गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

हॉट डॉग ! यह कैसा नाम है भई !

एक संभावना और भी कही जाती है कि जर्मनों ने अपने वीनर श्वानों और इस कबाब की एकरूपता के कारण इसे ऐसा नाम दे दिया हो। कारण कुछ भी हो पर एक खाने वाली चीज का ऐसा नाम अनोखा तो लगता ही है ना !!
अक्सर बर्गर, सैंडविच, पैटिस जैसे यूरोपीय व्यंजनों के साथ एक नाम और सुनाई पड़ जाता है, हॉटडॉग ! हालांकि यह आमिष कबाब ही है, जिसे गौ या सूअर के मांस को बेलनाकार, ट्यूब सरीखे आकार का बना, पूरी तरह पका, धुएं में सुखा, "बन" में भर कर खाया जाता है। फिर भी, यह कैसा नाम है ! फिर पता चला कि इसे फ्रैंकफर्टर और वीनर भी कहा जाता है। फ्रैंकफर्टर शब्द फ्रैंकफर्ट, जर्मनी से आया है जहां सूअर के मांस से बने सॉसेज को उसी प्रकार के बन में परोसा जाता है। जैसे हैम्बर्गर का नाम भी एक जर्मन शहर से लिया गया है। वीनर शब्द वियना, ऑस्ट्रिया, से संबंधित है, जो सूअर के मांस व गौमांस के मिश्रण से बनाए जाने वाले सॉसेज का प्रमुख स्थान है। पर यह हॉटडॉग क्या नाम हुआ !! 
सहारा अंतर्जाल का ही था, सो उसी ने बताया कि 1884 से ही "डॉग" शब्द का प्रयोग सॉसेज के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है, पर उस समय भी ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि ज्यादा अर्थ लाभ के लिए कुछ सॉसेज निर्माता कुत्ते के मांस का प्रयोग भी करते थे, जो उस समय चलन में भी था। जो भी हो, सॉसेज के सन्दर्भ में हॉट डॉग शब्द को सबसे पहले प्रयोग करने का विवरण बैरी पोपिक द्वारा नॉक्सविल्ले पत्रिका में पाया गया था। पता नहीं कि इसमें कितना सच है पर इस शब्द को चलन में लाने का श्रेय थॉमस एलॉसियस
नाम के एक कार्टूनिस्ट को दिया जाता है, जिसने खेल के मैदानों में बिकने वाले कबाबों को यह नाम दिया जो इतना मशहूर हो गया कि उसे 1900 ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में स्थान मिल गया। एक संभावना और भी कही जाती है कि जर्मनों ने अपने वीनर श्वानों और इस कबाब की एकरूपता के कारण इसे ऐसा नाम दे दिया हो।
कारण कुछ भी हो पर एक खाने वाली चीज का ऐसा नाम अनोखा तो लगता ही है ना !!

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

कुत्तों ने भी "शोले" देखी...पर..!!


तकरीबन 40-42 साल पहले फिल्म “शोले" ने जो तहलका मचाया था उसकी तपिश, उसका सरूर अभी तक लोग भुले नहीं हैं। इंसान तो इंसान जानवरों पर भी उसका जादू सर चढ कर बोला था................ 

कलकत्ता के नीमतल्ला-अहिरीटोला घाट के सामने हुगली नदी के पार “बांधाघाट” का इलाका। उस कस्बाई इलाके के एक साधारण से सिनेमाघर “अशोक” में कई दिनों से शोले बदस्तूर चल रही थी। सिनेमाघर बहुत साधारण सा था। सड़क के किनारे बने उस हाल की एक छोटी सी लाबी थी। उसी में टिकट घर, उसी में प्रतिक्षालय, उसी में उपर जाने की सीढियां। वहीं अंदर जाने के लिये दो दरवाजे थे। जिसमें एक हाल के अंदर की पिछली कतारों के लिये था तथा दूसरा पर्दे के स्टेज की पास की कतारों के लिए था।  उन पर मोटे काले रंग के पर्दे टंगे रहते थे। गर्मी से बचने के लिए अंदर सिर्फ पंखों का ही सहारा होता था। शाम को अँधेरा घिरने पर हाल के दरवाजे खुले छोड़ दिये जाते थे जिससे दिन भर बंद हाल में शाम को बाहर की ठंड़ी हवा से कुछ राहत मिल सके।

