आप किसी पर कटाक्ष करें, उसे उकसाएं, मेरा क्या बिगाड़ लोगे, जैसे विद्रूप के साथ उसके आलोचकों को सही-गलत कहने के लिए अपना मंच प्रस्तुत करें ! और जिस दिन उधर से पलटवार हो जाए उस दिन बंदिशें, अत्याचार, तानाशाही के आरोप ले सड़कों पर उतर आएं ! भले ही यह तय रणनीति के अनुसार ही हो और अपनी उंगलियों का संचालन देख आपका कठपुतलीकार भी संतुष्ट हो जाए पर आम इंसान के लिए यह नैतिकता से परे की बात ही रहेगी ! आप सरे आम आँख मारें और कोई कुछ ना कहे ये तो अब संभव नहीं है..........!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
आजकल भास्कर घराने पर सरकारी कार्यवाही के कारण काफी हो-हल्ला मचा हुआ है ! इसे बदले और सच बोलने के दंड स्वरुप की गई कार्यवाही के रूप में निरूपित किया जा रहा है ! विपक्ष और कुछ ख़ास, आत्मश्लाघि बुद्धिजीवी व पत्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ ले इस मौके को भुनाने के लिए अपना भाड़ सुलगा, उसके पक्ष में आ जुटे हैं ! पर आम जनता को यह समझ नहीं आता कि यदि इन लोगों को कुछ भी बोलने की आजादी है तो वह सिर्फ सरकार के विरोध में ही क्यूँ होती है ! बाकी जगह इनकी टार्च क्यों नहीं प्रकाश डाल पाती ! वैसे यह बहुत चतुर खिलाड़ी हैं ! अपने पर हो रही कार्यवाही को पत्र के मुख्य पेज पर जगह दे, दोनों हाथों में लड्डू ले बैठ गए हैं ! अब यदि कार्यवाही में दंडित होते हैं तो निर्भीक पत्रकारिता कहलाएगी और यदि कुछ नहीं होता है तो मखौल उड़ाने के काम आएगी !
पर सच तो यह है कि यह कार्यवाही सिर्फ सरकार की आलोचना, विरोधी विचारधारा या विपक्ष की हिमायत के कारण नहीं की गई है, यह भ्रष्टाचार, उच्चश्रृंखलता, गरूर, बड़ी आबादी की भावनाओं से खिलवाड़, अपने को न्याय-कानून से ऊपर समझने का भाव तथा सामंतवादी नीतियों का परिणाम है ! सत्य और निष्पक्ष पत्रकारिता की दुहाई तो बचने की सिर्फ आड़ मात्र है !
अपने को प्रगतिवादी दिखाने के चक्कर में हिंदू त्योहारों पर पानी बचाओ, ध्वनि प्रदूषण हटाओ, जैसी नसीहतें दे इसने लोगों को भ्रमित व मानसिक रूप से परेशान करना शुरू कर दिया ! पर बकरीद पर इसको कुर्बानी का कोई विरोध ना करते देख पाठकों को भी इसका मकसद जल्द ही समझ आ गया
समय गवाह है कि भास्कर के संस्थापक रमेश जी के ब्रह्मलीन होने के बाद इसकी विचार धारा और कार्यप्रणाली में काफी बदलाव आया है ! आज इसके निष्पक्ष होने का दावा निर्मूल है ! यदि ऐसा होता तो इसके कॉलमों में सही, निष्पक्ष, निर्विवाद, स्पष्टवादी, देश हितैषी पत्रकारों, जिनकी देश में आज भी कोई कमी नहीं है, के विचार भी जगह पाते ! पर इसके पसंदीदा लोगों में थरूर, राजेंद्र यादव, राजदीप सरदेसाई, चौकसे, प्रीतिश नंदी जैसे मेहमानों की तक़रीबन रोज आमद रहती है ! अब कब तक कोई अपनी छिछालेदर सहेगा और क्यों !
