मंगलवार, 15 मार्च 2022

होली हो ले, उसके पहले सोचना तो बनता है

आज दोपहर बाद घर लौटते समय कालोनी के किसी ऊँचे से मकान से किसी बच्चे के हाथ से छूटी गुब्बारे रूपी मिसाइल मुझे मिस करती हुई सड़क से टकरा कर नष्ट हो गई ! अभी दो दिन बचे हैं त्यौहार के आने में, ऐसा ही कुछ सोच, टारगेट यानी मैंने तुरंत पलट कर देखा पर आशानुरूप ''लॉन्चर'' गायब था ! तभी पता नहीं कैसे विचारों ने पलटा खाया ! अपने बचपन के दिन याद आ गए, जब दसियों दिन पहले से इस आनंदमय उत्सव को मनाने का उत्साह जाग जाता था ! बड़े-छोटे-महिलाएं सब अपने-अपने तरीके से इसका स्वागत करने की तैयारियों में जुट जाते थे........!

#हिन्दी_ब्लागिंग

होली अपने समय पर फिर आ पहुंची है ! गांवों-कस्बों में तो भले ही कुछ जिंदादिली बची भी हो पर शहरों में तो सिर्फ औपचारिकता ही शेष रह गई है ! अब ना ही पहले जैसा उत्साह है, ना ही उमंग है, ना हीं कोई चाव ! ना ढफली ना चंग ना हीं ढोलक ! ना हीं फाग ना हीं संगीत ना हीं मस्ती ! ना घर में बने पकवान, ना ठंडाई, ना बेफिक्री का आलम ! सब तिरोहित होता चला गया समय के साथ-साथ ! उस पर सदा से किसी षड्यंत्र के तहत, तथाकथित बुद्धिजीवी, छद्म इतिहासकार, परजीवी सोशल मीडिया, मौकापरस्त वार्ताकार, अपनी आस्था, संस्कृति, परंपरा, उत्सवों में मीनमेख निकालने वालों की, ऐन मौके पर पानी बचाने की नसीहतें ढहती दिवार पर धक्के का काम करती रहीं !  

हमारे त्योहारों पर ही मंहगाई, बेरोजगारी, जिंसों की कमियों का रोना क्यों रोया जाता है ! क्यों हमारे त्यौहार सिमटते चले जा रहे हैं ! क्यों एक दिवसीय आयातित उत्सव धीरे-धीरे हफ्तों तक मनवाए जाने लगते हैं ! क्यों हमारी पारंपरिक पकवानों-मिठाइयों को दरकिनार करवा कर चॉकलेट-पेस्ट्रियों को प्रमुखता दी जाने लग जाती है ! क्यों दीप जला कर वातावरण को प्रकाशमय बनाने की जगह दीप बुझा कर अंधेरे के आह्वान को उचित बताया जाने लगा है   

अब बच्चों को भी पहले जैसे अवकाश नहीं मिलते ! उल्टे इन्हीं दिनों में परीक्षा का भूत उनके सर पर सवार करवा दिया जाता है ! फिर भी त्योहारों के प्रति उनका बालसुलभ उत्साह खत्म नहीं हुआ है ! सोचा जाए तो वे ही हैं, हमारे ध्वजवाहक, जो किसी भी बहाने सही, अपनी परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं ! इसलिए यदि कहीं से किसी बच्चे का कोई गुब्बारा या पिचकारी की धार आ कर आपके कपड़ों को भिगो भी जाती है तो मुस्कुरा कर उसे देखें, आपकी जरा सी मुसकुराहट उसको खुशी से लबरेज कर देगी ! कपड़ों का क्या है कुछ ही देर में सूख जाएंगे पर सारा वातावरण बच्चे की निश्छल हंसी, उसकी खुशी के रस से सराबोर हो जाएगा ! शायद इतने से उपक्रम से ही हम गायब होती परंपराओं को कुछ हद तक बचाने में कुछ सहयोग कर सकें !  

आज दोपहर बाद घर लौटते समय कालोनी के किसी ऊँचे से मकान से किसी बच्चे के हाथ से छूटी गुब्बारे रूपी मिसाइल मुझे मिस करती हुई सड़क से टकरा कर नष्ट हो गई ! अभी दो दिन बचे हैं त्यौहार के आने में, ऐसा ही कुछ सोच, टारगेट यानी मैंने तुरंत पलट कर देखा पर आशानुरूप ''लॉन्चर'' गायब था ! तभी पता नहीं कैसे विचारों ने पलटा खाया ! अपने बचपन के दिन याद आ गए, जब दसियों दिन पहले से इस आनंदमय उत्सव को मनाने का उत्साह जाग जाता था ! बड़े-छोटे-महिलाएं सब अपने-अपने तरीके से इसका स्वागत करने की तैयारियों में जुट जाते थे !

उन दिनों पिताजी उस समय के कलकत्ता के पास एक जूट मील में अधिकारी थे ! मिल का पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह था ! हर त्यौहार मिल-जुल कर ही मनाया जाता था, पर होली की बात सबसे निराली थी ! यह सबका सबसे प्रिय उत्सव हुआ करता था ! नई चंग या डफ लाई जाती थी ! उसका तरह-तरह से परिक्षण कर तैयार किया जाता था। इतने सारे परिवारों के लिए ठंडाई, गुझिया, मिठाई, नमकीन इत्यादि का पर्याप्त मात्रा में इंतजाम किया जाता था। रंग तो फैक्ट्री में उपलब्ध होते थे पर व्यक्तिगत पिचकारियों की खरीद उनका रख-रखाव एक अलग काम हुआ करता था। उन दिनों प्लास्टिक का चलन नहीं था। पिचकारियां लोहे या पीतल की, तीन आकारों में छोटी, मध्यम और बड़ी, हुआ करती थीं। उनमें दो तरह के "अड्जस्टमेंट" होते थे, एक फौव्वारे की तरह रंग फेंकता था, जिसकी दूरी के हिसाब से क्षमता कम होती थी, दूसरा एक धार वाला, जो कम से कम दस-बारह फुट तक पानी फेंक किसी को भिगो सकता था। सिर्फ रंग-गुलाल ! ना कीचड़ ना ग्रीस, ना कपड़ा फाडू हुड़दंग !

