शुक्रवार, 30 मार्च 2018

गुड़ फ्राइडे यानी पावन शुक्रवार

आज  गुड़फ्रायडे की छुट्टी थी । सुबह- सुबह   एक सज्जन का फोन आ गया।  छूटते ही बोले,  सर हैप्पी गुडफ्रायडे।  मुझसे कुछ बोलते नहीं  बन पडा ! पर फिर धीरे से कहा, भाई; कहा तो गुड फ्रायडे ही जाता है, लेकिन है यह  एक  दुखद दिवस।   इसी दिन ईसा मसीह को मृत्यु दंड दिया गया था । किसी  क्रिश्चियन दोस्त को बधाई  मत दे बैठना.....!
#हिन्दी_ब्लागिंग 
ऐसे बहुत से  लोग हैं,  जिन्हें  सिर्फ छुट्टी  या  मौज - मस्ती  से  मतलब   होता है।  उन्हें  उस दिन  विशेष  के  इतिहास या उसकी प्रासंगिकता से कोई लेना - देना  नहीं होता !   ऐसा  ही  कुछ  "हादसा"  मेरे संस्थान में होते-होते बचा था जब एक भले आदमी ने "गुडफ्राइडे के उपलक्ष्य में" छुट्टी का नोटिस जारी कर दिया था।  समझाने   पर   वही  तर्क    कि जब गुड़ कहा जाता है तो इसका  मतलब अच्छा ही हुआ ना  ? और उन महाशय जी ने इतिहास में M.A. की डिग्री ले रखी थी !                                            
वैसे यह सवाल बच्चों को तो क्या बड़ों को भी  उलझन  में डाल  देता  है  कि जब  इस  दिन इतनी दुखद घटना घटी थी तो इसे "गुड़" क्यों कहा जाता है?  ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें सिर्फ छुट्टी या मौज - मस्ती से मतलब    होता    है,   उन्हें   उस दिन   विशेष के   इतिहास  या उसकी     प्रासंगिकता से कोई  मतलब नहीं होता अब इसी दिन को लें, सुबह की बधाई को याद रख, दूसरे दिन काम पर जा बहुतेरे लोगों से इस दिन के बारे में पूछने पर, इक्के - दुक्के को छोड कोई ठीक जवाब  नहीं  दे पाया।    उल्टा  उनका  भी यही प्रश्न  था  कि फिर इसे  गुड  क्यों  कहा जाता है। इसका यही  उत्तर है कि   यहाँ "गुड"   का  अर्थ  "HOLY"  यानी पावन  के अर्थ में लिया जाता है. क्योंकि  इस  दिन  यीशु   ने  सच्चाई  का साथ  देने और लोगों की  भलाई  के लिए, पापों  में डूबी  मानव  जाति    की  मुक्ति    के  लिए उसमें  सत्य,  अहिंसा,   त्याग और  प्रेम  की भावना जगाने के लिए अपने  प्राण त्यागे थे।  उनके अनुयायी उपवास रख पूरे दिन प्रार्थना करते हैं, और यीशु को दी गई यातनाओं को याद कर उनके वचनों पर अमल करने का संकल्प लेते हैं। 
शुक्रवार का दिन बाइबिल में अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं से जुडा हुआ है जैसे सृष्टि पर पहले मानव का जन्म शुक्रवार को हुआ। प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करने पर आदम व हव्वा को शुक्रवार के दिन ही अदन से बाहर निकाला गया। ईसा शुक्रवार को ही गिरफ्तार हुए, जैतून पर्वत पर अंतिम प्रार्थना प्रभु ने शुक्रवार को ही की और उन पर मुकदमा भी शुक्रवार के दिन ही चलाया गया।

मंगलवार, 27 मार्च 2018

तम्बोला, हाउजी या बिंगो...खेल या जुआ !