1958 में छोटे से स्तर से शुरू हो, नब्बे के दशक में राम भूमि की रिपोर्टिंग जैसे अपने कई शानदार कामों की वजह से यह जनता का चहेता अखबार तो बना पर लोकप्रियता पाते ही इसके कदम डगमगा गए और राष्ट्रवादिता छोड़ कमाई की सपाट सड़क पर दौड़ लगा दी ! मजीठिया वेतन आयोग के समय इसका असली रूप लोगों ने देखा। कोई भी संस्थान हो अपने विकास के लिए येन केन प्रकारेण सुविधाएं कैसे जुटाता है, यह अब कोई रहस्य नहीं रह गया ! अब जो सुविधाएं देता है और जो लेता है उसे एक दूसरे का ख्याल भी रखना पड़ता है ! प्रिंट मिडिया को मिलने वाली सुविधाओं के तहत भास्कर ने भी यहां-वहां, कहां-कहां, कैसे-कैसे, जैसे-तैसे अपने लिए जमीने आवंटित करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ! उदहारण स्वरूप भोपाल में वन विभाग की जमीन ! जिस पर कांग्रेस की मेहरबानी से संस्कार वैली नामक स्कूल की स्थापना कर दी गई ! लोगों को आकर्षित करने हेतु इसका शुभारंभ सोनिया गांधी से करवा, कई निशाने एक साथ साध, आमदनी का अजस्र स्रोत खोल लिया गया !
संवेदनहीनता का तो यह आलम था कि इसका एक वेतन भोगी स्तंभकार व्यवस्था की बुराइयां गिनाने में ही इतना मशगूल रहता है कि उसके द्वारा अपने साथी कलमकारों के निधन पर श्रद्धांजलि के दो शब्द तक व्यक्त नहीं किए गए ! वहीं मेहमान लेखकों को मानदेय देने में सदा लापरवाही बरती जाती रही है ! किसी का चेक बाउंस हो जाता था, किसी से हफ़्तों लिखवा भुगतान नहीं किया जाता, अनाप-शनाप कमाई होने के बावजूद !
सफलता के शिखर पर से इसे अपने सामने हर कोई बौना नजर आने लगा ! यहां तक कि इसके स्तंभकार मोदी और उनकी सरकार की बुराइयां करने को ही पत्रकारिता का नाम देने लगे ! मोदी जी और उनके मंत्रिमंडल की छवि बिगाड़ने की हर संभव कोशिश होने लगी ! पर समय सब का हिसाब करता और रखता है ! इसी बीच करोड़ों रुपए के घोटाले सामने आ गए ! अपने को प्रगतिवादी दिखाने के चक्कर में हिंदू त्योहारों पर पानी बचाओ, ध्वनि प्रदूषण हटाओ जैसी नसीहतें दे इसने लोगों को भ्रमित व मानसिक रूप से परेशान करना शुरू कर दिया ! पर बकरीद पर इसको कुर्बानी का कोई विरोध ना करते देख पाठकों को भी इसका मकसद जल्द ही समझ आ गया ! आग में घी तब पड़ा जब इसकी पुलवामा हमले की रिपोर्टिंग सामने आई, जवानों के बलिदान से आहत और आक्रोशित जनता ने इसकी लानत-मलानत कर रख दी।
समय की विपरीत होती गति को फिर भी इसने नहीं पहचाना ! अपने आँख-कानों पर सफलता की पट्टी चढ़ाए, अपने आकाओं की शह और खुद के गरूर में गाफिल, इसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि सामने वाला कितना सशक्त और सक्षम है और एक्शन का रिएक्शन भी होता है। अब आप किसी पर कटाक्ष करें, उसे उकसाएं, मेरा क्या बिगाड़ लोगे, जैसे विद्रूप के साथ उसके आलोचकों को सही-गलत कहने के लिए अपना मंच प्रस्तुत करें ! और जिस दिन उधर से पलटवार हो जाए उस दिन बंदिशें, अत्याचार, तानाशाही के आरोप ले सड़कों पर उतर आएं ! भले ही यह तय रणनीति के अनुसार ही हो और अपनी उंगलियों का संचालन देख आपका कठपुतलीकार भी संतुष्ट हो जाए पर आम इंसान के लिए यह नैतिकता से परे की बात ही रहेगी ! आप सरे आम आँख मारें और कोई कुछ ना कहे ये तो शायद अब संभव नहीं है !
