मंगलवार, 30 जनवरी 2018

संस्कारी बहू

यह काल्पनिक कहानी नहीं है, बल्कि यथार्थ में घटित प्रकरण से प्रेरित एक सत्य कथा है जो हसने की बजाय  सोचने पर ज्यादा मजबूर करती है ! आज की पीढ़ी का आभासी संसार से लगाव उन्हें जानकारी से तो भरपूर करता है पर ज्ञान के रूप में सब शून्य बटे सन्नाटा ही नजर आता है......    

नौकरी लगते ही चंदन, जिसे घर में सबसे छोटा होने के नाते सब छोटू पुकारते थे, की शादी कर दी गयी। घर में सोहनी-सुलक्खिनी-गूगल ज्ञान से भरपूर बहू आ गयी। साथ ही ले आई अपने मायके की ढेरों अच्छाइयों की फेहरिस्त ! एक दिन अपनी सास के सामने बैठी अपने संस्कारों का बखान कर रही थी; मम्मी जी, हमारे यहां सभी को आदर के साथ बुलाने की सीख दी गयी है। जी,  हांजी के बिना हमारे यहां कोई बात नहीं करता। हम तो अपने ड्रायवर को भी काका कह कर बुलाते हैं। दूध वाले को भइया जी कहते हैं। हम ना, अपनी काम करने वाली आया को भी अक्कू कह कर बुलाते हैं। पापा ने यही सिखाया है कि किसी का नाम ना लिया जाए, सभी को इज्जत से पुकारा जाए, इसीलिए हम अपने पेट्स को भी प्यार से पुकारते हैं, भूल से भी डॉगी को डॉगी नहीं कहते; पप्पीज कहते हैं।
  
इतने में घडी ने सात बजा दिए, बहू चौंकी ! ओ, शिट....सात बज गए ! ये छोटू भी न, पता नहीं कहाँ रह गया ! आफिस तो छह बजे बंद हो जाता है; पता नहीं कहां  मटरगश्ती करता रहता है ! बताया था कि आज बुआ जी ने बुलाया है, उनके यहां जाना है ! पर इडियट को ध्यान ही नहीं रहता किसी बात का ! रेक्लेस फेलो !! मम्मी जी संस्कारी और एटिकेटेड बहू का मुंह, मुंह खोले ताक रही थीं !   

मुंह तो मैं भी ताक रहा था, पिछले दिनों रायपुर से दिल्ली ले आती, पल-पल लेट होती गाडी में, अपनी सहयात्री 30-32 साला युवती का ! जिसे ना गाडी के समय का पता था, न उसके देर से चलने का और ना हीं उसके रूट वगैरह का, नाहीं आस-पास के माहौल का ! कानों में मोबाइल के प्लग लगाए, बीसियों घंटों से उसी में मशगूल। चिप्स जैसे दो-तीन पैकेट जरूर खाली हुए थे पर अपनी सेहत के प्रति कुछ ज्यादा ही जागरूक रहने वाली इस पीढ़ी की प्रतिनिधी को पानी का एक भी घूँट गले के नीचे उतारते नहीं देखा गया था। 

अब तक  गाडी पांच घंटे लेट हो चुकी थी। तभी उन्होंने पास से गुजरते बिरयानी बेचते लड़के से पूछा, भइया बिरयानी गरम है ? उसने जवाब दिया, मैडम ठीक है; एकदम गरम तो नहीं मिल पाएगी ! ताजा सामान तो चढ़ नहीं रहा, जो है वही बेच रहे हैं। ले लीजिए, नहीं तो यह भी ख़त्म हो जाएगा, गाडी तो चार बजा देगी दिल्ली पहुंचते-पहुंचते ! युवती चौंकी !! चार ? इसके तो एक बजे पहुँचने की बात है ! लड़का हंसा, क्या मैडम ! सवा बारह तो यहीं बज गए हैं और ट्रेन ठीक से चल भी नहीं रही है। चार बजे भी पहुँच जाए तो बहुत है। कुछ-कुछ परिस्थिति को समझते हुए बिरयानी खरीदी गयी और खाई गयी। 

कुछ देर बाद गाडी ने आगरा को पीछे छोड़ा ही था कि उन्हें गाडी की स्थिति वगैरह जानने को किसी रिलेटिव का फोन आया कि कहाँ हो इत्यादि, तो उस ज्ञानवान ने पूरी तत्परता, गंभीरता और विश्वास के साथ कह दिया, हाँ चार घंटे लेट है; अभी हरियाणा क्रॉस की है !! आस-पास के लोगों के चेहरे पर इस लाल-बुझ्झकड़ी उत्तर से मुस्कान फ़ैल गयी। फोन करने वाला भी बेहोश हो गया होगा ! अरे, तुम क्या सड़क मार्ग से जा रही हो तत्परता और विश्वास ? नहीं पता है तो साफ़ बतलाओ कि अभी पता नहीं है कि कहाँ हूँ ! किसी स्टेशन के निकलने पर बताती हूँ। पर यह पीढ़ी अपने को अज्ञानी सिद्ध नहीं होने देना चाहती भले ही मूर्ख साबित हो जाए !

