शनिवार, 17 जुलाई 2021

मरीचझापी नरसंहार, आजाद भारत का जलियांवाला

हालांकि कानून की नजर में उस जगह को खाली करवाना जरुरी हो सकता है ! पर जिस तरीके से या बदले की भावना से, उसे खाली करवाया गया, वह किसी भी दृष्टि से नैतिक या क्षम्य नहीं माना जा सकता ! सरकार की नियत पर शक और भी पुख्ता हो जाता है, क्योंकि जिस जगह को, भारतीय वन अधिनियम, पर्यावरण और टाइगर रिजर्व जैसे कानूनों का हवाला दे कर तथा वन संपत्ति के दोहन व नुक्सान पहुंचाने तथा पारिस्थितिक असंतुलन खड़ा करने के अभियोग में, हजारों जानों की कीमत पर जबरन खाली करवाया गया था, उसी जगह को, वहां रिफ्यूजीओं द्वारा निर्मित सभी सुविधाओं समेत, वामपंथी सरकार ने अपने चहेते लोगों और समर्थकों को उपहार स्वरूप सौंप दिया..............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

देश की आजादी के करीब बत्तीस साल बाद 1979 में बंगाल में ज्योति वसु के नेतृत्व वाली वामपंथी सरकार द्वारा एक ऐसा, भयानक, विभत्स व नृशंस नरसंहार हुआ जिसके सामने पंजाब का जलियांवाला काण्ड भी कमतर लगने लगा ! बंगाल के सुंदरवन के मरीचझांपी इलाके को पूर्वी बंगाल से आए हिन्दू दलित शरणार्थीयों से खाली करवाने के लिए जिस बर्बरता, निर्ममता और पाश्विकता का सहारा लिया गया उसकी मिसाल स्वतंत्र भारत के इतिहास में कहीं नहीं मिलती ! जलियांवाला काण्ड के समय तो फिर भी अंग्रेजों की सरकार थी और पुलिस उनके आदिष्ट थी, पर इस बार तो पुलिस भी अपनी थी और सरकार भी स्वदेशी ! इसमें तकरीबन 3000 के करीब दलित हिंदू बंगाली शरणार्थी पुलिस की गोली का शिकार हुए थे । आजाद भारत में पुलिस की तरफ से किया गया अब तक का यह सबसे बड़ा हत्याकांड है। मरने वालों की मौत का आंकड़ा आज भी इस द्वीप की दलदली भूमि में कहीं दफ़न है ! 

इस भयंकर घटना का बीज बहुत पहले तभी पड़ गया था, जब ''अंग्रेजों की फूट डालो, शासन करो'' की नीति के तहत बंगाल का विभाजन हुआ था। उस समय विभाजन के पक्ष या विपक्ष में वोट डाल, उसी मतदान के आधार पर निर्णय लिया जाना था। इसमें मुस्लिम बहुल इलाके के सारे प्रतिनिधियों के साथ ही बंगाल की शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के प्रतिनिधियों ने भी एकीकृत बंगाल के लिए मतदान किया था। पर हिंदू बहुल इलाके के प्रतिनिधियों ने, जिनमें कांग्रेस, हिंदू महासभा और वामपंथी भी शामिल थे, विभाजन के पक्ष में वोट डाल, बहुमत पा कर, निर्णय अपने पक्ष में करवा लिया था। बंगाल के दो टुकड़े हो गए, एक कहलाया पूर्वी बंगाल और दूसरा पश्चिमी बंगाल के नाम से जाना जाने लगा। विभाजन के बाद दलित समुदाय ने, जो अब तक वहां के मुस्लिम नागरिकों के साथ मिल-जुल कर रहते आया था, अब भी वहीं रहने का फैसला कर लिया ! परंतु बाद में इस निर्णय की उन्हें बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी !

समय गुजरता गया ! देश के तीन टुकड़े कर दिए गए ! जिसमें से दो पकिस्तान के हिस्से में चले गए ! एक हमारे हिस्से आया ! आजादी के बाद पकिस्तान वाले भाग में रुके रहने वाले हिन्दुओं के सारे ख्याल, विचार व अनुमान गलत साबित होते चले गए ! धर्म के नाम पर होने वाली ज्यादितियों, अत्याचारों, हिंसा, लूट-खसोट ने उन्हें वहां से पलायन के लिए मजबूर कर दिया ! पश्चिमी भाग पर तो काबू पा लिया गया पर पूर्वी भाग, जो बाद में बांग्ला देश कहलाया, से रिफ्यूजीओं का भारत आना निर्बाध रूप से जारी रहा (जो अभी भी थमा नहीं है)। बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम में तो यह संख्या लाखों तक पहुंच गई ! इस विचार से कि हालात सामान्य होने पर उन्हें वापस भेज दिया जाएगा, उन्हें जगह-जगह बसाया भी गया। उसी समय बांग्ला देश के खुलना जिले में सतीश मंडल के नेतृत्व में ''आदिबास्तु उन्नयनशील समिति'' नामक एक संस्था भी अस्तित्व में आ गई, जिसने भारत के सुंदरवन इलाके की जनविहीन, सुनसान, दलदली जमीन पर अवैध रूप से रिफ्यूजियों को बसाना शुरू कर दिया ! उस जगह का नाम था, मरीचझापी !   

बंगाल की खाड़ी में गंगा की दो धाराएं, एक हुगली जो भारत से बहती हुई आती है, दूसरी पद्मा जो बांग्ला देश से होती हुई आती है, समुद्र में मिलने के पहले एक द्वीप सा निर्मित करती हैं ! जो लगातार पानी के सम्पर्क में रहने के कारण दलदली भूमि में परिवर्तित हो गया था। सदाबहार पेड़ों से घिरी उस जगह में जंगली झाड़ियों, लता-गुल्मों के सिवा और कुछ भी नहीं था। पूरी तरह सुनसान, बियाबान, कीड़े-मकौड़े, छोटे-बड़े जीव-जंतुओं से भरा वह इलाका मरीचझापी कहलाता था। जो किसी भी तरह मानव के रहने लायक नहीं था। पर वह मानव ही क्या जिसने हर विपरीत परिस्थिति को अपने अनुकूल न कर लिया हो !

उस समय बंगाल में कांग्रेस की सरकार थी। मुख्य विपक्षी दल CPI (M) था। जो खुद को सर्वहारा, गरीबों, दलितों, वंचितों और मजदूर वर्ग की पार्टी होने का दावा करता था। उसके लीडरों ने खुल कर एलान कर रखा था कि हमारे सत्ता में आते ही शरणार्थियों को पुर्नवास के लिए जगह-जमीन तथा अन्य सुविधाओं के साथ नागरिकता भी प्रदान कर दी जाएगी। राजनितिक दाव-पेंच के तहत अपने वोट बैंक को मजबूत करने के पार्टियों के इस षड्यंत्र को रिफ्यूजी ना समझ पा कर फंसते चले गए ! जब 1977 में वामपंथियों की सरकार बनी तब उनको इनकी जरुरत नहीं रह गई और यही रिफ्यूजी उन्हें भार स्वरूप लगने लगे ! पर नई-नई सत्ता में आई सरकार ने तुरंत किसी बड़ी कार्यवाही को ना करते हुए एक मुनादी पिटवा दी कि जो लोग सीमा पार से आना चाहते हैं वे आ सकते हैं पर उनको किसी भी तरह की कोई भी सुविधा नहीं दी जाएगी। परंतु इस चेतावनी का कोई भी असर रिफ्यूजीओं पर नहीं हुआ और ठठ्ठ के ठठ्ठ लोग, अपने से पहले आए हुए सगे-संबंधियों, मित्रों, जान-पहचान के लोगों के पास पहुंचते रहे। इसमें मुख्य जगह थी मरीचझापी, जिसकी आबादी 40000 तक जा पहुंची। 

उस समय वामपंथी सरकार थी और उसने सीमा पार से लोगों को इधर आने का न्योता दिया था ! आज तृणमूल की सरकार है और वह भी उसी तरह रिफ्यूजीओं का आह्वान कर रही है ! फर्क सिर्फ इतना है कि तब आने वाले हिन्दू दलित थे और आज रोहिंग्या मुसलमान.. 

