रविवार, 29 जुलाई 2018

निजाम का स्वर्ण दान ! विवशता या डर ?

अभी पिछले दिनों फिर एक बार 65 के युद्ध के बाद भारत सरकार को हैदराबाद के निजाम द्वारा स्वर्ण दिए जाने की बात चर्चा में रही थी। बात ठीक थी, समय पर देश को आर्थिक सहारा भी मिला था पर सारे घटनाक्रम पर एक सवाल भी अपना सर उठाता है कि अचानक भारत विरोधी, पाक परस्त, अत्यंत कजूंस माने जाने वाले निजाम में ऐसा बदलाव कैसे आ गया ? उसकी सोच कैसे बदल गयी ? कौन सी ऐसी परिस्थितियां थीं, कैसे हालात थे जो उसे देश की भलाई की याद आई ?

#हिन्दी_ब्लागिंग
इतिहास के पन्ने पल्टे जाएं तो पता चलता है कि  जिस समय भारत में ब्रिटिश शासन ख़त्म हुआ, उस समय यहाँ के 562 रजवाड़ों में से सिर्फ़ तीन को छोड़कर सभी ने भारत में विलय का फ़ैसला कर लिया था। ये तीन रजवाड़े थे कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद। कश्मीर और जूनागढ़ देश की सीमाओं पर स्थित थे, उनकी सरहदें पहाड़ों और समुद्र तट को छूती थीं पर हैदराबाद, जो एक विशाल और सम्पन्न रियासत थी, चारों ओर से भारत से घिरा हुआ था। उसका स्वतंत्र रहना या पकिस्तान में मिलना, देश के लिए खतरनाक साबित हो सकता था। पहले दो का तो कुछ जद्दोजहद के बाद भारत में विलय हो गया पर हैदराबाद मुसीबतें खड़ी करता रहा। उस समय हैदराबाद की आबादी का अस्सी फ़ीसदी हिंदू लोग थे जबकि अल्पसंख्यक होते हुए भी मुसलमान प्रशासन और सेना में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे ! 

अराजकता का यह हाल था कि रज़ाकार हैदराबाद की आज़ादी के समर्थन में जन सभाएं करते थे, उस इलाक़े से गुज़रने वाली ट्रेनों को रोक कर ग़ैर-मुस्लिम यात्रियों पर हमले कर उनके जान-माल को तो नुक्सान पहुंचाते ही थे इसके अलावा रियासत से सटे हुए भारतीय इलाक़ों में रहने वाले लोगों को भी परेशान किया करते थे। निज़ाम, हैदराबाद के भारत में विलय के किस क़दर ख़िलाफ थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिन्ना को संदेश भेजकर ये जानने की कोशिश की थी कि क्या वह भारत के ख़िलाफ़ लड़ाई में हैदराबाद का समर्थन करेंगे ! जिन्ना ने इसका जवाब देते हुए कहा था कि वो मुट्ठी भर आभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए पाकिस्तान के अस्तित्व को ख़तरे में नहीं डालना चाहेंगे। उधर नेहरु, इस पूरे मसले का हल बात-चीत से करना चाहते थे। पर सरदार पटेल इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि उस समय का हैदराबाद, भारत के पेट में कैंसर के समान था, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था। पटेल को इस बात का अंदाज़ा था कि हैदराबाद पूरी तरह से पाकिस्तान के कहने में था, क्योंकि पाकिस्तान उसका समझौता पुर्तगाल के साथ कराने की फ़िराक़ में था जिसके तहत हैदराबाद गोवा में बंदरगाह बनवाएगा और ज़रूरत पड़ने पर पकिस्तान उसका इस्तेमाल अपने हक में कर सकेगा। आसन्न युद्ध को देखते हुए निज़ाम ने यूरोप से हथियार खरीदने की कोशिश भी की थी पर सफल नहीं हो पाया था।क्योंकि हैदराबाद को एक आज़ाद देश के रुप में मान्यता नहीं मिली थी। 