आखिरकार नौ घंटों बाद गाडी ने सफदरजंग पहुँचाया। सोच रहा था कि यदि उन मोहतरमा को पेंट्री वाले लड़के ने बिरयानी ना खिला दी होती तो शायद उन्हें यहां उतरना नहीं, उतारना पड़ता !! 

शनिवार, 13 जनवरी 2018

कुछ और भी कारण हैं मकर संक्रांति के विशेष होने के

सूर्यदेव के उत्तरायण होने के अलावा और भी बहुतेरे कारण हैं जिनकी वजह से मकर संक्रांति का दिन महत्वपूर्ण माना जाता है। भले ही नाम और रूप अलग-अलग हों पर यह शायद अकेला त्यौहार है जो सर्वमान्य रूप से पूरे देश में मनाया जाता है। वैसे भी पर्व और त्यौहार हमें आपस में मिल-जुल कर रहने का संदेश देने के लिए ही तो बनाए गए हैं...... 
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हमारा देश पर्वों और त्योहारों का देश है और हम उत्सव धर्मी हैं। हमारे सभी त्योहार अपना विशेष महत्व रखते हैं। लेकिन मकर संक्रांति का धर्म, दर्शन तथा खगोलीय दृष्ट‌ि से विशेष महत्व है। ज्योत‌िष और शास्‍त्रों में हर महीने को दो भागों में बांटा गया है, कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष।  जो चन्‍द्रमा की गत‌ि पर न‌िर्भर करता है।  इसी

तरह वर्ष को भी दो भागों  में बांटा गया है, जो उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। यह सूर्य की गति पर  न‌िर्भर होता है। मकर संक्रांति के दिन से सूर्य धनु राशि से मकर राश‌ि में प्रवेश कर उत्तर की ओर आने लगता है। दिन बड़े होने लगते हैं। धरा को सर्दी से छुटकारा मिलने लगता है। इसी दिन से बसंत ऋतु का आगमन माना जाता है। फल-फूल पल्लवित होने लगते हैं। प्रकृति खुशहाल लगने लगती है। फसल घर आने से किसान भी खुशहाल हो जाते हैं। जानवरों के लिए ठंड ख़त्म हो जाने के कारण चारे की कमी भी नहीं रहती। इसी लिए प्रभू को धन्यवाद देने लोग स्नान-ध्यान कर इकठ्ठा हो अपनी ख़ुशी मनाते हैं। इस समय को किसी न किसी रूप और नाम से पूरे देश में मनाया जाता है। जैसे तमिलनाडुआंध्र प्रदेश में पोंगल। कर्नाटक, केरल, राजस्थान, बंगाल में 'संक्रांति'। हिमाचल-हरियाणा-पंजाब में 'लोहड़ी'। उत्तर प्रदेश, बिहार में 'खिचड़ी' या 'माघी'। महाराष्ट्र में 'हल्दी-कुमकुम' और असम में बिहू’ कहते हैं। चाहे इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हों, किंतु यह हमारे देश का एक सर्वमान्य व महत्वपूर्ण पर्व है। 

मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य अपने फर्ज को निभाने और दुनियां को यह समझाने कि बाप-बेटे में कितनी भी अनबन क्यों ना हो रिश्ते तो रिश्ते ही रहते हैं, अपना क्रोध त्याग, अपने पुत्र  शनि की राशि मकर में प्रवेश कर उनका भंडार भरते हैं। इससे उनका मान घटता नहीं बल्कि और भी बढ़ जाता है। इसीलिए इस दिन को
पिता-पुत्र के संबंधों में निकटता की शुरुआत के रूप में देखा जाता है। इस अवधि को विशेष शुभ माना जाता है और सम्पूर्ण भारत में मकर सक्रांति का पर्व सूर्य उपासना के रूप में मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करते ही सूर्य का उत्तरायण प्रारंभ हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्री तथा उत्तरायण को उनका दिन माना गया है इसलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रिया-कलापों को विशेष महत्व दिया जाता है|
   
सूर्य के उत्तरायण होने के अलावा और भी कई कारणों से यह दिन महत्वपूर्ण माना जाता है। भगवान कृष्ण ने गीता में भी सूर्य के उत्तरायण में आने का महत्व बताते हुए कहा है कि इस काल में देह त्याग करने से पुर्नजन्म नहीं लेना पड़ता और इसीलिए महाभारत काल में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण में आने पर ही देह त्याग किया था। ऐसा माना जाता है कि सूर्य के उत्तरायण में आने पर सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पूरी तरह से पड़ती है और यह धरा प्रकाशमय हो जाती है। इस दिन लोग सागर, पवित्र नदियों व सरोवरों में सूर्योदय से पहले स्नान  करते हैं और दान इत्यादि कर पुण्य-लाभ प्राप्त करते हैं। 
गंगा सागर 
प्रकृति की इस अनोखी करवट के अलावा भी इस दिन कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं। पुराणों के अनुसार भगवान राम के पूर्वज व गंगा को धरती पर लाने वाले राजा भगीरथ ने इसी दिन अपने पूर्वजों का तिल से तर्पण किया था। तर्पण के बाद गंगा इसी दिन सागर में समा गई थीं। इसीलिए इस दिन गंगासागर में मकर संक्रांति के दिन मेला लगता है।