36 टिप्पणियां:
सफलता को विरले ही पचा पाते हैं। अधिकांश इसके साथ आए गरूर और अहम के चलते कहीं के नहीं रहते
कदम जी
बिल्कुल सही कहा आपने
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 27 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी
बहुत-बहुत धन्यवाद
आज के दौर में असहमति का बैनर लिए लोग नफरत की ऐसी प्रतिगामिता का हिस्सा हो गए हैं जहाँ उद्देश्य भूलकर क्षुद्र-तृप्ति ही ध्येय हो गयी है।
वैचारिकी मंथन को आमंत्रित करता रहा है आपका लेख
जी सर प्रणाम।
सादर।
कृपया प्रतियोगिता पढ़े।
अपने हितसाधन के चक्कर में फर्ज भूला दिया जाता है
विचारोत्तेजक लेख ...
Is par to bahut pahle karywahi ho jani chahiye thi
वाणी जी
सदा स्वागत है आपका
Unknown ji
हर चीज का समय तय है।
आपका स्वागत है, पर परिचय हो जाता तो और भी बेहतर रहता
गगन जी , जब भास्कर हरियाणा में लॉच हुआ तो बहुत ख़ुशी हुई थी | सालों पहले हम लोगों ने इसे लगातार पढ़ा | पर बाद में इसमें सिर्फ व्यवसायिकता ही रह गयी | पत्रकारिकता की नैतिकता गायब हो चुकी थी |हाँ अहा ! ज़िन्दगी ! जैसे सशक्त और मधुरिमा जैसी छोटी प्रभावी पत्रिकाएँ इनका सराहनीय उपक्रम है | बहत अच्छी जानकारी दी आपने | सादर -
सिक्के का दूसरा पहलू बताकर सोचने पर विवश कर दिया आपने, गगन भाई।
सही लिखा है आपने। जनता को ध्यान रखना होगा कि अगर बदले की भावना से ही कार्रवाई होती तो रवीश कुमार जैसे पत्रकारों पर रोज एक्शन होता। कभी-2 ऐसी कार्रवाइयों पर चुप रहना भी अच्छा होता है। आखिर न्यायालय भी तो है।
रेणु जी
यह तो सच है कि कहा जिंदगी अभी की बेहतरीन पत्रिका है, इसने तो कादम्बिनी को भी पीछे छोड़ दिया था ! वैसे कादम्बिनी जैसी सर्वकालीन श्रेष्ठ पत्रिका के हश्र के लिए उसका बार-बार बदलता, आत्मश्लाघि सम्पादक मंडल ही पूरी तरह दोषी था ! रही मधुरिमा की बात तो पत्र लिख-लिख कर इसे दिल्ली एडिशन के साथ जुड़वाया था पर कोरोना के चलते इसे फिर बंद कर दिया गया है ! पर अच्छी साप्ताहिक है जो आकर्षित करती है !
ज्योति जी
किसी की कोई भी विचारधारा हो सकती है ! सब स्वतंत्र हैं अपनी सोच के साथ ! किसी के साथ किसी के खड़े होने में किसी को कोई दिक्कत नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए ! पर फिर निष्पक्षता का ढोल तो ना पीटा जाए !
वीरेंद्र जी
बिल्कुल सही ! और फिर कार्यवाही यूं ही नहीं हो जाती ! कोई ना कोई कारण तो होता ही है ! पर जो करोड़ों की हेराफेरी करता है वह उसको छिपाने का भी पूरा इंतजाम कर चुका होता है, इसीलिए ज्यादातर सबूत नहीं मिलते पर इसका मतलब यह नहीं कि वह दोषी नहीं है जैसा वह अवाम को जताने की कोशिश करता है
किसी पर आक्षेप करना उचित नहीं होता ! पर यदि कोई दिन की शुरुआत ही किसी की बुराइयों से करे, सही को गलत कहने से गुरेज ना करे ! अपनी बात को ही सर्वोपरि माने ! अपने आकाओं की लकीर का फ़क़ीर हो ! तब कुछ तो कहना ही पड़ता है ! यह सही है की कोई किसी भी विचारधारा का समर्थक हो सकता है ! उसकी अपनी सोच हो सकती है ! उसका अपना मत हो सकता है ! होना भी चाहिए इसमें कोई बुराई भी नहीं है ! पर फिर निष्पक्षता, सच्ची पत्रकारिता का ढोंग भी नहीं होना चाहिए ! यदि आप अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए येन केन प्रकारेण हर कोशिश करते हो तो उस पर सवाल उठने पर चिल्ल-पों भी नहीं मचानी चाहिए ! पर होता वही है और वही हो भी रहा है !