अपने यहां सार्वजनिक रूप से मेले-ठेले या होली-दिवाली मिलन पर इसका आयोजन तो फिर भी समझ में आता है पर अभी पिछले दिनों  "हिंदू नव वर्ष" समारोह में इसे आयोजित होते देख, पता नहीं कुछ अजीब सा क्यों लगा !  हालांकि खेल मजेदार है, उत्सुकता, मनोरंजन, एकाग्रता, रोमांच, तत्परता, सरलता सभी कुछ समेटे हुए है ! पर पैसे दांव पे लगे होने से जूए का ही एक स्वरुप नहीं बन गया है.... ?
#हिन्दी_ब्लागिंग
तम्बोला, हाउजी या बिंगो, एक ही "बोर्ड खेल" के विभिन्न नाम। जो दुनिया भर में और भी नामों से खेला और पसंद किया जाता है। वैसे तो यह आयातित खेल वर्षों से हमारे यहां भी खेला जा रहा है, पर इधर कुछ सालों से इसकी लोकप्रियता दिन दूनी  रात चौगुनी बढ़ी है और अभी भी बढती ही जा रही है। पहले यह कहीं-कहीं क्लब
या पार्टियों  वगैरह में खेला जाता था। पर अब यह महिलाओं की "किटी पार्टियों" का एक आवश्यक अंग बनने के साथ-साथ मेले-ठेले-उत्सवों इत्यादि में भी अपनी पैठ बना चुका है। इसकी लोकप्रियता का कारण इसका रोमांचक स्वभाव, संभावना-युक्त और सरल होना है जिसके कारण कोई बच्चा भी इसे खेल सकता है।  

पर्ची या टिकट 
ऐसा माना जाता है कि इस खेल की ईजाद इटली में हुई थी। जहां से यह सारे विश्व में फ़ैल गया। उस समय इसे परिवार को एकजुट  खेल बतला कर प्रचारित किया गया था। पहले मौज-मस्ती के लिए इसे क्रिसमस के दौरान भी खेला जाता था और जीतने वाले को इनाम मिलता था। धीरे-धीरे इसका स्वरूप बदलता गया और अब यह पैसों से खेला जाने लगा है। दुनिया भर में यह कई तरह से खेला जाता है पर मूल पद्यति एक जैसी ही होती है। 

अपने यहां खेले जाने वाले इस खेल के दो भाग हैं ! एक तो खेलने वाले, जिनकी संख्या कुछ भी हो सकती है, उन्हें एक पर्चीनुमा टिकट मिलता है जिसकी तीन पंक्तियों में एक से नब्बे तक के अंकों में से कोई पंद्रह अंक,
हर पंक्ति में पांच के हिसाब से छपे होते हैं। दूसरा भाग खिलवाने वाले का होता है जिसमें एक या दो जने होते हैं।
उनके पास एक बोर्ड, जिसमें सिलसिलेवार एक से नब्बे अंकों से अंकित खाने बने होते हैं तथा एक कटोरेनुमा बर्तन होता है, कई जगह एक घूमने वाला यंत्र भी उपलब्ध होता है, जिसमें एक से नब्बे तक के अंकित छोटे-छोटे
नंबर वाले गुटके 
"डायस" या गोले होते हैं। खेल शुरू होने के पहले प्रत्येक खेलने वाले को एक निश्चित दर पर पर्ची बेचीं जाती है तथा संग्रहित पैसों से जीतने के विभिन्न मानक तय कर दिए जाते हैं और पूरी राशि को विभिन्न मानकों में बाँट दिया जाता है। जैसे किसी भी पंक्ति के पाँचों नंबर कट जाने पर कुछ राशि, पर्ची पर के किनारे के चारों नंबर कटने पर कुछ राशि, जिस खिलाड़ी के सबसे पहले पांच अंक कट जाएं उसे कुछ राशि इत्यादि। उसके बाद जिस खिलाड़ी के सबसे पहले पूरे पंद्रह यानी सारे नंबर कट जाएं, जिसे "फुल हाउस" कहा जाता है, उसे विजेता माना जाता है और सबसे ज्यादा राशि उसी को मिलती है।   

बोर्ड 
खेल शुरू  होने पर खिलवाने वाला व्यक्ति  कटोरे में  से बिना  देखे एक  नंबर उठा, उसे सबको बतला कर बोर्ड में बने उसी नंबर की जगह में रख देता है। खेलने वाले की पर्ची में यदि वह नंबर हो तो वह उसे काट देता है नहीं तो अगले अंक का इंतजार करता है।  इसी तरह खेल तब तक चलता रहता है जब तक किसी का फुल हाउस ना हो जाए। फुल हाउस होने पर खिलाड़ी को अपनी पर्ची खिलवाने वाले को पेश करनी पड़ती है जो अपने बोर्ड से उसके नंबर मिला जीत निश्चित करता है। यदि कहीं चूक हुई होती है तो वह पर्ची "बोगी" कहलाती है और खेलने वाला बाहर हो जाता है।
नंबर निकलने वाली मशीन 