इसी दिन भगवान विष्णु और मधु-कैटभ युद्ध समाप्त हुआ था और प्रभू मधुसूदन कहलाने लगे थे। 

माता दुर्गा ने इसी दिन महिषासुर वध करने के लिए धरती पर अवतार लिया था। 



मकर सक्रांति तब ही मनाई जाती है जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। सूर्य का प्रति वर्ष धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश बीस मिनट की देरी से होता है। इस तरह हर तीन साल के बाद यह क्रिया एक घण्टे की देर यानी बहत्तर साल में एक दिन की देरी से संपन्न होती है।  इस तरह देखा जाए तो लगभग एक हजार साल पहले मकर सक्रांति 31 दिसम्बर को मनाई गई होगी। पिछले एक हजार साल में इसके दो हफ्ते आगे खिसक जाने से यह 14 जनवरी को मनाई जाने लगी। अब सूर्य की चाल के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा हे कि पाॅंच हजार साल बाद मकर सक्रांति फरवरी महीने के अंत में जा कर हो पाएगी। 

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

फिल्मों को जरुरत है, स्वस्थ दिलो-दिमाग वाले निर्माताओं की

आज एक फिल्म अपनी शुद्ध, भदेश गाली-गलौच वाली भाषा के कारण सुर्ख़ियों में है, जिसके निर्माता का दावा है कि  "स्लैंगी लैंग्वेज समाज की सच्चाई है" ! उसके अनुसार आज के समाज में ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल होता है और आज का दर्शक इसी को पसंद करता है। पता नहीं वह किस समाज में और किन लोगों से घिरा रहता है जो उसकी ऐसी धारणा बन गयी है। फिल्म का तो जो भी हश्र होना होगा, होगा; आवश्यकता है ऐसे लोगों की सोच में बदलाव की.......
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कोई भी विधा मनुष्य, देश, समाज के लिए तभी उपयोगी या फलदाई होती है जब वह सही हाथों में हो। विकृत सोच तो अर्थ का अनर्थ ही करेगी। ऐसा ही एक सशक्त माध्यम है फ़िल्में; जो भारतीय अवाम पर गहरा असर डालती रही हैं। हमारे यहां इस विधा के एक से बढ़ कर एक जानकार रहे हैं,  जिन्होंने समय-समय पर जनता को बिना किसी खौफ और दवाब के मनोरंजक तरीके से उद्वेलित करने का कारनामा किया है। आज वर्षों बीत जाने के बावजूद लोग बिमल रॉय, शांताराम, राजकपूर, सत्यजीत रे, हृषिकेश मुखर्जी, ताराचंद, बासु चटर्जी, बी आर चोपड़ा जैसे फिल्मकारों को, पचासों साल बीत जाने के बाद भी लोग भुला नहीं पाए हैं। आज भी कुछ लोग हैं जो इस विधा की गरिमा बनाए रखने को लेकर कटिबद्ध हैं। पर इसके साथ ही इस माध्यम से अथाह पैसा बनाने की चाहत कुछ ऐसे तिकड़मी लोगों को भी खींच लाई है। जिनका साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरह एक मात्र उद्देश्य धनोपार्जन होता है। उनको ना हीं समाज से मतलब है ना हीं युवाओं के पथ-भ्रष्टन से ! अपनी विकृत मानसिकता, ओछी सोच, को ही वे अपनी निपुणता मानते हैं। उनके लिए किसी तरह की बंदिश कोई मायने नहीं रखती, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वे कुछ भो उगलने को तैयार रहते हैं, फिर वह चाहे विवादित पट-कथा हो, अश्लील संवाद हों या वैसे ही दृश्य, चाहे वीभत्स खून-खराबा हो या शुद्ध भदेस गाली-गलौच ! गुणवत्ता
तो गयी भाड़ में ! उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि, इसका असर बच्चों या किशोरों पर क्या पडेगा ! परिजन
सपरिवार एक साथ बैठ ऐसी फिल्म देख पाएंगे कि नहीं ! उन्हें मतलब होता है राष्ट्रीय अवकाश या फिर सप्ताहंत के तीन दिनों की कमाई से। इसके लिए उनकी आपसी सर-फोड़ी की ख़बरें आजकल आम होती हैं। कुछ जान-बूझ कर ऐसा विषय चुनते हैं जिस पर सौ प्रतिशत हंगामा होना तय हो। इसके लिए वे तरह-तरह के विवाद पहले से ही खड़े करने लगते हैं, जिसके लिए आजकल विशेषज्ञ भी उपलब्ध हैं, जिनका काम ही होता है लंगड़ी-लूली फिल्म में विवाद की बैसाखी लगाने का। कोई इतिहास में टंगड़ी फंसाता है, तो कोई भाषा का क्रिया-कर्म करने पर उतारू हो जाता है, कोई आस्था-मान्यता से खिलवाड़ करने लगता है तो कोई जनमत की भावनाओं को दांव पर लगा देता है। कोई किसी नेता की छवि को धूमिल करने की बेजा कोशिश करता है तो कोई किसी के चरित्र को लांछित करने का कुप्रयास। आज फ़िल्में सिनेमा हॉल में नहीं बाहर सड़कों पर ही मनोरंजन करने का साधन बन गयी हैं। पर जब लोग उन्हें नापसंद कर देते हैं, नकार देते हैं, तो ऐसे बद-दिमाग लोग अपनी गलती ना मान दर्शकों के ही नासमझ  होने का दावा करने लगते हैं।  

