ठाकुर साहब, नई पीढ़ी समझदार है, वह हमसे ज्यादा व्यावहारिक है, उनके पास हमसे ज्यादा बड़े और व्यापक कार्य-क्षेत्र हैं। उनकी सोचने-समझने-निर्णय लेने की क्षमता तीव्र है। हमसे ज्यादा खतरा मोल लेने की क्षमता है। ये अपना अच्छा-बुरा खूब समझती है; पीढ़ियों का टकराव वे भी नहीं चाहते !जरुरत है एक-दूसरे की समस्याओं को आमने-सामने बैठ कर हल करने की। तो क्यों न हम अपने-आप को कुछ बदल कर, अपने अहम को किनारे कर, अपने संपूर्ण अनुभवों का उनको लाभ देते हुए उनका सहयोग करें ! मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे ही जरूर हमारा साथ देंगे ! कोशिश तो कीजिए ................!
#हिन्दी_ब्लागिंग
बहुत दिनों बाद ठाकुर जी का मेरे यहां आना हुआ। शाम की चाय का वक्त था, अंदर उनके आने की सुचना भिजवा दी। कुशलक्षेम की जानकारी के पश्चात भी वे कुछ अन्यमनस्क से ही लग रहे थे। चाय के दौरान इधर-उधर की बातचीत में ही अचानक उन्होंने पूछा, शर्मा जी; जमाना बहुत बदल गया है ना ? मैं चौंका ! यह कैसा प्रश्न ! फिर उन्हीं के बोलने का इंतजार करता रहा। वे जैसे पूरी तरह वहाँ उपस्थित नहीं थे। मुझे ही पूछना पड़ा, क्यों ! क्या हो गया ? बोले, नहीं; कुछ ख़ास नहीं ! पर अपने संस्कार और वर्तमान में बहुत फर्क लगने लगा है। मैंने कहा, हाँ, वह तो है ही, हमारे जमाने और आज की पीढ़ी में फर्क तो है ही। पढ़ाई-लिखाई, काम-धंधे की प्रतिस्पर्धा, बदलते समय के साथ बने रहने की चिंता, देशों की सिमटती सीमाएं, रहन-सहन सबका असर तो पड़ता ही है। फिर भी हम भाग्यशाली हैं कि समस्त विडंबनाओं के बावजूद अभी भी हमारे यहा संयुक्त परिवार अस्तित्व में बने हुए हैं। परिवार-बोध बना हुआ है। कुछ अपवादों को छोड़ अभी भी घरों में बड़े-बुजुर्गों का आदर-सम्मान, उनकी देख-रेख, उनकी जरूरतों का ध्यान रखा जाता है।
ठाकुर जी मेरी बात मानते हुए भी पूरी तरह सहमत नहीं लग रहे थे। बोले, पर पहले वाली बात नहीं रही ! बुजुर्ग हैं घर में, उनकी देख-रेख-पूछ-परख भी होती है। पर अब उनका एकाधिकार नहीं रहा ! हमारे समय में बिना बड़ों की इजाजत के पत्ता तक नहीं हिलता था। कुछ भी करने के पहले उनकी इजाजत जरूरी होती। पर आज महत्वपूर्ण निर्णयों पर उनकी सलाह को अंतिम नहीं माना जाता। उनकी राय भले ही ले ली जाती हो पर अंतिम फैसला घर को चलाने वाले का होने लगा है। कई बार तो कोई निर्णय लेने के बाद सिर्फ उन्हें बताना ही काफी समझा जाने लगा है। कहीं आने-जाने के लिए किसी की इजाजत की जरुरत नहीं समझी जाती, बस उन्हें इत्तला दे दी जाती है ! यह घर-घर की कहानी हो गयी है।