दोपहर में गर्मी से बचने के लिये दो-चार “रोड़ेशियन" कुत्ते   भी लॉबी में आ कर सीढियों के निचे दुबके रहते थे। लोगों के आने-जाने से, शाम को दरवाजे खुले होने से वे भी गानों इत्यादि को सुनने के आदी हो गये थे। पर दैवयोग से उन्होंने अपने से सम्बंधित संवाद नहीं सुना था।

उस इलाके में कोई भी फिल्म एक दो हफ्ते से ज्यादा नहीं चलती थी क्योंकि अधिकांश लोग शहर जा सुविधायुक्त हाल की ठंड़क में फिल्म का मजा लेते थे। पर जब महीने भर यहां से शोले नहीं उतरी तो हमारे इन “रोड़ेशियन” को भी आश्चर्य हुआ क्योंकि वे भी कुछ दिनों बाद नये पोस्टर देखने के आदी हो गये थे। फिर दूसरी बात यह कि उन्हें अंदर से आती फिल्म की आवाजों को कई लोगों को दोहराते सुना तो उन्होंने भी एक एतिहासिक फैसला लिया कि हम भी अंदर जा यह फिल्म देखेंगे कि इसमें ऐसा क्या है जो लोग इसे बार-बार देख रहे हैं। पर अंदर जाना और उतनी देर छिप कर बैठे रहना बहुत मुश्किल काम था। किसी ने देख लिया तो लाबी की दोपहर की नींद से भी हाथ धोना पड़ सकता था। सो यह फैसला किया गया कि सब जने नहीं जायेंगें एक जना टुकड़े-टुकड़े मे पिक्चर देखेगा और रात को सब को उसके बारे में बताएगा।

तो एक दिन हमारा शेरदिल कालू रात के शो में छिपता-छिपाता अंदर चला ही गया। पर आधे घंटे के बाद ही बाहर आ खड़ा हुआ। सबने आश्चर्य से पूछा कि क्या हो गया? उसने कहा कि बस मार खाने से बच कर आ रहा हूं। सब फिर बोले अरे हुआ क्या था बताओ तो सही। तब कालू ने जवाब दिया कि मैं अंदर मुंह उठाए देख रहा था, तभी वहां एक गंदा सा आदमी आया, उसके हाथ में लंबा मोटा सा कुछ हंटर जैसा कुछ था। उसके सामने खंबे से एक आदमी बंधा हुआ था। वहीं एक सुंदर सी लड़की भी खडी थी। गंदे से आदमी ने उस लड़की से कहा, छमिया नाच के दिखा। तो खंबे से बंधा हट्टा-कट्टा आदमी बोला, नहीं बासंती, इस कुत्ते के सामने मत नाचना। अब बोलो अंदर हाल में इतने लोग नाच देखने को इकट्ठे हुए थे। उधर वह गंदा सा आदमी और बहुत से लोग बंदुके लिये खड़े थे अब मेरे कारण नाच नहीं हो पाता तो सबने मिल कर मुझे मारना ही था सो मैं भाग आया।

सब चुप हो गये समय की नजाकत को देख। पर वह जादू ही क्या जो सर पर ना चढ जाए। कुछ दिनों बाद फिर एक श्वान पुत्र के खून ने जोश मारा। उसने एलान किया कि जो भी हो वह आज रात फिल्म देख कर ही रहेगा। रात का शो शुरु होने के कुछ देर बाद वह अगले दरवाजे से अंदर दाखिल हो गया। पर दस मिनट बाद ही ड़र से कांपता हुआ अपनी पूंछ को पिछले पैरों में दबाये बाहर निकला और भागता ही चला गया। उसके साथी हैरान-परेशान उसके पीछे-पीछे भागे और एक सुनसान गली में उसे जा घेरा। वह
अभी भी ड़र से कांप रहा था। सबने उससे कारण पूछा पर उसके मुंह से बोल ही नहीं फूट रहे थे। कुछ देर बाद उसने कहना शुरू किया कि मैं छिप कर ही अंदर गया था पर पता नहीं कैसे उस हट्टे-कट्टे आदमी ने मुझे देख लिया और मेरी तरफ ऊंगली उठा कर बोला, कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा। वह शायद समझा होगा कि मैं ही हूं जिसके कारण पिछली बार नाच ना हो पा रहा था सो इस बार तो वह मुझे मार देने पर ही उतारू हो गया था। वह तो मुझे मार ही देता यदि मैं भाग ना आया होता।