सीधी सी बात यह है कि आज के तथाकथित फिल्म निर्माता को अपने पर बिलकुल भरोसा नहीं है। ज्यादातर
को इस विधा के किसी भी पहलू का पूरा ज्ञान भी नहीं होता। तिकड़म से इकठ्ठा किया गया धन, किसी बड़े स्टार की कुछ डेट का इंतजाम कर फिल्म बनानी शुरू कर दी जाती है। अधिकाँश वर्षों पहले की दो-चार फिल्मों का घालमेल या उनका "रि-मंचन" या फिर  विदेशी चल-चित्रों का हिंदी रूपांतर होता है। यदि कहीं बिल्ली के भाग  छीका टूट जाता है तो मीडिया में जबरदस्त प्रचार कर वह अपने आप को क्रांतिकारी फिल्म-मेकर के रूप में प्रचारित करवा आगे और ब्लंडर करने को तैयार हो जाता है।  

पहले के फिल्म निर्माता की अपनी शैली होती थी, अपनी पहचान होती थी, अपना "ब्रांड" होता था, हरेक का अपना ढंग होता था, स्तर होता था, पूरी विधा पर  पकड़ होती थी। समर्पित थे वे लोग कला के प्रति ! उनकी दो-तीन साल में आने वाली फिल्मों का लोग बेसब्री से इंतजार किया करते थे। उस समय नामी-गिरामी फिल्म निर्माताओं की फ़िल्में कई बार एक साथ रिलीज होती थीं और खूब पसंद की जाती थीं। हरेक को अपनी क्षमता
पर पूरा भरोसा होता था, इसीलिए उनमें से किसी को किसी "क्लैश" का डर नहीं होता था। दस-बीस रुपए की कीमतों वाली 800-900 सीटों वाले एक हॉल में पच्चीस-पचास हफ्ते चलने के बाद सिल्वर या गोल्डन जुबली कहलाती थीं, और आज भी याद की जाती हैं। ऐसा नहीं था कि उस समय स्तर-हीन फ़िल्में नहीं बनती थीं, पर उनकी संख्या कम ही होती थी। 

ऐसा नहीं है कि सब कुछ निराशा जनक हो गया हो; आज भी इस विधा के निष्णात लोग कटिबद्ध हैं इस माध्यम को  नई-नई ऊंचाईंयों तक पहुंचाने के लिए। आज पहले से ज्यादा सुविधाएं, सुरक्षा, तकनीकी उपलब्ध हैं, जिससे गुणवत्ता भी बढ़ी है। फिल्म बनने में अब सालों नहीं लगते। संसार भर में हमारी फ़िल्में नाम कमा रही हैं। इस माध्यम से जुड़े लोगों की पूछ-परख विभिन्न देशों में होने लगी है। 

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

यह अवसाद है या प्रकृति का इशारा, निःस्पृहता के लिए ?

जब साठ-सत्तर की उम्र के बाद, हर सुख, सुविधा, उपलब्धि, निरोगिता के बावजूद मन उचाट रहने लगे, डाक्टरी भाषा में अवसाद जैसी स्थिति बनी रहने लग जाए ! तो क्या यह कहीं प्रकृति का संकेत तो नहीं, कि अब पानी में तेल की बूँद हो जाने का समय आ गया है। धीरे-धीरे अपने आप को निःस्पृह कर वानप्रस्त अपनाने का इशारा हो उसकी तरफ से......... 
#हिन्दी_ब्लागिंग 
कभी-कभी हर सुख, सुविधा, उपलब्धि, निरोगिता के बावजूद मन उचाट हो जाता है। बिना किसी मतलब, नाखुशी या कारण के। तब ना किसी से बात करने की इच्छा होती है, ना ही कोई काम करने की, ना पुस्तकें सुहाती हैं, ना हीं कोई मनोरंजन ! बस चुप-चाप, गुम-सुम, अपने में लीन। जैसे जिंदगी से रूचि खत्म हो गयी हो ! 