वैसे तो खेल मजेदार है, उत्सुकता, मनोरंजन, एकाग्रता, रोमांच, तत्परता, सरलता सभी कुछ समेटे हुए है ! पर पैसे दांव पे लगे होने से जूए का ही एक
स्वरुप बन गया है। अपने यहां सार्वजनिक रूप से मेले-ठेले या होली-दिवाली मिलन पर इसका आयोजन तो फिर भी समझ में आता है पर अभी पिछले दिनों "हिंदू नव वर्ष" समारोह में इसे आयोजित होते देख, पता नहीं कुछ अजीब सा क्यों लगा !    

शनिवार, 24 मार्च 2018

यहां देवी-माँ को भेंट स्वरुप ताले चढ़ाए जाते हैं ! नवरात्र पर विशेष...

काफी कोशिशों के बाद भी न्याय ना मिलने पर पुजारी ताराचंद जी ने देवी  को ताले-जंजीर से  बाँध कर प्रतिज्ञा की कि जब तक देवी माँ  भगत को आशीर्वाद नहीं देंगी  और उसे निर्दोष साबित  नहीं करेंगी वह  ताला जंजीर  नहीं खोलेंगे....
#हिन्दी_ब्लागिंग    
जी हाँ ! यह सच है ! हमारा देश तो विचित्रताओं से भरा पड़ा है। अब आप भगतों की श्रद्धा, आस्था, प्रेम को क्या कहेंगे ! उसे जो अच्छा लगता है, जैसा समझ में आता है, जिस चलन पर उसका विश्वास जमता है वह वैसी ही राह अख्तियार कर लेता है।  हम  में से  कोई  भी जब किसी मंदिर या धार्मिक स्थल पर जाता है तो खाली हाथ नहीं जाता, मिष्टान,  नारियल,  फल-फूल या मुद्रा कुछ न कुछ उपहार स्वरुप जरूर ले कर जाता है पर कानपुर शहर के एक काली मंदिर में माँ को तालों की भेंट चढ़ाई जाती है। हैरानी की बात तो है पर यह बिल्कुल सच है।  
कानपुर के  बंगाली मोहल्ले (मोहाल) में  काली माता का एक मंदिर है,  जिसका निर्माण सन 1949 का बताया जाता है। यहां की मान्यता है  कि कोर्ट-कचहरी के मामलों में माँ निर्दोषों को न्याय दिलवाती हैं।   इसीलिए बड़ी
संख्या में भक्तजन    यहां देवी के  सामने अपनी समस्यों के समाधान के लिए आते हैं।  नवरात्रि के दिनों में, यहां भक्तों की संख्या हजारों में पहुंच जाती है,   सिर्फ  उत्तर-प्रदेश ही नहीं,   बल्कि देश भर  से  भक्त  अपनी मनोकामना लेकर इस मंदिर में आते हैं।   पर वे फल - फूल  या  मिष्टान ही  अर्पित नहीं  करते  बल्कि माँ को  तालों की भेंट चढ़ाते हैं।   आम तौर पर लोहे के ताले ही चढ़ाए जाते हैं पर  कुछ लोग  अपनी    हैसियत के अनुसार सोने - चांदी के ताले भी अर्पित करते हैं। ताले सीधे माता की मूर्ति के   सामने नहीं रखे   जाते     बल्कि मूर्ति से   कुछ दूर बने खम्भोँ में लगी रस्सियों में बांध दिए जाते हैं। पर उसके पहले मन में  अपनी मनोकामना को  रख पूरे  विधि-विधान से उनकी पूजा अर्चना की जाती है। 

इस परंपरा के पीछे तरह-तरह की कथाएं हैं। कहते हैं कि  करीब 60-65 साल   पहले  यहाँ के पहले पुजारी ताराचंद जी   के  एक   अभिन्न मित्र  और   देवी  के भगत  को  एक झूठे  मुकद्दमे   में  फंसा  दिया  गया था।   काफी कोशिशों के बाद   भी  न्याय ना  मिलने पर  ताराचंद ने देवी माँ  को ही  ताले-जंजीर से  बाँध  कर  प्रतिज्ञा   की, कि जब    तक    देवी माँ   भगत को आशीर्वाद नहीं देंगी और उसे निर्दोष साबित  नहीं करेंगी वह  ताला जंजीर  नहीं खोलेंगे।     भगत को जेल हो जाने के बाद ताराचंद जी ने सामान्य पूजा-आरती भी बंद कर दी।  ऐसा कई महीनों तक चला।  आखिर में भगत को न्याय मिला और अदालत ने उसे बरी कर दिया।  तब से  यहां ताले का चढ़ावा चढ़ाने की विलक्षण रीति का आरंभ हुआ और आज भी यह परंपरा चली आ रही है। 