इसके बाद उन शेरदिल श्वान पुत्रों की "अशोक हाल" तक जाने की तब तक हिम्मत नहीं पड़ी जब तक कि शोले वहां से उतर ना गयी। 

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

कैंची धाम, उत्तराखंड

चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरे परिसर में हनुमान जी के अलावा भगवान राम एवं सीता माता तथा देवी दुर्गा जी के साथ-साथ करोली बाबा का भी मंदिर है जिसमें उनकी बिलकुल सजीव सी प्रतिमा स्थापित है, जिसे देख एक क्षण के लिए तो दर्शनार्थी चकमा ही खा जाता है। कैंची धाम मुख्य रूप से बाबा नीम करौली और हनुमान जी की महिमा के लिए प्रसिद्ध है

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हमारे देश में सैकड़ों ऐसी जगहें मौजूद हैं, जिनके विख्यात होने के बावजूद बहुत ही कम लोगों को उनके बारे में जानकारी होती है। ऐसा ही एक स्थान है देव्-भूमि उत्तराखंड के नैनीताल जिले में अल्मोड़ा-रानीखेत राष्ट्रीय राजमार्ग पर नैनीताल से करीब 38 की.मी. की दूरी पर  स्थित एक दिव्य, रमणीक, लुभावना स्थल कैंची धाम। यहां सड़क कैंची की तरह दो मोड़ों से होकर आगे बढ़ती है इसीलिए इस जगह का नाम कैंची मोड़ और मंदिर का नाम कैंची धाम पड़ गया। जिसे नीम करोली बाबा का कैंची धाम नाम से भी जाना जाता है। कहते हैं कि1964  में उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के एक गांव अकबरपुर से लक्ष्मी नारायण शर्मा नामक एक युवक ने यहां आ कर रहना शुरू किया था। चूँकि यहां आने से पहले उस युवक ने फर्रूखाबाद के गांव नीब करौरी में कठिन तपस्य़ा की थी, इसी कारण वे बाबा नीम करौली कहलाने लगे। महाराजजी की गणना बीसवीं शताब्दी के सबसे महान संतों में होती है।


उन्होंने 15  जून 1964 को कैंची धाम में हनुमान जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा की। तभी से 15 जून प्रतिष्ठा दिवस के रूप में मनाया जाता है। चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरे परिसर में हनुमान जी के अलावा भगवान राम तथा सीता जी, दुर्गा माता के साथ ही करौली बाबा का भी मंदिर है। जिसमें उनकी बिल्कुल सजीव सी प्रतिमा स्थापित है, जिसे देख एक क्षण के लिए तो दर्शनार्थी चकमा खा ही जाता है !

कैंची धाम मुख्य रूप से बाबा नीम करौली और हनुमान जी की महिमा के लिए प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ आने पर व्यक्ति अपनी सभी समस्याओं के हल प्राप्त कर सकता है।


हर साल यहां पंद्रह जून को विशाल मेला लगता है, जिसमें देश-विदेश से असंख्य भक्तजन पधारकर अपनी श्रद्धा व आस्था को व्यक्त करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां पर श्रद्धा एवं विनयपूर्वक की गयी पूजा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है तथा मांगी गई हर मनौती पूर्णतया फलीभूत होती है।

बाबा को यह जगह बहुत पसंद थी, वे यहां अपने निर्वाण दिवस 11 सितम्बर, 1973 तक अक्सर आते रहे थे। उनके साथ अनेक अलौकिक कथाएं जुडी हुई हैं। उन्होंने अपने तपोबल से लोगों का सदा उपकार कर उन्हें कष्टों, मुसीबतों से निजात दिलवाई। उनके भक्त तो उन्हें हनुमान जी का ही रूप मानते हैं।  कैंची धाम और खासकर स्वर्गीय नीम करौली बाबा के भक्तों की यहां खूब आस्था है। Apple के संस्थापक स्टीव जॉब्स और Facebook के संस्थापक व मौजूदा सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने भी कैची मंदिर आकर अपने जीवन को एक नई राह दी और अपार सफलता हासिल की। इसके अलावा जूलिया रॉबर्ट्स, डॉक्टर रिचर्ड एल्पेर्ट और मशहूर लेखक डेनियल भी यहां आ चुके हैं। 

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

अधजल गगरियां !!!