बिल्कुल सही और सार्थक विषय पर आपका ये आलेख सारगर्भित तथा समसामयिक भी है,कुछ लोगो का सुबह उठकर यही उपक्रम है, कि कमी निकालो उसमे ये अखबार वाले भी क्यों पीछे रहें,थोड़ा प्रसिद्धि मिली और लगे टांग खींचने,और अगर टांग खींचनी है,तो हर विषय पर खींचो,अपने हिसाब से नहीं चलेगा । आपके लेख में तथ्य परक सच्चाई है, बहुत शुभकामनाएं। गगन जी कादम्बिनी की जगह कौन सी पत्रिका ली जा सकती है, कृपया सुझाव दें।
जिज्ञासा जी
मेरे ख्याल से अभी भास्कर की ही अहा! जिंदगी सर्वोत्तम है। वैसे तो नवनीत जैसी कुछ और भी स्तरीय पत्रिकाएं हैं पर अहा जैसी संपूर्णता नहीं मिल पाती। एक बार आजमा कर देखें।
सही कहा आपने,सफलता के शिखर पर हर कोई बौना नजर आने लगता है ।
बहुत सारगर्भित आलेख ।
एक मुकाम हासिल करने के बाद उसे कायम रख पाना सबसे बड़ी चुनौती होती है और जो उसपर खरा नहीं उतरा उसे फिर नीचे उतरते देर नहीं लगती।
बहुत अच्छी प्रेरक जन-जागृति करती विचारणीय प्रस्तुति
शुभा जी
सफलता के साथ आया अहम सब मटियामेट करवा देता है।
कविता जी
शायद कायनात का यही दस्तूर हो किसी को कसौटी पर परखने का
शुभकामनाएं..
शानदार व
निस्पक्ष आलेख
साधुवाद..
सादर..
बहुत सुंदर आलेख
हमेशा कुछ अलग
कानून अपना काम करेगी।
यशोदा जी
आभार, सदा स्वागत है आपका
मनोज जी
अनेकानेक धन्यवाद
सुशील जी
हार्दिक आभार
नीतीश जी
बड़े कांडों में लिप्त, अपने बचाव का पुख्ता इंतजाम तो पहले ही कर लेते हैं ! इसीलिए कानून भी मजबूर हो जाता है ! सैकड़ों उदाहरण हों ऐसे
गगन शर्मा जी,
मैं किसी अखबार विशेष का पक्षधर नहीं हूँ और न ही किसी दल विशेष का प्रशंसक हूँ.
लेकिन मुझे इमरजेंसी के ज़माने से ही केवल विरोधियों पर छापेमारी की नीति कभी समझ में नहीं आयी.
गोपेश जी
दुनिया में कौन सी सरकार ऐसी है जो विपक्ष या विरोधियों को सर पर बैठा कर रखती है।
भास्कर कुछ समय से "यह लेखक की अपनी राय है" के तहत सिर्फ आलोचनाओं को जगह दे कर भी निष्पक्षता और सच्चाई की डुगडुगी बजाता रहा है। इसका पूर्वाग्रही वेतनभोगी स्तंभकार तो जब तक व्यव्स्था पर एक दो टिप्पणी ना कर दे उसकी बात ही पूरी नहीं होती, इसके लिए उसे भले ही गुलाब की बात करते हुए करेले के लिए जगह बनानी पडे।
किसी की विचारधारा कुछ भी कोई बात नहीं पर कंबल ओढ के घी खाना........!
भास्कर जैसी अखबारें सिर्फ पार्टियों के लिए काम करती हैं ...
धब्बा हैं पत्रकारिता के नाम पर ऐसे अखबार ...
नासवा जी
सही कह रहे हैं ! पत्रकारिता जैसी कोई चीज शायद बची ही नहीं है! सब किसी ना किसी के भोंपू बन कर रह गए हैं
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