ऐसी ही एक और कथा है,  जिसके अनुसार इस मंदिर  में रोज सुबह नियम से  पूजा-अर्चना के लिए आने वाली एक  महिला भगत बहुत परेशान रहा करती थी। एक दिन उसको मंदिर प्रागंण में ताला  लगाते देख पुजारी के कारण पूछने पर उसने बताया कि  देवी मां ने सपने में आकर कहा है कि तुम एक ताला मेरे नाम से मेरे मंदिर
में लगा देना तुम्हारी हर इच्छा पूरी हो जाएगी। ताला लगाने के बाद वो महिला फिर कभी नहीं दिखी। अचानक बरसो बाद उस महिला द्वारा लगाया गया ताला भी एक दिन गायब हो गया। साथ ही दीवार पर यह लिखा मिला कि मेरी मनोकामना पूरी हो गई है इस कारण अपना ताला खोल रही हूँ।  उसके  बाद  से  ही यहां ताला अर्पित करने का चलन पड़ गया और माँ का नाम ताले वाली देवी पड़ गया। यहां के पुजारी जी के अनुसार हर अमावस्या को माता का दरबार पूरी रात खुला रहता है। पूरी रात पूजा-अर्चना, भजन-कीर्तन होता है।  अगले दिन माता के दरबार में भंडारा भी कराया जाता है।



है ना ! अनोखी बात, अनोखा चलन, अनोखा मंदिर ? कभी भी कानपुर जाना हो तो यहां माँ के दर्शन जरूर कर के आएं। जय माता की ! 

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

समय के अनुसार ढल जाने में कोई हेठी नहीं है !

ठाकुर साहब, नई पीढ़ी समझदार है, वह हमसे ज्यादा व्यावहारिक है, उनके पास हमसे ज्यादा बड़े और व्यापक कार्य-क्षेत्र हैं। उनकी सोचने-समझने-निर्णय लेने की क्षमता तीव्र है। हमसे ज्यादा खतरा मोल लेने की क्षमता है। ये अपना अच्छा-बुरा खूब समझती है; पीढ़ियों का टकराव वे भी नहीं चाहते !जरुरत है एक-दूसरे की समस्याओं को आमने-सामने बैठ कर हल करने की। तो क्यों न हम अपने-आप को कुछ बदल कर, अपने अहम को किनारे कर, अपने संपूर्ण अनुभवों का उनको लाभ देते हुए उनका सहयोग करें ! मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे ही जरूर हमारा साथ देंगे ! कोशिश तो कीजिए ................!
#हिन्दी_ब्लागिंग   
बहुत दिनों बाद ठाकुर जी का मेरे यहां आना हुआ। शाम की चाय का वक्त था, अंदर उनके आने की सुचना भिजवा दी। कुशलक्षेम की जानकारी के पश्चात भी वे कुछ अन्यमनस्क से ही लग रहे थे। चाय के दौरान इधर-उधर की बातचीत में ही अचानक उन्होंने पूछा, शर्मा जी; जमाना बहुत बदल गया है ना ? मैं चौंका ! यह कैसा प्रश्न ! फिर उन्हीं के बोलने का इंतजार करता रहा। वे जैसे पूरी तरह वहाँ उपस्थित नहीं थे। मुझे ही पूछना पड़ा, क्यों ! क्या हो गया ? बोले, नहीं; कुछ ख़ास नहीं ! पर अपने संस्कार और वर्तमान में बहुत फर्क लगने लगा है। मैंने कहा, हाँ, वह तो है ही, हमारे जमाने और आज की पीढ़ी में फर्क तो है ही। पढ़ाई-लिखाई, काम-धंधे की प्रतिस्पर्धा, बदलते समय के साथ बने रहने की चिंता, देशों की सिमटती सीमाएं, रहन-सहन सबका असर तो पड़ता ही है। फिर भी हम भाग्यशाली हैं कि समस्त विडंबनाओं के बावजूद अभी भी हमारे यहा संयुक्त परिवार अस्तित्व में बने हुए हैं। परिवार-बोध बना हुआ है। कुछ अपवादों को छोड़ अभी भी घरों में बड़े-बुजुर्गों का आदर-सम्मान, उनकी देख-रेख, उनकी जरूरतों का ध्यान रखा जाता है। 