अब तो यह जुमला भी घिस-पिट गया है कि आजकल के बच्चे बहुत स्मार्ट हैं ! पर यह स्मार्टनेस तो तभी आई ना जब इन्होंने आँख खोलते ही दसियों गैजटों को अपने इर्द-गिर्द पाया, देखा-भाला-समझा-उपयोग किया और महारत हासिल की। पर माँ-बाप फूले नहीं समाते, उनकी उपलब्धि पर। फिर गुण-गान शुरू हो जाता है, इस टिपण्णी के साथ की हमें तो आज की चीजों के बारे में कुछ भी नहीं पता, यही बतलाता/ती है ! बार-बार यही सुन-सुन कर जड़ पकड़ने लगता है, अहम भाव बच्चों के मन में। उसे लगता है कि वह सर्वज्ञानी है, बाकियों को कुछ पता ही नहीं है। धीरे-धीरे घमंड, अक्खड़ता, अवमानना, दूसरों को कुछ ना समझना उसका स्वभाव बन जाता है......... 
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मेरी उम्र की पीढ़ी बहुत भाग्यशाली है। इसने विज्ञान की मदद से दुनिया में होते बदलावों को अपनी आँखों से  अपने सामने घटते देखा है। देखते-देखते सैकड़ों ईजादों-सुविधाओं ने अपनी अच्छाई और बुराई के साथ हमारी जिंदगी में पैठ बना ली है। छोटे-बड़े आदि हो चुके हैं सुविधाओं के। अब तो यह जुमला भी घिस-पिट गया है कि आजकल के बच्चे बहुत स्मार्ट हैं ! बात तो सही है पर यह स्मार्टनेस तो तभी आई ना जब सारी सुविधाएं मौजूद थीं ! इन्होंने आँख खोलते ही दसियों गैजटों को अपने इर्द-गिर्द पाया, देखा-भाला-समझा-उपयोग किया और महारत हासिल की। माँ-बाप फूले नहीं समाते, गर्व महसूस करते हैं उनकी उपलब्धि पर। फिर गुण-गान शुरू हो जाता है, जान-पहचान-परिवार में, इस टिपण्णी के साथ की हमें तो आज की चीजों के बारे में कुछ भी नहीं पता, यही बतलाता/ती है ! बार-बार यही सुन-सुन कर जड़ पकड़ने लगता है, अहम भाव बच्चों के मन में। उसे लगता है कि वह सर्वज्ञानी है, बाकियों को कुछ पता ही नहीं है। धीरे-धीरे घमंड, अक्खड़ता, अवमानना, दूसरों को कुछ ना समझना, उसका स्वभाव बन जाता है। इसका पहला असर घरवालों पर ही दिखता है जब उन्हें सुनना पड़ता है, पापा से यह कहाँ होगा ! मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं है, किसी चीज के बारे में !!  बुआ तुम तो रहने ही दो !!! और घर वाले फिर भी लाड-प्यार में मुस्कुराते रहते हैं।

धीरे-धीरे वह नीम-ज्ञानी बाहर वालों पर भी रोब ग़ालिब करने लगता है। अब सोचिए कि यदि कोई पाबला जी को अपने पालतू के रख-रखाव, उनके स्वभाव, उनकी देख-रेख के बारे में बताने लगे या सुब्रमनियम जी को फूल-पत्तीयों के बारे में बता उनके चित्र लेने की विधि समझाने लगे, ललित जी को घुम्मकड़ी के फायदे बताने लगे तो उन सब की क्या प्रतिक्रिया होगी ? ललित तो झापड़ ही रसीद कर देंगे। तो इतनी बकैती का मुद्दा यह था कि कल शाम कुछ काम-अध्ययन करते समय, बाहरी द्वार के सामने एक श्वान पुत्र लगातार अपने दूर कहीं खड़े साथी से वार्तालाप करे जा रहा था। काफी देर सहन करने के पश्चात मैंने एक मग पानी को कुकुर के पास जमीन पर दे मारा, उसकी आवाज और छीटों से आदतन उसने दुम को दबाया और निकल लिया। मैं अंदर आ गया: उसके बाद जो हुआ वह तो मेरे लिए गजबे का हादसा था..........

कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी बजी, जाकर देखा एक बालक नुमा युवा, मन तो लखनवी सम्बोधन का हो रहा है,  खड़ा था ; बोला अंकल आपने डॉगी पर पानी डाला ? ऐसा नहीं करना चाहिए ये बहुत मासूम होते हैं ! सुनते ही BP तो झट से बढ़ा पर फिर भी शांत स्वर में जवाब दिया कि आधे घंटे से वह भौंके जा रहा था, काम में विघ्न पड़ रहा था, हटाना जरुरी था। बोला, पानी डालने से वह भौंकना बंद तो नहीं करेगा ! मैंने कहा तो तुम्हीं उपाय बताओ ! बोला, नहीं पानी डालना था तो दूसरी तरफ डालते ! मैं, तो क्या इससे वह चुप हो जाता ? नहीं ये मासूम होते हैं। मेरे दरवाजे पर डोलते रहते हैं। हम कुछ नहीं कहते। अब थोड़ा BP का असर होने लगा था। मैंने कहा यदि मेरे दरवाजे पर खड़ा हो वह यदि फिर चिल्लाएगा तो मेरी समझ में जो आएगा वह मैं करूंगा: यदि तुम्हें तकलीफ है तो ये जितने भी आठ-दस हैं इन्हें अपने घर के अंदर ले जा कर रख लो !! आवाज की तुर्शी शायद उसको समझ आ गयी थी, कुछ बुड़बुड़ाते हुए गुगलाई जानकारी से भरा ज्ञान-हीन, रहमदिल इंसान चल दिया। बाद में पता चला कि दो घर छोड़ कर ही रहता है।

अब क्या मैं उसे बताता या अपनी सफाई देता, कि इन "मासूमों" के लिए मेरा और मेरे परिवार का क्या योगदान है, कितनों को कैसे-कैसे बचाया है ! कितने रोज खुराक पाते हैं: और यह जो महाशय अपने मित्र से वार्तालाप कर रहे थे और पानी के छीटों से भगे, वे मेरे सामने ही इस दुनिया में आए थे और रोज अपनी खुराक का हिस्सा यहीं से पाते हैं। यहां तक कि उसके माँ-बाप का राशन भी हमारे यहां से ही जाता था वह भी उनकी सेहत को ध्यान में रख। यदि उनके प्रति मुझे सहानुभूति है तो उनकी गलती को सुधारने का हक़ भी है !!

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

दवा की कीमतों का चक्रव्यूह

कंधे छीलती, एक-दूसरे को धकियाती, सड़क तक को घेरे भीड़ में से रास्ता बनाते, पुरानी दिल्ली की कुंज गलियों को पार करते, सामान से अटी पड़ी राहों में किसी तरह निकल, भागीरथ प्लेस की पुरानी सीढ़ियों को फलांग जब दवा मिली तो उसकी कीमत देख हैरानी की सीमा ना रही..........

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पिछले हफ्ते कुछ व्यापारियों द्वारा बिल को लेकर ग्राहकों को गुमराह करते पाया था, जिसका न कोई उल्लेख करता है ना हीं उस पर ध्यान दिया जाता है ! ऐसा ही एक और रहस्य है, वस्तुओं के कवर पर छपा उसका M.R.P. यानी  अधिकतम खुदरा मूल्य। मतलब इससे अधिक मूल्य पर उस वस्तु को नहीं बेचा जा सकता। यह कीमत निर्माता अपने सारे खर्चे और खुदरा विक्रेता के लाभांश को जोड़ कर तय करता है। पर यह लाभांश कितना होना चाहिए इसका कोई निर्देश है कि नहीं पता नहीं !