इस आबादी ने उस दलदली जमीन को बिना किसी सरकारी मदद या इमदाद के सिर्फ अपने बलबूते और कठोर मेहनत की बदौलत खेती लायक बनाया। कुछ लोग मछली पालन के उद्योग से जुड़ गए ! धीरे-धीरे बच्चों के लिए स्कूल भी खोल दिया गया। आकस्मिक चिकित्सा सुविधा का भी इंतजाम कर लिया गया। एक बाजार, पुस्तकालय तथा नौका बनाने-मरम्मत करने की इकाई भी स्थापित कर ली गई। जगह का नया नामकरण भी कर दिया गया, नेताजी नगर ! एक सुनसान, जनविहीन स्थान गुलजार हो गया ! कहते हैं कि राम कृष्ण मिशन और भारत सेवाश्रम संघ जैसी मानव कल्याणकारी संस्थाओं उनकी सहायता करनी भी चाहि थी, वामपंथी सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। 

उधर सत्ता में आते ही कम्युनिस्टों को सालों पहले बंग-भंग के समय इन्हीं दलितों द्वारा किए गए अपने विरोध की याद भी ताजा हो आई ! उन्हें इस बात का भी आक्रोश था कि ये वही लोग थे जिन्होंने भारत नहीं आना चाहा था ! अब यहां उनको फलते-फूलते देख, बदले की भावना के तहत वामपंथी सरकार ने मरीचझापी को भारतीय वन अधिनियम, पर्यावरण और टाइगर रिजर्व जैसे कानूनों का हवाला दे तथा वन संपत्ति के दोहन व नुक्सान पहुंचाने तथा पारिस्थितिक असंतुलन बनाने के अभियोग लगा, उस पूरी जगह को तुरंत खाली करने का हुक्म जारी कर दिया। अपनी वर्षों की खून-पसीने की मेहनत को यूं एक झटके में गंवाने के लिए कोई भी रहवासी तैयार नहीं हुआ। उन्होंने फरमान मानने से इंकार कर दिया।


उनकी नाफरमानी देख सरकार अपनी पर उतर आई ! 26 जनवरी 1979 को जब पूरा देश गणतंत्र दिवस मनाने में व्यस्त था, उसी दिन बंगाल सरकार ने पूरे मरीचझापी द्वीप पर 144 धारा लागू कर दी ! पूरी जगह को चारों ओर से पुलिस की नौकाओं से घेर दिया गया ! किसी के भी वहां आने-जाने व किसी भी तरह का सामान, भोजन, दवा लाने-ले जाने पर भी रोक लगा, आर्थिक नाकेबंदी कर दी गई ! पीने का पानी जहरीला बना भूखे-प्यासे रहने पर मजबूर कर दिया गया ! कई दिन गुजर गए ! भूख-प्यास-पानी के बिना सैंकड़ों जानें जाने के बावजूद वहां लोग टस से मस नहीं हो रहे थे ! सरकार का गुस्सा बढ़ता जा रहा था ! ऐसे में ही एक दिन तक़रीबन 40000 निहत्थे, निस्सहाय, मजबूर लोगों को, जिसमें महिलाएं, बच्चे, वृद्ध, अशक्त, बिमार सभी सम्मिलित थे, चारों ओर से घेर कर निर्ममता से गोलीबारी शुरू कर दी गई। पहले हमले में ही हजारों लोग हताहत हो गए ! सैंकड़ों लोग जान बचाने के लिए पानी में कूद गए, जिनका फिर कोई पता नहीं चला !  

सशक्त हथियारबंद पुलिस के सामने कितनी देर टिका जा सकता था ! लिहाजा लोग आत्मसमर्पण के लिए मजबूर हो गए ! फिर भी उन्हें छोड़ा नहीं गया ! अनेकों पुरुषों को गोली मार दी गई ! महिलाओं के साथ अनाचार हुआ ! दुधमुंहे बच्चों तक को बक्शा नहीं गया उनके सर कलम कर दिए गए ! लाशों को यूं ही लावारिस छोड़ दिया गया, जिन्हें खा कर पहली बार वहां के शेर नरभक्षी बन गए ! बचे-खुचे लोगों को ट्र्कों में लाद कर अन्य स्थानों में भेज दिया गया ! उस दिन कितने लोग काल-कल्वित हुए इसका कोई ठोस या प्रामाणिक आंकड़ा आज तक उपलब्ध नहीं हो पाया है ! प्रत्यक्ष दर्शियों के अनुसार यह दस हजार भी हो सकता है ! 

