कम कर दिया है। डाक-खानों को अपना खर्च चलाना भारी पड़ रहा है। कर्मचारियों की छंटाई हो रही है। डाक-खानों की संख्या कम की जा रही है। जगह-जगह से डाक पेटियां हटाई जा रही हैं। खर्च चलाने के लिए तरह-तरह के अन्य स्रोत खोजे जा रहे हैं। तरह-तरह के विकल्प सुझाए तथा अमल में लाए जा रहे हैं। दूसरी ओर जो थोड़ा-बहुत काम है उसे भी ढंग से पूरा नहीं किया जा रहा। यह तो साधारण डाक की बात है, कुछ दिनों पहले तो इस विभाग की बहुचर्चित "स्पीड-पोस्ट सेवा" द्वारा भेजा गया पत्र पांचवें दिन दिल्ली पहुंचा था।

ऐसा क्यों है कि सरकारी सेवाएं लोगों पर भारी पड़ती रहती हैं. सरकारी डाक सेवाओं, जिन्हें हर तरह की सुविधा उपलब्ध है, के समानांतर चलने वाली "कूरीयर" सेवाएं ज्यादा सफल हैं। कारण वही है उन्हें चिंता है अपने ग्राहकों की। ग्राहक नहीं काम नहीं। पर सरकारी नौकरी में बैठे लोग निश्चिन्त हैं, काम हो न हो, विभाग चले न चले इनकी पगार पर कोई आंच नहीं आने वाली। नहीं तो क्या कारण है कि छोटे-छोटे टी. वी. चैनल रंगे पड़े हैं और दूरदर्शन पर मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं।

एक बात जानने की इच्छा है कि इस तरह की लापरवाही की शिकायत किसे और कहाँ की जाए, जिसकी सुनवाई हो सके। प्रतीक्षा रहेगी।

8 टिप्‍पणियां:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

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आपने बहुत जायज चिंता जतलाई है कि "शिकायत किसे और कहाँ की जाए, जिसकी सुनवाई हो सके"

डाक एक छोटा विषय हो सकता है , इससे बड़े स्तर पर सोचना शुरू करें तो स्थिति और भी निराशाजनक मिलेगी ।

एक फिल्म आई थी "मेरी आवाज़ सुनो"
लाख मुसीबतों के बाद भ्रष्ट-अपराधियों के विरुद्ध सारे सबूत इकट्ठा करके नायक ले तो आता है , लेकिन किसके सुपुर्द करे… शासक-न्यायाधीश सब उन जैसे ही ।

अदालतें - CBI क्यों आप-हम जैसों को समझ में आ जाने वाले मामलों को भी लंबित रख कर अपराधियों को बरसों बचाती रहती है !?

व्यवस्था में परिवर्तन की सख़्त आवश्यकता है ।

शुभ कामनाओं सहित…

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राजेन्द्रजी, आवाज तो उठनी ही चाहिए। पता तो चले कि विरोध हो रहा है। हालांकि आवाज उठाने वालों का ह्श्र भी हमारे सामने है फिर भी निश्चिंत सोतों को जगाने के लिए झिंझोडना जरूरी है। जोर का झटका जोर से ही लगे तभी सडी-गली चूलें हिलेंगी।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुनवाई का पत्र भी कहीं अटक जायेगा..

Unknown ने कहा…

daak khaane waale kha gaye honge...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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गणतन्त्रदिवस की पूर्ववेला पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इसका उत्तर के.के.यादव जी ही दे सकते हैं।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

सामन्य पत्र तो हम अब भेजते नहीं क्योंकि ईमेल से काम चल जाता है और अगर भेजना भी हो तो स्पीडपोस्ट का सहारा लेते हैं, कम से कम ऑनलाईन ट्रेक तो कर सकते हैं।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

विवेकजी, अधिकांश लोग यही करते हैं और स्पीड पर भी भरोसा ना कर कूरीयर को तरजीह देते हैं। पर समय था हाथ में सो यह 'गलती' हो गयी।

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