अधिकतर संतान द्वारा बूढ़े माँ-बाप की बेकद्री, अवहेलना, बेइज्जती इत्यादि को मुद्दा बना कर कथाएं गढ़ी जाती रही हैं ! होते होंगे ऐसे नाशुक्रे लोग ! पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो आज की विषम परिस्थितियों में, जीविकोपार्जन की मजबूरियों के चलते चाह कर भी संयुक्त परिवार में नहीं रह सकते ! अलग रहने को मजबूर होते हैं ! ऐसी ही एक कल्पना है यह ! जहां ऐसा नहीं है कि अलग रहते हुए बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उसका आना-जाना अच्छा नहीं लगता ! वे तो उन्हें बेहद प्यार करते हैं ! उन्हें सदा माँ के सानिध्य की जरूरत रहती है ! पर फिर भी वे चाहते हैं कि माँ इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए उतना ही अच्छा ! पर क्यूँ ...........?
(मातृदिवस पर एक पुरानी रचना का पुन: प्रकाशन)
#हिन्दी_ब्लागिंग गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह कहां मालुम है। माँ तो शहर आई है, अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है, दोनों जगह न यहां, न वहां गांव में। पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है, वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च किया जाता है ! यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी ! शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी ! पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने ! उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद।
पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। बाकी सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह जाना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसी जगह है ! यह कैसा शहर है ! जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया गया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।
माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है। माँ को कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश तक का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं।
माँ जहां से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।
माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं ! पर शहर के विवेकविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।
ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए उतना ही अच्छा........!!
15 टिप्पणियां:
शुरू शुरू में गांव से आनेवालों को शहर में दिक्कत जरूर आती यही, लेकिन ज्यादातर लोग तारतम्य बैठा ही लेते है। जो नही बैठा पाते उनकी हालत इस कहानी के माँ जैसी ही होती है।जिसके बच्चे चाह कर भी उन्हें पास में नही रख पाते। सुंदर प्रस्तुति।
सुन्दर सृजन
शिवम जी
हार्दिक आभार
ज्योति जी
शांत परिवेश से आने वाले यहां की दौड़-भाग की जिंदगी से ऊब भी जाते हैं
मनोज जी
अनेकानेक धन्यवाद
अच्छी लगी प्रस्तुति गगन जी। मां का गांव लौटना, मां के लिए भी बहुत शुभ है। अनावश्यक विस्तार से बचती रचना एक चिंतन वीको जन्म देती है। हार्दिक शुभकामनाएं।
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१० -०५ -२०२१) को 'फ़िक्र से भरी बेटियां माँ जैसी हो जाती हैं'(चर्चा अंक-४०६१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
गगन जी, मैं इस बात से बिलकुल सहमत नहीं कि हर कोई मां का तिरस्कार करता है,ज्यादातर लोग अपनी मां को प्यार और सम्मान देते हैं,बड़ी इज्जत से रखते,ऐसे लोग भी हैं,जो अपने हर रिश्ते का तिरस्कार करते हैं, जिनमें मां भी शामिल है। उन्ही लोगो की वजह से मां को लेकर बेवजह भ्रांतियां फैलाई जाती है । आपका लेख बहुत सारगर्भित है ।आपको सादर शुभकामनाएं ।
रेणु जी
बहुत-बहुत धन्यवाद। स्वस्थ व प्रसन्न रहें
अनीता जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद । सभी जन स्वस्थ रहें यही कामना है
जिज्ञासा जी
होते होंगे कुछ नाशुक्रे!पर मैंने अपनी जिंदगी में ऐसे किसी को नहीं देखा या मिला जिसने अपने माता-पिता को बेहाली में धकेल दिया हो!
एक अलग विश्लेषण जिसे वहीं समझ पाता है जिसके साथ ऐसी परिस्थितियां आती है,
सच कहा आपने माँ को रखना नहीं चाहते हैं ऐसे कम होते हैं पर माँ को रखने पर माँ को या परिस्थिति जन्य कई कारण बनते हैं आपने प्रकाश डाला है कुछ मजबुरियों पर ।
बहुत सार्थक सृजन।
कुसुम जी
प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार ।
सदा स्वस्थ व प्रसन्न रहें
बहुत सुंदर और सार्थक लेख।
अनुराधा जी
अनेकानेक धन्यवाद । सुरक्षित रहें स्वस्थ रहें सपरिवार
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