पिछले दिनों श्रीमती जी के लिए शुगर चेक करने वाली स्ट्रिप के बारे में पता चला था कि भागीरथ प्लेस में यह काफी सस्ती मिल जाती हैं। इस बार जबा ख़त्म हुई तो वहीँ से लाने की सोची। पर कंधे छिलती, एक-दूसरे को धकियाती, सड़क तक को घेरे भीड़ में से रास्ता बनाते, पुरानी दिल्ली की कुंज गलियों को पार करते, सामान से अटी पड़ी राहों में किसी तरह निकल, भागीरथ प्लेस की पुरानी सीढ़ियों को फलांग जब दवा मिली तो उसकी कीमत देख हैरानी की सीमा ना रही। जो चीज अब तक 875/- में लेते रहे थे वह मात्र 470/- में मिल रही थी। जबकि उस पर M.R.P. 999/- दर्ज था ! यही हाल शुगर परिक्षण में काम आने वाली सुइयों का भी था, 100-150/- में मिलने वाला इनका पैकेट मात्र 50/- में मिल रहा था ! मन में तुरंत नकली-असली का संदेह आया पर बिल तो ले ही लिया था। वहाँ से निकल चांदनी-चौक आकर ऐसे ही एक बड़ी सी दवा-दूकान पर उसी स्ट्रिप के बारे में पूछा तो कीमत 750/- और सूइयों की 100/- बताई गयी ! आधा की.मी. से भी कम की दूरी में ही 300/- और 50/- का फर्क ! यही चीज जनकपुरी तक पहुंचते-पहुंचते उनके हिसाब के मुताबिक 999/- + 250/- का दस-बारह प्रतिशत कम कर 875/- + 200/- की मिलती है। कीमतों का फर्क देख वस्तु की गुणवत्ता पर शंका हो जाती है। सो उसका भी क्रास चेक किया गया तो नतीजा एक सा ही मिला। इस तरह की और ऐसी ही प्राण-रक्षक दवाओं पर इतना लाभांश ? सौ-सौ गुना ज्यादा ? यह सोचने और विचारने का विषय है।


M.R.P. छापना और उससे ज्यादा न लिया जाना उपभोक्ता के हित में हो सकता है पर वह कीमत जायज है कि नहीं इस पर शायद ध्यान नहीं दिया जाता ! खासकर दवाओं के मामले में। दवा खरीदते समय शायद आपने ध्यान दिया होगा कि बिल पर दवा विक्रेता कुछ न कुछ रियायत देता है, जो पांच से बारह प्रतिशत तक कुछ भी हो सकती है। हम बिना उसका उचित मूल्य जाने उसी में खुश हो जाते हैं और दस प्रतिशत वाले को अपना स्थाई दुकानदार बना लेते हैं: बिना ज्यादा खोज-खबर किए ! दवा निर्माता जब M.R.P. निर्धारित करता है तो उसके दिमाग में सिर्फ खुदरा विक्रेता का ही हित ही क्यों होता है ? क्यों आम इंसान को ही हर बार बली का बकरा बनाया जाता है ? कोई जिम्मेवार इस ओर ध्यान देगा ? लगता तो नहीं ! पर आवाज तो उठनी चाहिए !!

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

जब मुझे यह बुरा लगता है तो बहुतों को लगता होगा !

अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब चुनाव जाति-पाति-भाषा को किनारे कर संपन्न हुए थे, अच्छा लगा था कि योग्य लोग बागडोर संभालेंगे। पर अब फिर वही पुरानी चाल ! दलों ने "राग-जाति", "राग-धर्म" अलापने के साथ-साथ असंयमित आचरण, अमर्यादित भाषा के साथ-साथ एक दूसरे पर बेबुनियादी लांछन लगाना, छीछालेदर करना, कीचड़ उछालना शुरू कर दिया है। जनता तंग आ चुकी है ऐसे कृत्यों से, ऊब चुकी है ऐसी स्तरहीन नौटंकियों से, उनके व्यवहार से, उनकी ओछी राजनीती से ..................
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माहौल ऐसा बनता जा रहा है कि आप कुछ कहना चाह कर भी कुछ नहीं कहना चाहते ! कुछ बोलते ही आपको कोई ना कोई सिरफिरा किसी ना किसी पाले में धकेल देगा। क्योंकि निरपेक्षता जैसा कुछ तो रहने ही नहीं दिया गया है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब चुनाव जाति-पाति-भाषा को किनारे कर संपन्न हुए थे, अच्छा लगा था कि योग्य लोग बागडोर संभालेंगे। पर अब फिर वही पुरानी चाल, दलों ने "राग-जाति", "राग-धर्म" अलापने के साथ-साथ असंयमित आचरण, अमर्यादित भाषा के साथ-साथ एक दूसरे पर बेबुनियादी लांछन लगाना, छीछालेदर करना, कीचड़ उछालना शुरू कर दिया है। जनता तंग आ चुकी है ऐसे कृत्यों से, ऊब चुकी है ऐसी स्तरहीन नौटंकियों से, उनके व्यवहार से, उनकी ओछी राजनीती से ! पर पता नहीं इतने पढ़े-लिखे, समझदार, ज्ञानी लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि अवाम सरे-आम किसी की बेइज्जती ज्यादा देर सहन नहीं कर पाती उल्टे उसकी सहानुभूति दूसरे पक्ष की ओर ही हो जाती है।

याद कीजिए 1977 के आस-पास का समय सारे दिग्गज नेता एक-जुट हो इंदिरा गांधी के पीछे पड़ गए थे, उनकी छवि धूमिल करने और उन्हें जेल भिजवाने के लिए ! नतीजा क्या हुआ ? जनता ने इंदिरा जी को ही सर्वोच्च स्थान पर ले जा बैठाया। अभी भी वैसा ही हुआ, जैसे ही भाजपा ने अनर्गल बोलना बंद कर विकास का पल्ला थामा वैसे ही लोगों ने राज्य पर राज्य उनकी झोली में ला डाले। इतना सब होने के बावजूद कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा है कि मीठी वाणी का सहारा ले तथ्यों की बात की जाए ! किसी के चरित्र हनन की बजाए देश की उन्नति की बात की जाए ! जाति-भाषा-धर्म को छोड़ सर्वहारा की बात की जाए ! 

बहुत सकून मिला था जब राहुल जी ने कहा था कि मतभेद व्यक्ति से होना चाहिए, पद की गरिमा बनाए रखनी चाहिए। उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को भी प्रधान मंत्री के पद का सम्मान करने के निर्देश दिए थे, पर अगले दिन वे खुद ही सीमा का उल्लंघन कर प्रधान मंत्री को निशाना बनाते नज़र आने लगे ! कौन है जो उनकी रणनीति तैयार करता है ? कौन है जो विभिन्न चैनलों पर अपने मेक-अप पुते चेहरों से अनर्गल वार्तालाप करवाता है ? कौन है जो शह देता है सोशल मीडिया पर बकैती करने वालों को, जिनकी बातें पार्टी के प्रति सहानुभूति कम विरोधी ज्यादा बनाती है ?  कौन है, जिसको इतनी समझ नहीं है कि उसकी अधकचरी हरकतें राहुल ही नहीं वर्षों पुरानी कांग्रेस की जड़ों को भी कमजोर कर रही हैं ? और ये बातें उनके दिग्गज, अनुभवी, सक्षम नेताओं को भी क्यों नहीं दिखाई पड़ रहीं ? क्या वे इतने कमजोर पड़ गए हैं कि दल की भलाई की बात कहने में भी डरते हैं ? क्या उन्हें दिख नहीं रहा कि गलत सलाहों और सलाहकारों की वजह से पार्टी के ऐसे दिन आ गए हैं कि गुजरात में शतायु कांग्रेस को उनकी बात माननी पड़ रही है जिनका ना कोई इतिहास है, ना ही समझ, ना ही अनुभव, सिर्फ थोड़ी सी भीड़ का साथ है, वह भी ना जाने कब साथ छोड़ जाए ! क्या इतने चुनाव परिणाम भी कुछ समझा नहीं सके ? दुःख होता है ऐसी पार्टी का ऐसा हश्र देख कर, और भी ज्यादा इसलिए कि अभी भी सुधरने की सार्थक कोशिश नहीं की जा रही !  