छोटी उम्र में या आयु के पचास-साठ वर्षों तक, जब जीवन में ढेरों जिम्मेदारियां होती हैं, परिवार का भार होता है, तब किसी असफलता के कारण कुछ देर के लिए मन ऐसा हो जाता है तो वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।  वैसी स्थिति यदि लंबी खिचने लगे, तो डॉक्टर इसे अवसाद कहते हैं। गौर तलब है कि अनेकों कारण गिनाने के बावजूद इसके किसी निश्चित व ठोस कारण का अभी तक पता नहीं चल पाया है। पर ऐसी स्थिति जब साठ-सत्तर की उम्र के बाद होने लगे तो क्या यह प्रकृति का संकेत तो नहीं, कि अब पानी में तेल की बूँद हो जाने का समय आ गया है। धीरे-धीरे अपने को निःस्पृह कर वानप्रस्त अपनाने का इशारा हो उसकी तरफ से !  

हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य की भलाई के लिए जो भी नियम-कायदे बनाए थे, वे सब उनकी विद्वता, दूरदर्शिता तथा गहन अनुभवों का निचोड़ था। उनका भले ही आजकल के नीम-ज्ञानी मखौल बना कर अपनी अल्प बुद्धि का प्रदर्शन करते हों, पर वे आज भी हमारा मार्ग-दर्शन करने का पूरा माद्दा रखते हैं। उनके द्वारा जीवन की अवधि 100 साल मान कर उसे 25-25 वर्षों के चार भागों में बांट, ब्रह्मचर्य, ग्रृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का नाम दिया गया था। जो हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था थी। 
उम्र के प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और ‍बुद्धि विकसित होते हैं, इसलिए उसे संयमी और अनुशासित रह कर भविष्य की जिम्मेदारियों के लिए तैयार किया जाता था। फिर 25 से 50 वर्ष की आयु में शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी मिल कर पारिवारिक व सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते थे। इसके बाद अधेड़ावस्था की 50 से 75 तक की आयु में गृहस्ती से मुक्त हो जनसेवा, धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान का विधान है। इसे वानप्रस्थ कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त हो व्यक्ति को एकांतवासी हो, प्रभु से लौ लगाने की चेष्टा करने का विधान रखा गया था, जिसे सन्यास आश्रम का नाम दिया गया। भले ही इसे प्रभू से जोड़ा गया हो पर वास्तव में इसका उद्देश्य यह रहा होगा कि परिवार से, समाज से अलग रहने पर मनुष्य की मोह-माया कुछ कम हो सके जिससे उसके जाने पर, पीछे छूटे उसके सगे-संबंधियों को उसकी विदाई, उसका विछोह उतना कष्ट ना दे पाए जितना साथ रहते हो सकता है। 

आश्रमों का निर्धारण यूँ ही नहीं किया गया या निर्धारित कर दिया गया था, बल्कि इसके पीछे वर्षों के अनुभव, परिक्षण, शोध, प्रयोग तथा परिणामों का वैज्ञानिक आधार था। मनुष्य के स्वभाव, उसके मनोविज्ञान, उसकी अपेक्षाओं, उसके कर्तव्यों, उसकी आवश्यकताओं तथा उसकी क्षमताओं को देखते हुए सारी व्यवस्था की गयी थी। आज हम सिर्फ उसका शाब्दिक अर्थ ले उसे दरकिनार कर देते हैं जबकि उन पर आज भी अमल किया जाए तो मनुष्य, समाज व देश लाभान्वित हो सकते हैं। 

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

नेता पिटने लगे हैं....!

ऐसे लोगों में  लियाकत तो होती नहीं, इसलिए उन्हें सदा अपना  स्थान खोने की  आशंका बनी रहती है।  इसी  आशंका के  कारण  उनके दिलो - दिमाग में क्रोध  और  आक्रोश ऐसे  पैवस्त हो जाते हैं  कि  उन्हें  हर आदमी  अपना  दुश्मन और  दूसरे की  ज़रा  सी विपरीत बात अपनी   तौहीन लगने लगती है। ऐसे लोग  ओछी हरकतें करने से भी बाज नहीं आते।  मदांधता में इन्हें जनाक्रोश भी दिखाई नहीं देता........

जैसे ही मनुष्य को सत्ता, धन, बल मिलता है, उसका सबसे  पहला असर उसके  दिमाग पर ही होता है। अपनी शक्ति के नशे में अंधे हो जाना  आम बात  हो जाती है।  उसे  अपने  सामने हर कोई  तुच्छ कीड़ा - मकोड़ा नज़र आने लगता है। सैकड़ों साल पहले तुलसीदास जी ने कह दिया था  कि समय  के साथ भले  ही लोगों के स्वभाव में, उनके विचारों में, उनके रहन-सहन में, कितने भी बदलाव आ जाएं पर मदांधता का स्वभाव कभी नहीं बदल पाएगा। 