हालांकि कानून की नजर में उस जगह को खाली करवाना जरुरी हो सकता है ! पर जिस तरीके से या बदले की भावना से, उसे खाली करवाया गया, वह किसी भी दृष्टि से नैतिक या क्षम्य नहीं माना जा सकता ! सरकार की नियत पर शक और भी पुख्ता हो जाता है, क्योंकि जिस जगह को, भारतीय वन अधिनियम, पर्यावरण और टाइगर रिजर्व जैसे कानूनों का हवाला दे कर तथा वन संपत्ति के दोहन व नुक्सान पहुंचाने तथा पारिस्थितिक असंतुलन खड़ा करने के अभियोग में, हजारों जानों की कीमत पर जबरन खाली करवाया गया था, उसी जगह को, वहां रिफ्यूजीओं द्वारा निर्मित सभी सुविधाओं समेत, वामपंथी सरकार ने अपने चहेते लोगों और समर्थकों को उपहार स्वरूप सौंप दिया ! इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है ! पर शायद यह उन असहाय मृतकों की आहों का श्राप ही था, जो आज बंगाल से वामपंथ का पूरी तरह सफाया हो चुका है !  

इस कांड को दबाने की भारी कोशिश के बावजूद घटना सामने आ ही गई । हो-हल्ला मचा ! बात दिल्ली तक पहुंच गई। उस समय केंद्र में मोरार जी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की विभिन्न मतों और अनेक बैसाखियों पर टिकी  हुई  सरकार थी ! जिसे वामपंथियों के सहारे की भी जरुरत थी ! सो इस बात को तूल ना देते हुए उसे वहीं छोड़ दिया गया ! रसूख के चलते इस काळा अध्याय को इतिहास के पन्नों से भी हटा दिया गया ! इसीलिए आज तक यह काण्ड कभी कभी भी राजनितिक मुद्दा नहीं बन पाया ! ना तब और ना हीं अब ! दरअसल इसका एक कारण यह भी है कि यह एक ऐसा समुदाय है, जो कहीं का नागरिक नहीं है ! सो राजनितिक दृष्टि से इनका महत्व शून्य है इसीलिए किसी भी सरकार ने इन्हें तवज्जो नहीं दी ! 

इतिहास में इसका भले ही विस्तृत विवरण ना रहने दिया गया हो ! भले ही जुबान ए खंजर पर रोक लगा दी गई हो ! फिर भी आस्तीन का खून अपनी कहानी कह ही जाता है ! उसी कहानी को कुछ जागरूक पत्रकारों और लेखकों ने अपनी, Blood Island, The Hungry Tide व ''आशोले की घोटे छिलो'' जैसी किताबों में विस्तार से उजागर करने की चेष्टा की है। एक फिल्म की भी तैयारी है ! उस घटना का सच  धीरे-धीरे ही सही सबके सामने आता जा रहा है !


इतिहास गवाह है कि देश में सिर्फ वोटर बदलते हैं ! सरकार चाहे किसी की भी हो उसकी फितरत कमोबेस वैसी ही रहती आई है ! आज बंगाल में इतिहास फिर अपने को दोहरा रहा है ! उस समय वामपंथी सरकार थी और उसने अपने हित के लिए प्रलोभन दे कर सीमा पार से लोगों को आने का न्योता दिया था ! आज तृणमूल की सरकार है और वह भी उसी तरह रिफ्यूजीओं का इधर आने का आह्वान कर रही है ! फर्क सिर्फ इतना है कि तब आने वाले हिन्दू दलित थे और आज रोहिंग्याओं को सिर्फ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मेहमान बनाया जा रहा है ! 

इतने साल बीतने के बावजूद उस समय के आए हुए बंगाली हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता का विवाद कब हल होगा, यह तो समय ही बताएगा ! समय को तो यह भी बतलाना है कि कब वे सारे हिन्दू शरणार्थी अपनी पहचान पा एक सम्मानित जिंदगी पा सकेंगे ! समय को तो यह भी बतलाना है कि अपनी तुच्छ राजनीती के तहत देश,समाज, लोगों का अहित करने वाली  क्या हश्र होगा ! 