ठाकुर जी मेरी बात मानते हुए भी पूरी तरह सहमत नहीं लग रहे थे। बोले, पर पहले वाली बात नहीं रही ! बुजुर्ग हैं घर में, उनकी देख-रेख-पूछ-परख भी होती है। पर अब उनका एकाधिकार नहीं रहा ! हमारे समय में बिना बड़ों की इजाजत के पत्ता तक नहीं हिलता था। कुछ भी करने के पहले उनकी इजाजत जरूरी होती। पर आज महत्वपूर्ण निर्णयों पर उनकी सलाह को अंतिम नहीं माना जाता। उनकी राय भले ही ले ली जाती हो पर अंतिम फैसला घर को चलाने वाले का  होने लगा है। कई बार तो कोई निर्णय लेने के बाद सिर्फ उन्हें बताना ही काफी समझा जाने लगा है। कहीं आने-जाने के लिए किसी की इजाजत की जरुरत नहीं समझी जाती, बस उन्हें इत्तला दे दी जाती है ! यह घर-घर की कहानी हो गयी है। 

मुझे अब उनका दर्द समझ में आने लगा था। पर उन्हें समझाने के लिए मुझे उचित शब्द ढूँढने पड़ रहे थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा, ठाकुर साहब; यह तो आप मानेंगे कि समय के साथ नई पीढ़ी समझदार हो गयी है, वह हमसे ज्यादा व्यावहारिक है, उनके पास हमसे ज्यादा बड़े और व्यापक कार्य-क्षेत्र हैं। उनकी सोचने-समझने-निर्णय लेने की क्षमता तीव्र है। अपने ऊपर उन्हें पूरा विश्वास है। हमसे ज्यादा खतरा मोल लेने की क्षमता है। ये अपना अच्छा-बुरा खूब समझती है; तो क्यों न हम अपने-आप को कुछ बदल कर, अपने अहम को किनारे कर, अपने संपूर्ण अनुभवों का उनको लाभ देते हुए उनका सहयोग करें ! बेकार की रोक-टोक ना करते हुए उन्हें अपने तरीके से अपने जीवन को जीने का मौका दें। हां, अपने विचारों से उन्हें जरूर अवगत कराएं।  जिस किसी बात पर आपत्ति हो उस पर आमने-सामने बैठ कर बात करें, घुटते ना रहें। आप यदि अपने गुजरे समय का ही ध्यान करेंगे, जब युवा होते युवक-युवती पर तरह-तरह की रोक-टोक होती थी, जब उन पर शादी-ब्याह के बाद भी तरह-तरह की बंदिशें हुआ करती थीं, यदि वही सब आप अब भी लागू करना चाहेंगे, क्योंकि आप पर वैसा हो चूका है; तब तो यह बदला निकलना हुआ ! ऐसे में तो परिवार में कोई भी खुश या सुखी नहीं रह पाएगा ! आप भी नहीं ! क्योंकि आप भी कहाँ अपने बच्चों को परेशान व तनाव में देख पाएंगे ! इसलिए जहां नई पीढ़ी को पुरानी मान्यताओं, चली आ रही, सही परंपराओं तथा विचारों से ताल-मेल बैठाना पडेगा, क्योंकि वे लोग भी टकराव नहीं चाहते ! वहीँ आप को भी थोड़ा सा बदलाव तो अपने-आप में लाना ही पडेगा। आप तो समझदार हैं, आप ही उदाहरण दिया करते थे कि नम्रता, मृदुता व लचीलापन कभी व्यर्थ नहीं जाते। समय के अनुसार ढलना कोई कमजोरी नहीं है।   