जब विलय की सारी कोशिशें नाकाम होती नज़र आईं तो सरदार पटेल ने सीधी कार्यवाही करने का निश्चय किया, जिसमें दो बार नेहरू और राजाजी द्वारा रोक भी लगाई गयी, क्योंकि उनको डर था कि सैन्य कार्यवाही से पकिस्तान रुष्ट हो दिल्ली पर हमला कर देगा। पर सारी अटकलों पर विराम लगाते हुए अंततः सरदार पटेल ने "'आप्रेशन पोलो'' के तहत सेना को हैदराबाद भेज दिया। पांच दिनों तक चली इस कार्रवाई में 1373 रज़ाकार मारे गए. हैदराबाद स्टेट के 807 जवान भी खेत रहे. भारतीय सेना ने अपने 66 जवान खोए जबकि 97 जवान घायल हुए पर उनकी क़ुरबानी रंग लाई और हैदराबाद का विलय भारत में हो गया। 
अब हैदराबाद भारत का अंग तो बन गया, पर निजाम का मन अपने द्वारा की गयी हरकतों के कारण सदा आशंकित रहता था। दुनिया के सबसे समृद्ध लोगों में से एक होते हुए भी उसे अपने और अपने परिवार के भविष्य की चिंता बनी रहती थी। उसी समय भारत को तीन साल में दो बड़े युद्ध झेलने पड़े। आर्थिक रूप से देश बेहद कमजोर पड गया था, धन की सख्त जरुरत थी जिसके लिए राष्ट्रिय सुरक्षा कोष की स्थापना की गयी। तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने खुद देश वासियों से सहयोग करने को कहा गया। इसी के लिए वे हैदरबाद पधारे और निजाम से सहायता की गुजारिश की। निजाम ने बिना देर किए करीब पांच टन सोना सरकार को सौंप दिया। यह अब तक का सरकार को किसी के भी द्वारा दिया गया सबसे बड़ा दान है। 

पर ऐसा क्या हुआ कि निजाम में अचानक दरियादिली जाग उठी। इससे उसकी वाह-वाही हुई, प्रशंसा के पुल बांधे गए, नाम हुआ ! पर यह था क्या ? देशभक्ति तो नहीं ही थी ! क्योंकि यह होती तो उसने भारत में विलय का इतना विरोध नहीं किया होता ! कजूंस इतना कि उसकी बेगमें और औलादें सीलन भरे कमरों में नौकरों से भी बदतर अपनी जिंदगी के दिन काटने पर मजबूर थे। हैदराबाद की सस्ती चारमीनार सिगरेट के बचे टोटों से तंबाखू निकाल पाईप में पीने वाला इंसान एक झटके में इतना पैसा कैसे दे सका ? जब कि हकीकत यह थी कि उसके पास बेइंतहा दौलत थी, देश-दुनिया के कई देशों से भी ज्यादा ! कहते हैं, नवाब की तिजोरी से लेकर तहखाने तक बेशकीमती हीरे-जवाहरातों से भरे पड़े थे। कई टन सोने से लदे ट्रक निजाम के तहखाने में खड़े रहते थे। इसीलिए लगता है कि जब देश के लिए कुछ देने की बात आई तो उसने एक तीर से कई निशाने साध लिए। अपने अथाह सागर से कुछ भाग दान कर उसने अपना, अपने परिवार और अपनी सम्पत्ति का भविष्य कुछ हद तक सुरक्षित कर लिया। विलय के समय की बदनामी को भी कुछ कम करने में सफलता पाई। उस समय उसकी उम्र भी तकरीबन 75-76 साल की हो चुकी थी। बुढ़ापा हावी था। इसके अलावा पत्नियों, करीब बीस बेटे और उन्नीस बेटियों, 42 रखैलों, 200 बच्चों, 300 नौकरों वाले परिवार में संपत्ति को लेकर कलह शुरु हो चुकी थी। इन सब के चलते वह तनावग्रस्त, चिंतित और परेशान रहता था। यह भी हो सकता है कि उसे लगा हो कि देश के सबसे बड़े, घर आए वजीर को मना करने से कहीं उसकी सारी सम्पत्ति ही ना जप्त कर ली जाए। इसीलिए शायद उसने उस समय अपनी अकूत संपत्ति का कुछ भाग दान कर दिया हो।  कारण कुछ भी रहा हो, उस समय देश की जरुरत तो कुछ हद तक पूरी हो ही गई थी।   








4 टिप्‍पणियां:

radha tiwari( radhegopal) ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-07-2018) को "झड़ी लगी बरसात की" (चर्चा अंक-3048) (चर्चा अंक-3034) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राधा जी, हार्दिक धन्यवाद!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी की १२७ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शिवम जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार

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