देश की जनता का एक बहुत बडा प्रतिशत नेताओं व उनके चमचो  से असंतुष्ट है।   उनकी असलियत भी जनता जानने लग गयी है।  आज अंतिम सिरे पर खडा इंसान भी कुछ - कुछ जागरुक हो गया है। वह भी जानने लगा है कि  अब वैसे नेता नहीं रहे,  जिनके लिए देश सर्वोपरी हुआ करता था।  आज तो सब कुछ  ‘निज व निज परिवार हिताय’ हो गया है। कुछ लोग मेहनत या योग्यता की सहायता से नहीं बल्कि कुछ तिकड़म से,  कुछ बाहुबल से और ज्यादातर धन - बल के सहारे "शक्ति" हासिल कर लेते हैं।  ऐसे लोगों में  लियाकत तो होती नहीं, इसलिए उन्हें सदा अपना  स्थान खोने की  आशंका बनी रहती है।  इसी  आशंका के कारण  उनके दिलो-दिमाग में क्रोध और आक्रोश ऐसे  पैवस्त हो जाते हैं कि  उन्हें हर आदमी  अपना  दुश्मन और  दूसरे की  ज़रा  सी विपरीत बात अपनी तौहीन लगने लगती है। ऐसे लोग ओछी हरकतें करने से भी बाज नहीं आते।  मदांधता में इन्हें जनाक्रोश भी दिखाई नहीं देता।  

अभी कुछ दिन पहले अपने पद, परिवार  और  राजनितिक संबंधों के  गरूर में एक महिला - नेत्री ने पुलिस कर्मी पर हाथ उठा दिया था, जिसके जवाब में मिले  झन्नाटेदार थप्पड़  ने उनके गरूर,  अहम  और  हैसियत  को धूल चटवा दी। पहले ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि आम जन किसी नेता पर हाथ उठा दे !  पर यह उस दबे-घुटे लावे का परिणाम था जो काफी समय से बाहर आने को उछाल मार रहा था, पर इंसानियत, नैतिकता या कहिए कुछ संकोच के कारण अंदर ही अंदर सालता रहता था !  पर अति तो अति ही होती है !! पर लगता है कि फिर भी इस जाति के लोगों को कुछ समझ नहीं आ रही !  क्योंकि कुछ दिनों बाद ही  एक और  ऐसे ही सिरफिरे  नेता ने दूसरे राज्य में जा अपनी गलत बात न  मानने पर वहाँ के  एक होटल कर्मचारी पर हाथ उठाया, तो दौड़ा-दौड़ा कर मार खाने की नौबत आन पड़ी। क्या इज्जत-मान-प्रतिष्ठा रह गयी ? 

प्रकृति का प्रकोप या अनहोनी अचानक ही नहीं घटित हो जाती।  बहुत पहले से वह  अपने अच्छे-बुरे बदलाव का आभास देने लग जाती है। ऐसे ही एक बदलाव की पदचाप दूर से आती महसूस होने लगी है। रोज-रोज भ्रष्टाचार तानाशाही, मंहगाई की मार  से दूभर होती  जिंदगी से देश  का नागरिक त्रस्त है। अपने  सामने  गलत  लोगों को गलत तरीके से धनाढ्य होते  और उस धनबल  से हर क्षेत्र में  अपनी  मनमानी करते  और इधर  खुद और अपने परिवार की  जिंदगी दिन  प्रति दिन दुश्वार  होते देख अब  एक आक्रोश उसके दिलो - दिमाग में जगह बनाता जा रहा है।  यदि इसका कहीं विस्फोट हो गया  तो ऐसे भ्रष्ट लोगों का क्या हश्र होगा  तथा उनके  संरक्षक किस बिल को ढूंढेंगे,  अपना  अस्तित्व बचाने के लिए,  इसकी कल्पना  भी नहीं की जा सकती।  अभी भी हालात उतने नहीं बिगड़े हैं, अभी भी हाथ में समय है उन जड़-विहीन,  बड़बोले,  चापलूस, तिकड़मबाज तथाकथित नेताओं के पास कि बदलाव को समझें और अपना रवैया बदल, सुधर जाएं नहीं तो जनता तो सुधार ही देगी।

बुधवार, 3 जनवरी 2018

नव-वर्ष रूपी बच्चा साल भर में ही बूढ़ा क्यों जाता है ?

 गहन शोध के बाद यह बात सामने आयी कि यह बिमारी तो "पा" फिल्म में ओरो बने अमिताभ बच्चन की प्रोजेरिया नामक बीमारी से भी खतरनाक है। अब तो यही कामना है कि नवागत 2018 नामक इस शिशु को कम से कम पीड़ा का बोध हो। इस नामुराद बिमारी से तो निजात नहीं पा सकता। पर जाते-जाते इसके मुंह पर संतोष की छाया रहे। हमारे प्रति कृतज्ञ रहे कि इसको जितना भी समय मिला उसे हमने शांति और चैन से गुजारने दिया.......
#हिन्दी_ब्लागिंग 
वर्षों से परंपरा रही है हर साल के अंतिम दिन, एक कार्टून बना, आने वाले वर्ष को बच्चे के रूप में तथा जाते हुए साल को वृद्ध के रूप में दिखाने की। हर बार इसे देख मन में यह बात उठती रही है कि कोई बच्चा एक साल में ही
गज भर की दाढी और झुकी कमर वाला वृद्ध कैसे हो जाता है। पर हर बार बात आयी-गयी हो जाते थी।

