आए दिन कोई ना कोई कलाकार, स्टैंडिंग कॉमेडियन या कोई संस्था अपने साथ कुछ लोगों को साथ ले विदेश में कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं, ऐसे लोग यदि अपने साथ बीन जैसी विलुप्त होती पारंपरिक विधाओं के किसी एक कलाकार को भी साथ ले जाएं तो इन लोक कलाओं को विलुप्त होने से कुछ हद तक बचाया जा सकता है ! यदि सरकार और सरकारी संस्थाएं सचमुच ऐसे कलाकारों का सरंक्षण चाहती हैं तो वे एक नियम ही बना दें कि मनोरंजन के लिए जाने वाले हर ग्रुप को कम से कम एक ऐसे कलाकार को ले जाना आवश्यक है.......!
#हिन्दी_ब्लागिंग
हमारा देश अपनी पारंपरिक विविधताओं के लिए दुनिया भर में विख्यात है। यहां जितनी विविधताएं हैं, उतनी ही विविध कलाएं भी हैं। हर इलाके या राज्य की इस क्षेत्र में अपनी-अपनी विरासत है, फिर चाहे वह नृत्य हो, वादन हो, संगीत हो या लोकनाट्य हो। हर एक कला का अपना समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक महत्व है। पर खेद का विषय है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में कुछ श्रमसाध्य, जटिल व दुष्कर पारंपरिक कलाएं, वक्त के साथ ताल-मेल ना बैठा पाने के कारण धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर आ खड़ी हुई हैं ! ऐसी ही एक कला है, बीन वादन !
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बीन |
पिछले दिनों अपनी संस्था RSCB के सौजन्य से हरियाणा के झज्जर जिले के एक पिकनिक स्थल जॉय गाँव जाने का अवसर मिला था। इस तरह के मनोरंजन स्थलों पर इनके निर्माता अपने आबालवृद्ध सभी तरह के ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के साथ-साथ खेलों और कार्यक्रमों का भी इंतजाम कर रखते हैं। यहां भी इस तरह के कई आयोजनों में एक था बीन वादन। जी हां, वही बीन जिसकी फ़िल्मी धुन पचासों साल के बाद आज भी संगीत प्रेमियों के दिल-ओ-दिमाग पर छाई हुई है, जबकि वह असली बीन थी भी नहीं !
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मुकेश जी, डॉ. गोयल व हीरा लाल जी के साथ |
उस दिन जॉय गाँव में घूमते-घूमते मैं, डॉ गोयल और हीरा लाल जी, अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में अकेले बैठे श्री मुकेश नाथ जी के पास जा पहुंचे। अति विनम्र और मृदुभाषी मुकेश जी का बातों-बातों में, उपेक्षित होते बीन वादन को लेकर दर्द उभर आया ! हालांकि इसी बीन की बदौलत वे एक बार इटली में सम्मानित हो चुके हैं पर धीरे-धीरे पहचान खो रही अपनी इस पुश्तैनी कला के भविष्य को लेकर वे खासे चिंतित भी हैं ! उन्होंने हमें इस वाद्य पर जो धुनें सुनाईं, वे किसी को भी मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखती हैं ! उन्होंने इस साज की बेहतरी के लिए अपनी तरफ से कुछ बदलाव भी किए हैं। यू-ट्यूब (Haryana Jogi Music) पर भी उनको देखा-सुना जा सकता है। |
मुकेश नाथ जी |
मुकेश नाथ जी के परिवार में बीन वादन की कला पीढ़ियों से चली आ रही है। कुछ कारणों से वे स्कूली शिक्षा तो हासिल नहीं कर पाए, पर इस वाद्य की वादन विधा, जो उन्होंने अपने दादा और पिता से सीखी, उसमें वे पूरी तरह से पारंगत हैं। यही निपुणता 2007 में उन्हें केरल के एक संगीत ग्रुप के साथ हफ्ते भर के लिए विदेश, इटली, तक भी ले गई थी। उस सम्मान का पूरा श्रेय वे बीन को ही देते हैं। पर इसके साथ ही वर्तमान पीढ़ी द्वारा इस कला से बढ़ती दूरी उन्हें दुखी भी करती है ! उनके दो बेटे हैं जिनमें छोटे उमेश नाथ, जिन्होंने दसवीं तक शिक्षा प्राप्त की है वही इसमें थोड़ी-बहुत रूचि दिखाते हैं, उनका ज्यादा ध्यान ड्रम वादन पर है। उमेश के अनुसार वे पारंपरिक कला को सहेजना तो चाहते हैं, पर जी तोड़ मेहनत और समय देने के बावजूद उतनी आमदनी नहीं होती कि सुचारु रूप से घर चलाया जा सके !
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मुकेश जी अपने बेटे उमेश के साथ |
मुकेश नाथ जी का मानना है कि आज के बच्चे उतनी मेहनत से कतराते हैं, जितनी इस वाद्य में जान फूंकने के लिए जरुरी है ! वैसे भी यह पूरे शारीरिक दम-ख़म की मांग करता है। इसे बजाने के लिए फेफड़ों का अत्याधिक मजबूत होना अति आवश्यक है। समय भी अपनी पूरी दावेदारी रखता है ! पर वे आमदनी की बात पर अपने बेटे से पूरी तरह सहमत हो जाते हैं ! यही वह कारण है जिसकी वजह से जहां उनके पैतृक गांव में घर-घर में बीन वादक होते थे, अब वहाँ गिने-चुने पांच-सात लोग ही रह गए हैं !
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बीन अपने एक नए उपकरण के साथ |
हालांकि सुना गया है कि भारतीय जन नाट्य संघ #IPTA देश की पहचान गंवाती प्राचीन कलाओं को सहेजने का प्रयास कर रही है पर उसमें सक्षम देश वासियों का सहयोग भी जरुरी है। आए दिन कोई ना कोई कलाकार, स्टैंडिंग कॉमेडियन या कोई संस्था अपने साथ कुछ लोगों को साथ ले विदेश में कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं, ऐसे लोग यदि अपने साथ बीन जैसी विलुप्त होती विधाओं के किसी एक कलाकार को भी साथ ले जाएं तो इन पारंपरिक कलाओं को विलुप्त होने से कुछ हद तक रोका जा सकता है ! यदि #भारत_सरकार और #संस्कृति_मंत्रालय या दूसरी #सरकारी_संस्थाएं सचमुच ऐसे कलाकारों का सरंक्षण चाहती हैं तो वे एक नियम ही बना दें कि मनोरंजन के लिए विदेश जाने वाले हर ग्रुप को कम से कम एक ऐसे कलाकार को ले जाना आवश्यक है, पारंपरिक कला से जुड़ा हो। यदि ऐसा हो सके तो हम अपनी विलुप्त विरासतों को संरक्षित तो कर ही सकेंगे साथ ही उपार्जन की कमी के कारण विमुख होते लोक कलाकारों की हौसला-अफ़जाई भी कर सकेंगे।