हफ्ते-दस दिन पहले से रात को डफ पर थपकियां पड़नी शुरू हो जाती थीं। "सर्रा-रा-रा"  की गूंज देर रात तक मस्ती बरसाती रहती थी। होली वाले दिन स्टाफ के युवा टोली बना मील-परिसर में चक्कर लगाना शुरू करते थे। आगे-आगे डफ वादक अपनी मीठी तान में फाग गाते हुए चला करता था, पीछे पूरी टोली सुर में सुर मिलाती  चलती थी। घर-घर जा यथायोग्य अभिवादन कर, रंग लगा, लगवा, अपने पूरे रंग में आ कर मैदान में  एकत्रित हो जाते थे। एक शालीनता तारी रहती थी पूरे माहौल में। बड़े-छोटे का लिहाज, बड़ों के प्रति आदर-सम्मान तथा अनुशासन ! हाँ, बच्चे जरूर अपने-अपने ''हथियारों'' के साथ लैस हो अनवरत उन पर रंगों की बरसात बदस्तूर जारी किए रहते थे !

घंटों चलने वाले इन सब कार्यक्रमों के बाद संध्या समय होता था, प्रीतिभोज का। खाना-पीना मौज -मस्ती, गाना-बजाना या फिर मैदान में पर्दा लगा प्रोजेक्टर के माध्यम से किसी फिल्म का शो। पर उस शाम का मुख्य आकर्षण होती थी ठंडाई जो वहीं उचित देख-रेख में तैयार की जाती थी। जिसका स्वाद आज तक नहीं भुलाया जा सका है।  उसके भी दो वर्ग हुआ करते थे, बच्चों और महिलाओं के लिए सादी और पुरुषों के लिए "बूटी" वाली। उधर युवा भी अपने से बड़ों का लिहाज कर ही उसका सेवन करते थे। जिस पर शिव जी की कृपा कुछ ज्यादा होने लगती वह चुपचाप वहां से खिसक लेता था। ना कभी हुड़दंग देखा- सुना गया ना हीं कभी किसी गलत हरकत को उभरते देखा गया ! कैसा समय था ! कैसे थे वे दिन और कैसे थे वे लोग !

क्या आज हमारी जिम्मेदारी नहीं बनती कि हम अपने गुम होते या सुनियोजित तरीके से गायब करवा दिए जा रहे त्योहारों, उत्सवों, परंपराओं को बचाने का उपक्रम करें ! सोचें कि हमारे त्योहारों पर ही मंहगाई, बेरोजगारी, जिंसों की कमियों का रोना क्यों रोया जाता है ! क्यों हमारे त्यौहार सिमटते चले जा रहे हैं ! क्यों एक दिवसीय आयातित उत्सव धीरे-धीरे हफ्तों तक मनवाए जाने लगे हैं ! क्यों हमारे ऋषि-मुनियों को भुलवा कर इम्पोर्टेड महापुरुषों को हम पर थोपा जाने लगा है ! क्यों हमारे पारंपरिक पकवानों, मिठाइयों को दरकिनार करवा कर चॉकलेट-पेस्ट्रियों को प्रमुखता दी जाने लगी है ! क्यों दीप जला कर वातावरण को प्रकाशमय बनाने की जगह दीप बुझा कर अंधेरे के आह्वान को उचित बताया जाने लगा है !ऐसे बहुत सारे क्यों हैं, जिन पर जरा सा थम कर विचार करने की जरुरत है ! 

क्या आप थमेंगे, जरा सा.........!!

13 टिप्‍पणियां:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार! सपरिवार आपको तथा समस्त चर्चा मंच के साथियों को होली की अनेकानेक शुभकामनाएं 🙏🏼🙏🏼

Ankit Sachan ने कहा…

bhut hi sandar likha hai aapne ..pd kr bilkul ytharth lgta hai..

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अंकित जी
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका

Sarita sail ने कहा…

बढ़िया लिखा है सर शुभकामनाएं

अनीता सैनी ने कहा…

सिमटते परिवार की तरह त्यौहार भी सिमटते से रह गए हैं सच कहा सर आपने सहरों में सिर्फ़ औपचारिकता बची है।चहल पहल को महगाई ने छीन लिया है। संकीर्ण मानसिकता में उलझा है जीवन चक्र। बहुत ही सुंदर सराहनीय आलेख।
अनेकानेक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सरिता जी
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अनीता जी
सोची समझी साजिशों के तहत कितना कुछ बदलता चला गया और हम मूक दर्शक बने रहे

Onkar ने कहा…

बढ़िया आलेख

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ओंकार जी
हार्दिक आभार🙏

मन की वीणा ने कहा…

त्योहारों पर तरह तरह प्रतिबंधों ने सचमुच त्योहार कि मजा ही किरकिरा कर दिया है ।
गगन जी आपने बहुत सटीक तथ्यों के साथ चिंतन परक लेख लिखा है।
सादर साधुवाद।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुसुम जी
बहुत बहुत धन्यवाद🙏

Jyoti khare ने कहा…

वर्तमान समय और हमारे पर्व पर लिखा गया प्रभावी सार्थक आलेख

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हार्दिक आभार, खरे जी

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