पर इधर फिल्मों ने नयी-नयी बिमारियों को आम आदमी से परिचित करवाया तो अपने भी ज्ञान चक्षु खुले। गहन शोध के बाद यह बात सामने आयी कि यह बिमारी तो "पा" फिल्म में ओरो बने अमिताभ बच्चन की प्रोजेरिया नामक बीमारी से भी खतरनाक है। "पा" वाली तो फिर भी अपने रोगी को कुछेक साल दे देती है और उससे ग्रसित एक दूसरे के बारे में देख सुन धीरज धरने वाले दस-पांच रोगी मिल भी जाते हैं। पर नव-वर्ष रूपी बच्चे को लगने वाली बिमारी एक बार में एक ही को लगती है और उसको समय भी देती है तो कुछ महिनों का। खोज से यह बात भी सामने आयी है कि इस रोग को बढाने में आस-पास के माहौल का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। प्रदुषित वातावरण का प्रभाव इस पर जहर का असर करता है।

अब ऐसे माहौल में जहां इंसान ने भगवान को ही बेच खाया है, जहां बेटियां अपने बाप के आश्रय में ही सुरक्षित नहीं हैं ! देश की बात तो दूर रही, जहां औलादें अपने मां-बाप को ही नोच-खसोट कर सड़क पर धकेल देती हों, जहां किसी की भी बहु-बेटी की आबरू पर लोग गिद्ध दृष्टि लगाये रखते हों, जहां चोर, उच्चके, कातिल ही भगवान बनते, बनाये जाते हों, जहां इंसान की करतूतों के आगे शैतान भी पानी भरता हो, उस वातावरण में, उस माहौल में वह देवतुल्य अच्छा भला निर्दोष बच्चा कैसे साल भर गुजारता होगा वही जानता है। साल भर में ही अपनी ऐसी की तैसी करवा यहां से निजात पा वह भी सुख की सांस लेता होगा।

कुछ किया भी नहीं जा पा रहा है ! फिर भी अब तो यही कामना है कि नवागत 2018 नामक इस शिशु को कम से कम पीड़ा का बोध हो। वह इस नामुराद बिमारी से तो निजात नहीं पा सकता; पर जाते-जाते इसके चहरे पर संतोष की छाया रहे, हमारे प्रति कृतज्ञ रहे कि इसको जितना भी समय मिला उसे हमने शांति और प्रेम से गुजारने दिया।  उसको आशा बंधे कि उसकी आने वाली पीढ़ी को यहां सुख, चैन और अमन देखने को मिलेगा।  यही कामना है। 

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

कोई तो कारण होगा, धर्म स्थलों में प्रवेश के प्रतिबंध का !!

अभी कुछ दिनों पहले कुछ तथाकथित आधुनिक महिलाओं ने सोशल मिडिया पर गर्व से यह स्वीकारा था कि माह के उन कुछ ख़ास दिनों में भी वे मंदिर जाती हैं ! जबकि समाज के कई परिवारों में शुद्धता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों में रसोई में भी जाना अनुचित समझा जाता है। अब यदि इसे ही आजादी समझा जाता है तो क्या कह सकते हैं ! अभी बहुत दिन नहीं हुए जब सोशल मीडिया पर एक फोटो अक्सर दिख जाती थी जिसमें एक लड़का किसी मंदिर में शिवलिंग पर जूते समेत एक पैर रखे दिखाई पड़ता था। भले ही वह सच हो ना हो या फोटो से छेड़-छाड़ की गयी हो; पर वैसा या ऐसा करने वाले की दूषित मानसिकता का तो पता चलता ही था ना.......... !!

हमारे देश में कुछ धर्म-स्थल ऐसे हैं, जहां प्रवेश के उनके अपने नियम हैं, जिन पर काफी सख्ती से अमल किया जाता है। इसको ले कर काफी बहस-बाजी भी होती रही है, विरोध दर्ज करवाया जाता रहा है, आंदोलन होते रहे हैं, हो-हल्ला मचा है ! और यह सब उन लोगों द्वारा ज्यादा किया जाता है जिन पर कोई पाबंदी लागू नहीं होती। कुछ लोग जरूर ऐसे हैं जो इंसान की बराबरी के हिमायती होते हैं जो अच्छी बात है; पर विडंबना यह भी है कि ज्यादातर प्रतिवाद करने वालों को प्रतिबंधित वर्ग से उतनी हमदर्दी नहीं होती जितना वे दिखावा करते हैं नाहीं उन्हें वर्षों से चली आ रही ऐसी व्यवस्था को बदलने की अदम्य इच्छा होती है, उनका ध्येय किसी भी तरह खबरों में बने रहना होता है ! अपने को कुछ अलग दिखाने की लालसा होती है, प्रसिद्धि पाने की चाह इनसे कुछ भी करवा लेती है इसीलिए कुछ दिनों धूम-धड़ाका मचा ये गायब हो जाते हैं। नहीं तो कहाँ है वह कन्या जिसने जबरदस्ती शिंगणापुर के शनि-चबूतरे पर चढ़ने को ले कर हंगामा मचाया था। क्यों नहीं ऐसे लोग उन तथाकथित बाबाओं के विरुद्ध मोर्चा खोलते जो भगवान् के नाम पर ज्यादातर महिलाओं का ही शोषण करते हैं ! क्यों नहीं उन पंथों के खिलाफ आवाज उठाते जो जबरन धर्म परिवर्तन करवाने का दुःसाहस करते हैं ! सिर्फ इसलिए क्योंकि वहां शायद नाम मिले ना मिले पर जान को जरूर खतरा होता है !! 