हमारे पर जो लागू हुआ था, जो बीता, भले ही वह अनुशासन के नाम पर हो, हमारी सुरक्षा के लिए उठाए गए कदम हों या समाज का दिखावा हो। हो सकता है उस समय बच्चों के व्यक्तिगत विकास के लिए वही जरुरी समझा जाता रहा हो ! क्योंकि ऐसा तो बिल्कुल ही नहीं माना जा सकता कि हमारे अभिभावकों को हमसे लगाव नहीं था, वे हमारी चिंता नहीं करते थे, हमसे उनका प्रेम नहीं था। हो सकता है कि आज से ज्यादा  हमारी चिंता-फ़िक्र की जाती हो। पर अब परिस्थियाँ, समय, सब में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका है। सोच बदल गयी है, विचार बदल गए हैं तो भी हम वही सब क्यों अपने बच्चों पर थोपना चाहते हैं, खासकर दूसरे घर से आई किसी बेटी पर ! यह क्या हमारी कुंठा है ? हमारी ईर्ष्या है कि जो हमें नहीं मिला वह इन्हें भी नहीं मिले ? यदि हाँ; तो किसके प्रति अपने ही बच्चों के............?  यह सदा ध्यान रखें...बंदिशे चाहे किसी भी रूप में हों, उन्हें कभी भी कहीं भी स्वीकारा नहीं गया है !   

रात घिरने लगी थी। ठाकुर साहब भी कुछ-कुछ तनाव-मुक्त लग रहे थे, जैसे किसी ठोस निर्णय पर पहुँच चुके हों। उन्होंने घडी पर दृष्टि डाली, चाय के लिए शुक्रिया अदा कर उठ खड़े हुए। मैं मंथर गति से उन्हें अपने घर की ओर अग्रसर होते देख रहा था।        

मंगलवार, 13 मार्च 2018

FOGG का फॉगी विज्ञापन

ऐसा ही एक उत्पाद है,  #FOGG नाम का परफ्यूम, जो हट कर विज्ञापन देने के चक्कर में कुछ भी ऊल-जलूल, उटपटांग परोसता रहता है। यह  बात अलग है कि आजकल उल्टी-सीधी चीजें ही ज्यादा पसंद की जाती हैं, भले ही उनमें गुणवत्ता न हो ! इस कंपनी के ताजा विज्ञापन का विषय फिर इंडो-पाक बार्डर है..........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
दुनिया भर में उत्पादनकर्ता अपने अच्छे-बुरे उत्पादनों के लिए विज्ञापनों का सहारा लेते रहते हैं। अब तो लगता है कि उत्पाद से ज्यादा जरुरी विज्ञापन हो गए हैं ! होड़ लगी हुई है कि कैसे उपभोक्ता के दिमाग को कुंद कर उसकी बुद्धि को अपने हित के लिए उपयोग किया जाए ! ऐसा नहीं है कि अच्छे विज्ञापन नहीं बनते पर उनका प्रतिशत, उल-जलूल, भ्रामक व घटिया इश्तिहारों से कम ही है। बाजार को हथियाने की कोशिश में बहुतेरी बार इस अंधी दौड़ में शामिल, दूसरों की बजाए अपने उत्पाद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए विज्ञापन बनाने वाले अपनी हदें पार कर जाते हैं।

ऐसा ही एक उत्पाद है,  #FOGG नाम का परफ्यूम, जो हट कर विज्ञापन देने के चक्कर में कुछ भी ऊल-जलूल, उटपटांग परोसता रहता है। यह  बात अलग है कि आजकल उल्टी-सीधी चीजें ही ज्यादा पसंद की जाती
हैं, भले ही उनमें गुणवत्ता न हो ! इस कंपनी के ताजा विज्ञापन का विषय फिर इंडो-पाक बार्डर है।  सतही तौर या पहली नजर में इसमें कुछ आपत्तिजनक नजर नहीं आता ! पर ध्यान दिया जाए तो कुछ बातें खटकने लायक हैं।

विज्ञापन दिखलाता है कि  कुछ पाकिस्तानी सैनिक, छिप कर सीमा पार कर इधर आ गए हैं ! तभी इन्हें किसी परफ्यूम की खुशबू आती है। जब ये पलट कर देखते हैं तो अपने पीछे एक भारतीय जवान को अपने पर मशीनगन ताने पाते हैं। पकड़े जाने पर भी उन्हें परफ्यूम के बारे में ही जिज्ञासा रहती है बजाए अपने अंजाम के ! इनके पूछने पर भारतीय जवान बताता है
कि उसने फॉग लगाया हुआ है। सरसरी तौर पर इसमें कुछ अटपटा नहीं लगता; पर चोरी-छिपे पाकिस्तानियों का इस तरह सीमा पार कर लेना क्या हमारे जवानों की कार्य-प्रणाली, उनकी क्षमता, उनकी मुस्तैदी पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता, कि उनके होते हुए कोई दुश्मन कैसे सीमा पार कर गया ? क्या भारतीय जवान ऐसा परफ्यूम लगा कर गश्त करते हैं जिसकी खुशबू चारों ओर  महकती हो ? यदि कभी यही जवान पाक की सीमा पार करेंगे तो इनकी उपस्थिति तो दुश्मनों को परफ्यूम से ही पता चल जाएगी, बिना किसी मशक्कत के !
क्या इस ओर #रक्षामंत्रालय या #सेनाध्यक्ष महोदय का ध्यान गया होगा ?