मुझे अब उनका दर्द समझ में आने लगा था। पर उन्हें समझाने के लिए मुझे उचित शब्द ढूँढने पड़ रहे थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा, ठाकुर साहब; यह तो आप मानेंगे कि समय के साथ नई पीढ़ी समझदार हो गयी है, वह हमसे ज्यादा व्यावहारिक है, उनके पास हमसे ज्यादा बड़े और व्यापक कार्य-क्षेत्र हैं। उनकी सोचने-समझने-निर्णय लेने की क्षमता तीव्र है। अपने ऊपर उन्हें पूरा विश्वास है। हमसे ज्यादा खतरा मोल लेने की क्षमता है। ये अपना अच्छा-बुरा खूब समझती है; तो क्यों न हम अपने-आप को कुछ बदल कर, अपने अहम को किनारे कर, अपने संपूर्ण अनुभवों का उनको लाभ देते हुए उनका सहयोग करें ! बेकार की रोक-टोक ना करते हुए उन्हें अपने तरीके से अपने जीवन को जीने का मौका दें। हां, अपने विचारों से उन्हें जरूर अवगत कराएं। जिस किसी बात पर आपत्ति हो उस पर आमने-सामने बैठ कर बात करें, घुटते ना रहें। आप यदि अपने गुजरे समय का ही ध्यान करेंगे, जब युवा होते युवक-युवती पर तरह-तरह की रोक-टोक होती थी, जब उन पर शादी-ब्याह के बाद भी तरह-तरह की बंदिशें हुआ करती थीं, यदि वही सब आप अब भी लागू करना चाहेंगे, क्योंकि आप पर वैसा हो चूका है; तब तो यह बदला निकलना हुआ ! ऐसे में तो परिवार में कोई भी खुश या सुखी नहीं रह पाएगा ! आप भी नहीं ! क्योंकि आप भी कहाँ अपने बच्चों को परेशान व तनाव में देख पाएंगे ! इसलिए जहां नई पीढ़ी को पुरानी मान्यताओं, चली आ रही, सही परंपराओं तथा विचारों से ताल-मेल बैठाना पडेगा, क्योंकि वे लोग भी टकराव नहीं चाहते ! वहीँ आप को भी थोड़ा सा बदलाव तो अपने-आप में लाना ही पडेगा। आप तो समझदार हैं, आप ही उदाहरण दिया करते थे कि नम्रता, मृदुता व लचीलापन कभी व्यर्थ नहीं जाते। समय के अनुसार ढलना कोई कमजोरी नहीं है।
हमारे पर जो लागू हुआ था, जो बीता, भले ही वह अनुशासन के नाम पर हो, हमारी सुरक्षा के लिए उठाए गए कदम हों या समाज का दिखावा हो। हो सकता है उस समय बच्चों के व्यक्तिगत विकास के लिए वही जरुरी समझा जाता रहा हो ! क्योंकि ऐसा तो बिल्कुल ही नहीं माना जा सकता कि हमारे अभिभावकों को हमसे लगाव नहीं था, वे हमारी चिंता नहीं करते थे, हमसे उनका प्रेम नहीं था। हो सकता है कि आज से ज्यादा हमारी चिंता-फ़िक्र की जाती हो। पर अब परिस्थियाँ, समय, सब में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका है। सोच बदल गयी है, विचार बदल गए हैं तो भी हम वही सब क्यों अपने बच्चों पर थोपना चाहते हैं, खासकर दूसरे घर से आई किसी बेटी पर ! यह क्या हमारी कुंठा है ? हमारी ईर्ष्या है कि जो हमें नहीं मिला वह इन्हें भी नहीं मिले ? यदि हाँ; तो किसके प्रति अपने ही बच्चों के............? यह सदा ध्यान रखें...बंदिशे चाहे किसी भी रूप में हों, उन्हें कभी भी कहीं भी स्वीकारा नहीं गया है !
रात घिरने लगी थी। ठाकुर साहब भी कुछ-कुछ तनाव-मुक्त लग रहे थे, जैसे किसी ठोस निर्णय पर पहुँच चुके हों। उन्होंने घडी पर दृष्टि डाली, चाय के लिए शुक्रिया अदा कर उठ खड़े हुए। मैं मंथर गति से उन्हें अपने घर की ओर अग्रसर होते देख रहा था।