सोचने की बात यह है कि ऐसी जगहों की व्यवस्था संभालने वाले लोग, विद्वान, धर्म को समझने वाले, धर्म-भीरु होते हैं। उनको क्या यह पता नहीं होता कि उनका वैसा रवैया गलत है ? क्या वे नहीं जानते कि प्रभू के यहां सब बराबर होते हैं ? क्या उन्हें मालुम नहीं कि ऊपर वाले के यहाँ कोई भेद-भाव नहीं होता ! यदि ऐसा होता तो इंसान भी अपनी हैसियत के मुताबिक़ पैदा होता और मरता ! एक ही तरह से सबका जन्म या मृत्यु नहीं होती ! फिर क्यों भगवान् के घर में ही इंसान और इंसान में फर्क किया जाता है ? कोई तो कारण होगा ?

इतिहास गवाह है कि अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अलग मतों में, विरोधी मान्यताओं, अपने पंथ को श्रेष्ठ मनवाने की जिद, अपने इष्ट को सर्वोपरि मानने के हठ के कारण अक्सर टकराव होते रहे है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जन-धन-स्थल को हानि पहुंचाने के उपक्रमों को भी मौके-बेमौके, जानबूझ कर अंजाम दिया जाता रहा है। हो सकता है ऐसी मानसिकता वाले लोग दूसरे पंथ के पूजा-स्थल में जा गैर-वाजिब हरकतें करते हों ! शुचिता का ध्यान ना रखते हों ! स्थल के सम्मान में कोताही बरती जाती हो ! पूजा-अर्चना में बाधा उत्पन्न करते हों, और वैसे कुछ अवांछनीय, असमाजिक, गैरजिम्मेदाराना लोगों की हरकतों का खामियाजा औरों को भी भुगतना पड़ गया हो। कुछ तो प्रयोजन जरूर होगा किसी को प्रतिबंधित करने का। 

अभी कुछ दिनों पहले तथाकथित आधुनिक महिलाओं ने सोशल मिडिया पर गर्व से स्वीकारा था कि माह के उन कुछ ख़ास दिनों में भी वे मंदिर जाती हैं ! जबकि समाज के कई परिवारों में शुद्धता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों में रसोई में भी जाना अनुचित समझा जाता है। अब यदि इसे ही आजादी समझा जाता है तो क्या कह सकते हैं ! अभी बहुत दिन नहीं हुए जब सोशल मीडिया पर एक फोटो अक्सर दिख जाती थी जिसमें एक लड़का किसी मंदिर में शिवलिंग पर जूते समेत एक पैर रखे दिखाई पड़ता था। भले ही वह सच हो ना हो या फोटो से छेड़-छाड़ की गयी हो; पर वैसा या ऐसा करने वाले की दूषित मानसिकता का तो पता चलता ही था ना !! हो सकता है कुछ स्थल महिलाओं के लिए सुरक्षित न होते हों, जैसे शिंगणापुर के शनिदेव का चबूतरा, जहां हर समय तेल फैला रहता है और गीले कपड़ों में जाने का प्रावधान है, इसलिए हो सकता है एक तो गीले कपडे और फिर तेल, महिलाओं को किसी भी तरह के खतरे से बचाने के लिए वहां चढ़ने से मना किया जाता हो !

रही दूसरे पक्ष की बात उन्हें भी अब बदलते हालात में अपने नियम-कानून की समीक्षा करनी चाहिए साफ़ तौर पर । गहराई से सोच-समझ कर नए विधानों को लागू करना चाहिए। सिर्फ, होता आ रहा है इसीलिए किसी बात को होते नहीं देना चाहिए। नहीं तो उस मठ जैसी बात हो जाएगी; जहां गुरूजी के पालतू बिल्ली के उत्पात के कारण आराधना के समय उसे बांधने का आदेश, उनके बाद परंपरा ही बन गया था और हर पूजा के पहले बिल्ली को बांधना अवश्यंभावी माना जाने लग गया था ! वैसे भी अब समाज पहले की अपेक्षा ज्यादा जागरूक है इसलिए उसे अब पीपल के वृक्ष या तुलसी के पौधे को बचाने के लिए, या गाय की उपयोगिता के कारण उन्हें देवी-देवता से जोड़ने की आवश्यकता नहीं रह गयी है उसे साफ़ तौर पर सीधे-सादे शब्दों में सच्चाई बता देना सबके लिए फायदेमंद रहेगा। जिससे समाज बेकार की बहसबाजी से बचा रहे। 
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