@फोटो अंतर्जाल के सौजन्य से 

गुरुवार, 8 मार्च 2018

अरे ! अब तो जागो, आधा विश्व हो तुम !!

एक ऐसे समाज को, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है, किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का ? कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों ? क्या ये कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है  ? यदि ऐसा है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता ? पर सभी खुश हैं ! विडंबना यह है कि वे और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है ! समाज के इस महत्वपूर्ण हिस्से को इतना चौंधिया दिया गया है कि कुछेक को छोड़ वे अपने प्रति होते अन्याय, उपेक्षा को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं........
#हिन्दी_ब्लागिंग 
आज #आठ_मार्च है, #महिलाओं _को_समर्पित_एक_दिन ! उन महिलाओं को जो विश्व का आधा हिस्सा हैं ! उन्हें बराबरी का एहसास करवाने, अपने हक़ के लिए जागरूक करने का दिन। पर सोचने की बात है कि क्या                                                                                                                                     
संसार का यह आधा भाग इतना कमजोर है कि उस पर किसी विलुप्त होती नस्ल की तरह ध्यान  दिया जाए ! सबसे बड़ी बात, क्या सचमुच पुरुष केंद्रित समाज महिलाओं को बराबरी का हकदार मानता है ? क्या वह दिल से चाहता है कि ऐसा हो, या सिर्फ उन्हें मुगालते में रखने का नाटक है ?  क्या यह पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन उनको समर्पित कर दिया जाए ?  वैसे ऐसे समाज को, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है उसे किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का ? कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों ? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है ? यदि ऐसा है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता ? पर सभी खुश हैं ! विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।

आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। कभी हनुमान जी को उनकी शक्तियों की याद दिलाने में जामवंत ने सहायता की थी ! पर आज कोई भी ऐसा करने वाला नहीं है ! उन्हें खुद ही प्रयास
करने होंगे, खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी, खुद को ही सक्षम-सशक्त बनाना होगा !  हाँ,  कुछ तो बर्फ टूटी है पर गति बहुत धीमी है, ऐसे में तो वर्षों-वर्ष लग जाएंगे ! क्योंकि यह इतना आसान नहीं है ! हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन उन्हें परोस कर अपना मतलब साधा जाता है। 

पहले तो उन्हें यह निश्चित करना होगा कि उनका लक्ष्य क्या है ! उन्हें क्या चाहिए ! सिर्फ मनचाहे कपडे पहनने और कहीं भी कुछ भी बोल सकने की छूट, ध्येय नहीं होना चाहिए है, वह भी सिर्फ बड़े शहरों में ! दूर-
दराज के गांवों-कस्बों में आज भी कुछ ज्यादा नहीं बदला है। आश्चर्य होता है, इस और ध्यान ना देकर इस दिन वे कुछ, अपने आपको प्रबुद्ध, आधुनिक व खुद को महिलाओं का संरक्षक मान बैठी तथाकथित समाज सेविकाएं जो खुद किसी महिला का सरे-आम हक मारे बैठी होती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए,  आरामदेह वातानुकूलित कक्षों में कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाती हैं।  

आज पुरुष केंद्रित समाज ने अपने इस महत्वपूर्ण हिस्से को इतना चौंधिया दिया है कि कुछेक को छोड़, वे अपने प्रति होते अन्याय, उपेक्षा को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की, अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की, अपने सोए हुए जमीर को जगाने की....और यह सब उसे खुद ही करना है ! आसान नहीं है यह सब, पर करना तो पड़ेगा ही.......! 

गुरुवार, 1 मार्च 2018

अनहोनी के डर से यहां कोई होली नहीं मनाता !