22 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

काला इतिहास जो अभी तक तो सुर्ख़ियों में आया ही नहीं है
आगे भी आएगा पता नहीं … इतना कुछ हो जाने पर भी हिन्दू उबाल नहीं मारता …
ग़लत है या ठीक … शायद भविष्य बताए …

Kadam Sharma ने कहा…

अनजानी, अनसुनी, अद्भुत जानकारी के लिए आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

नासवा जी
बार-बार के झटकों के बावजूद चेतना क्यों नहीं जागृत होती, समझ के बाहर है!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बहुत-बहुत आभार, कदम जी

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुशील जी
हार्दिक आभार, स्नेह बना रहे

Reva Sharma ने कहा…

मरीचझापी नृशंस हत्या कांड पर मार्मिक और जानकारी से भरपूर पोस्ट। वोटर बदलते हैं लेकिन अब भी अगर वोटर नही समझा तो फिर क्या?
ये ऐसे अपराध हैं जिन्हें इतिहास कभी भी क्षमा नहीं करेगा।
ऐसे भूले बिसरे संवेदनशील विषय को बहुत संयत, सयंम ढंग से प्रस्तुत किया है। साधुवाद।

Jyoti Dehliwal ने कहा…

मरीचझापी नृशंस हत्या कांड की बहुत विस्तृत और अद्भुत जानकारी शेयर करने के लिए धन्यवाद, गगन भाई।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

रेवा जी
"कुछ अलग सा" पर आपका सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्योति जी
हार्दिक आभार

Unknown ने कहा…

इतना अच्छा लगा लेख पड़कर
पहली बार पता चला और दुख लगा इस तरह हत्याकांड को देखकर
हमारे आजाद देश में रहकर भी ऐसा हो रहा है
आभार लिखने का

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Unknown ji
आभार आपका! पर यदि परिचय भी हो जाता तो और भी बेहतर होता

Shantanu Sanyal शांतनु सान्याल ने कहा…

गहनता के साथ लिखा गया आलेख विभाजन के दर्द को ज़िंदा कर जाता है, विस्तृत उर्वर भूमि से निर्वासित हिन्दू आज तक दर ब दर भटक रहे हैं, दरअसल हिन्दुओं ने ही हिन्दुओं से हर बार विश्वासघात किया है, अगर जनसंख्या नियंत्रण का क़ानून इस देश भर में सख़्ती से लागू नहीं किया गया तो विभाजन की पुनरावृति को कोई रोक न सकेगा, बंगाली हिन्दुओं की सब से बड़ी त्रासदी यही है कि वो हर दौर में प्रताड़ना के शिकार हुए क्योंकि वो आगामी कल की नहीं सोचते - -

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शांतनु जी
बिल्कुल सही कहा आपने ! पूरी तरह सहमत

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

आजादी के बाद से आज तक के कई संदर्भों को उजागर करता आपका ये आलेख चिंतन का विषय है,मैं शांतनु जी के मत से सहमत हूं,सारगर्भित प्रश्न उठाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार ।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

जिज्ञासा जी
सवाल यह भी उठता है कि यदि किसी इंसान या समुदाय की कोई राजनीतिक उपादेयता नहीं है तो क्या उसे बिल्कुल नकार देना चाहिए ? क्या उनकी कोई हैसियत ही नहीं रह जाती ?

मन की वीणा ने कहा…

हृदय विधायक घटना क्रम को बहुत ही स्पष्टता से सिलसिलेवार लिखा है।
सच काया कांप गई ।
मानवता का ऐसा ह्रास पढ़ कर।
बहुत दारुण।
शोधकर्ता लेखनी को नमन।

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

बहुत ही सटीक विश्लेषण जो बातें आपने लिखी है एकदम कटु सत्य हैं

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुसुम जी
बर्बता की इंतिहा ही थी: निहत्थे, असहाय, कमजोर लोगों को गोलियों से भून देना ! वह भी उस पार्टी द्वारा जो आज भी खुद को सर्वहारा, मजबूर, गरीब लोगों की हिमायती कहलाते नहीं थकती

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राजपुरोहित जी
हार्दिक आभार ! स्नेह बना रहे

MANOJ KAYAL ने कहा…

बहुत सुन्दर आलेख

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

मनोज जी
बहुत-बहुत धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राजनितिक पार्टियों या नेताओं का तो सभी जानते हैं ! आश्चर्य और खेद तो इस बात का रहा कि बंगाल, जहां के लोगों को बहुत संवेदनशील माना जाता है, वहां के अवाम ने भी उस नृशंस हत्याकांड को नजरंदाज कर उसी पार्टी को दसियों साल अपने पर राज करने दिया !

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