मंगलवार, 27 मार्च 2018

तम्बोला, हाउजी या बिंगो...खेल या जुआ !

अपने यहां सार्वजनिक रूप से मेले-ठेले या होली-दिवाली मिलन पर इसका आयोजन तो फिर भी समझ में आता है पर अभी पिछले दिनों  "हिंदू नव वर्ष" समारोह में इसे आयोजित होते देख, पता नहीं कुछ अजीब सा क्यों लगा !  हालांकि खेल मजेदार है, उत्सुकता, मनोरंजन, एकाग्रता, रोमांच, तत्परता, सरलता सभी कुछ समेटे हुए है ! पर पैसे दांव पे लगे होने से जूए का ही एक स्वरुप नहीं बन गया है.... ?
#हिन्दी_ब्लागिंग
तम्बोला, हाउजी या बिंगो, एक ही "बोर्ड खेल" के विभिन्न नाम। जो दुनिया भर में और भी नामों से खेला और पसंद किया जाता है। वैसे तो यह आयातित खेल वर्षों से हमारे यहां भी खेला जा रहा है, पर इधर कुछ सालों से इसकी लोकप्रियता दिन दूनी  रात चौगुनी बढ़ी है और अभी भी बढती ही जा रही है। पहले यह कहीं-कहीं क्लब
या पार्टियों  वगैरह में खेला जाता था। पर अब यह महिलाओं की "किटी पार्टियों" का एक आवश्यक अंग बनने के साथ-साथ मेले-ठेले-उत्सवों इत्यादि में भी अपनी पैठ बना चुका है। इसकी लोकप्रियता का कारण इसका रोमांचक स्वभाव, संभावना-युक्त और सरल होना है जिसके कारण कोई बच्चा भी इसे खेल सकता है।  

पर्ची या टिकट 
ऐसा माना जाता है कि इस खेल की ईजाद इटली में हुई थी। जहां से यह सारे विश्व में फ़ैल गया। उस समय इसे परिवार को एकजुट  खेल बतला कर प्रचारित किया गया था। पहले मौज-मस्ती के लिए इसे क्रिसमस के दौरान भी खेला जाता था और जीतने वाले को इनाम मिलता था। धीरे-धीरे इसका स्वरूप बदलता गया और अब यह पैसों से खेला जाने लगा है। दुनिया भर में यह कई तरह से खेला जाता है पर मूल पद्यति एक जैसी ही होती है। 

अपने यहां खेले जाने वाले इस खेल के दो भाग हैं ! एक तो खेलने वाले, जिनकी संख्या कुछ भी हो सकती है, उन्हें एक पर्चीनुमा टिकट मिलता है जिसकी तीन पंक्तियों में एक से नब्बे तक के अंकों में से कोई पंद्रह अंक,
हर पंक्ति में पांच के हिसाब से छपे होते हैं। दूसरा भाग खिलवाने वाले का होता है जिसमें एक या दो जने होते हैं।
उनके पास एक बोर्ड, जिसमें सिलसिलेवार एक से नब्बे अंकों से अंकित खाने बने होते हैं तथा एक कटोरेनुमा बर्तन होता है, कई जगह एक घूमने वाला यंत्र भी उपलब्ध होता है, जिसमें एक से नब्बे तक के अंकित छोटे-छोटे
नंबर वाले गुटके 
"डायस" या गोले होते हैं। खेल शुरू होने के पहले प्रत्येक खेलने वाले को एक निश्चित दर पर पर्ची बेचीं जाती है तथा संग्रहित पैसों से जीतने के विभिन्न मानक तय कर दिए जाते हैं और पूरी राशि को विभिन्न मानकों में बाँट दिया जाता है। जैसे किसी भी पंक्ति के पाँचों नंबर कट जाने पर कुछ राशि, पर्ची पर के किनारे के चारों नंबर कटने पर कुछ राशि, जिस खिलाड़ी के सबसे पहले पांच अंक कट जाएं उसे कुछ राशि इत्यादि। उसके बाद जिस खिलाड़ी के सबसे पहले पूरे पंद्रह यानी सारे नंबर कट जाएं, जिसे "फुल हाउस" कहा जाता है, उसे विजेता माना जाता है और सबसे ज्यादा राशि उसी को मिलती है।   

बोर्ड 
खेल शुरू  होने पर खिलवाने वाला व्यक्ति  कटोरे में  से बिना  देखे एक  नंबर उठा, उसे सबको बतला कर बोर्ड में बने उसी नंबर की जगह में रख देता है। खेलने वाले की पर्ची में यदि वह नंबर हो तो वह उसे काट देता है नहीं तो अगले अंक का इंतजार करता है।  इसी तरह खेल तब तक चलता रहता है जब तक किसी का फुल हाउस ना हो जाए। फुल हाउस होने पर खिलाड़ी को अपनी पर्ची खिलवाने वाले को पेश करनी पड़ती है जो अपने बोर्ड से उसके नंबर मिला जीत निश्चित करता है। यदि कहीं चूक हुई होती है तो वह पर्ची "बोगी" कहलाती है और खेलने वाला बाहर हो जाता है।
नंबर निकलने वाली मशीन 

वैसे तो खेल मजेदार है, उत्सुकता, मनोरंजन, एकाग्रता, रोमांच, तत्परता, सरलता सभी कुछ समेटे हुए है ! पर पैसे दांव पे लगे होने से जूए का ही एक
स्वरुप बन गया है। अपने यहां सार्वजनिक रूप से मेले-ठेले या होली-दिवाली मिलन पर इसका आयोजन तो फिर भी समझ में आता है पर अभी पिछले दिनों "हिंदू नव वर्ष" समारोह में इसे आयोजित होते देख, पता नहीं कुछ अजीब सा क्यों लगा !    

2 टिप्‍पणियां:

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरु अंगद देव और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हर्ष जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक धन्यवाद

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