जहां कानपुर के झिंझक इलाके के ग्राम रामनगर के निवासी खुद को होलिका का वंशज मानते हुए और उसके साथ घटी घटना को अन्याय मानने के कारण होली नहीं मनाते। वहीँ इसके अलावा झारखंड-प्रदेश के बोकारो जिले के दुर्गापुर तथा वहीं के गुण्डरदेही के एक ग्राम चंदनबिरही; कोरबा, छत्तीसगढ़, के धमनागुड़ी तथा खरहरी ग्रामों के निवासी अपनी अलग-अलग मान्यताओं और कारणों की वजह से होली के पर्व से दूर रहते हैं................!
#हिन्दी_ब्लागिंग
अभी जहां पूरा देश अपने सबसे बड़े पर्वों में से एक होली के खुमार में डूबा हुआ है, वहीँ कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहां वर्षों से लोगों ने  इस त्यौहार को नहीं मनाया है। मौज-मस्ती की जगह इस दिन यहां सन्नाटा पसर जाता है, मनहूसियत छा जाती है, चिंता व डर का माहौल बन जाता है।  ऐसी ही एक जगह है,  झारखंड प्रदेश  के  बोकारो 
जिले का करीब 9 हजार की आबादी वाला दुर्गापुर गांव, जो राजधानी से लगभग 100 किलोमीटर दूरी पर खांजो नदी के पास, पहाड़ी की तलहटी में बसा हुआ है। इस गांव के लोग होली पर खुशियां नहीं मनाते, रंगों को हाथ तक नहीं लगाते, क्योंकि एक दशक के ऊपर से चली आ रही एक मान्यता के अनुसार उन्हें डर है कि ऐसा करने से गांव को आपदा या महामारी का प्रकोप झेलना पड़ जाएगा।

इसके पीछे की कथा के अनुसार इस जगह को राजा दुर्गादेव ने बसाया था और उन्हीं का राज था। उस समय सब तीज-त्यौहार मनाए जाते थे। पर कुछ समय बाद राजा के बेटे की होली के दिन ही मौत हो गई। उसके बाद जब भी गांव में होली का आयोजन होता था यहां कभी भयंकर सूखा पड़ जाता था या फिर महामारी का सामना करना पड़ता था, जिससे गांव में कई लोगों की मौत हो जाती थी। फिर एक बार होली के ही दिन पास के इलाके रामगढ़ के राजा दलेल सिंह के साथ हुए युद्ध में राजा दुर्गादेव की भी मौत हो गयी जिसकी खबर सुनते ही रानी ने भी आत्म ह्त्या कर ली ! कहते हैं अपनी मौत से पहले राजा ने आदेश दिया था कि उसकी प्रजा कभी होली न मनाए। तब से उसी शोक और आदेश के कारण यहां के लोगों ने होली मनानी छोड़ दी। 

समय बदला तो कुछ लोगों ने त्यौहार के दिन खुशियां मनाने की कोशिश की तो कुछ बीमार पड़ गए तो कुछ की मौत हो गयी, फिर पहाड़ी पर जा पूजा-अर्चना की गयी जिससे शांति लौटी। उस घटना ने लोगों के दिलों में
इस कदर भय पैदा कर दिया कि आज की युवा पीढ़ी भी राजा के भूत के डर से होली खेलने से कतराती है। एक बार इसी दिन बाहर से आए कुछ मछुआरों ने परंपरा तोड़ी तो गांव में महामारी का प्रकोप फ़ैल गया ! इन सब कारणों से यहां इतना भय है कि दुर्गापुर से लगे अन्य गांवों के ग्रामवासी भी डरते हैं, होली मनाने से। अब इसे अपने राजा के प्रति श्रद्धा कहा जाए, विश्वास माने या फिर अंधविश्वास ! लेकिन इसकी जड़े इतनी गहरी हैं कि यहां से बाहर जाकर काम करने वाले लोग भी अपने घरों में रंग नहीं खेलते। यहां तक की उनके ऊपर फेंके गए रंग का वो जवाब भी नहीं देते हैं। 

कुछ गांव वालों का कहना है कि समय के साथ यहां के लोग भी बदल रहे हैं और अब यहां के युवा दुर्गापुर से बाहर जाकर होली मनाने लगे हैं। एक स्थानीय ने बताया कि जो लोग होली मनाना चाहते हैं वे गांव छोड़कर दूसरे गांव में जा कर अपने परिचितों के साथ होली मनाते हैं।
*चित्र अंतर्जाल से 

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