उधर भाजपा अपनी रणनीति के तहत हिन्दू-गैर हिन्दू साबित करने में, मंदिर आने-जाने में को ले कर जमीन-आसमान एक करे दे रही है। आम आदमी को समझ नहीं आ रहा है कि किसी के मंदिर जाने में किसी को क्या और क्यों आपत्ति होनी चाहिए ? क्या हो जाएगा यदि कोई गैर हिन्दू है भी तो, इंसान तो है ना वह ! उसकी नियत साफ़ है, देश के लिए, समाज के लिए, जन-हित के लिए यदि वह कुछ करना चाहता है तो हिन्दू होंना क्यों जरुरी है ? कतई जरुरी नहीं है पर नौसिखिए सलाहकारों ने जनेऊ-दर्शन काण्ड में राहुल को ही फंसा डाला ! ऐसे अधकचरे लोग दोनों तरफ हैं जो बिन सर-पैर के ऊल-जलूल प्रयासों द्वारा एक दूसरे का चरित्र-हरण करने की ओछी हरकतें करते रहते हैं।  

कहते हैं कोई राजा तभी सफल हो सकता है, कोई राज्य तभी तरक्की कर सकता है, जब उसके सलाहकार गुणी, विचारक व विद्वान हों। चापलूसों, चारणों, खुशामिदियों और हाँ में हाँ मिलाने वाले दरबारियों से घिरा दिगभ्रमित राजा और उसका राज्य कहीं का नहीं रहता !          

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

GST, निरुत्साहित किया जाता है ग्राहक को !

घडी का सेल बदलने के लिए टाइटन के शो रूम से काम करवा कर बिल माँगा तो वही जवाब मिला, 12 % GST लग जाएगा ! मैंने कहा तो क्या हुआ ? बोला, देख लीजिए ! मैंने कहा, देखना है, मुझे चाहिए ! तो दूसरे ग्राहकों तथा उसकी अजीब सी नज़रों का सामना करते हुए मैंने बिल लिया। यही हाल आगे दवा की दूकान पर भी हुआ ,  GST लग जाएगा ...जैसे टैक्स न हो कोई बला हो ! पिछले हफ्ते उत्तराखंड के एक होटल में भी ऐसा ही कुछ हुआ था ! देश में अलग-अलग जगहें, अलग-अलग लोग, अलग-अलग तरह का वातावरण, पर व्यापारिक मानसिकता सब जगह एक जैसी !
#हिन्दी_ब्लागिंग         
पिछले दिनों कराधान करते समय सरकार की तरफ से बार-बार कहा गया कि आप अपनी हर खरीदी का बिल जरूर लें ! पर क्या व्यापारियों को भी ऐसा कुछ कडा निर्देश दिया गया कि आपको भी हर बिक्री का बिल काटना ही है ! क्योंकि भले ही यह कानून हो पर इस वर्ग के अधिकाँश भाग में बिल ना देना, आदत में शुमार है ! टैक्स पहले भी थे, शायद कुछ ज्यादा  होंगे ! पर  इधर बहुत हो-हल्ला मचा, GST को लेकर, तरह-तरह की अफवाहें उड़ीं, दोनों तरफ से उलटे-सीधे आंकड़े प्रस्तुत होते रहे ! विरोध के लिए विरोध हुआ पर "कुछेक" की आदत सुधारने का किसी ने भी कोई सुझाव नहीं दिया ! 

अभी कुछ दिन पहले अल्मोड़ा जाना हुआ था, ट्रेन विलंब से काठगोदाम पहुंची, रात का एक बजने को था सो बिना ज्यादा हंडराए, स्टेशन के सामने के ही एक होटल में रुकना हुआ। काउंटर पर उपस्थित व्यक्ति ने 1200/- लिए और कमरे में पहुंचा दिया, ना कोई एंट्री ना कोई रजिस्टर ! रात काफी हो चुकी थी: सो सुबह चलते समय बिल माँगा तो जवाब मिला GST लग जाएगा ! मैंने कहा, तो क्या ! बिल दो।  फिर भी कुछ ना-नुकुर, झिझक पर कुछ मेरे अड़े रहने पर ही वह एंट्री कर बिल देने पर मजबूर हुआ। यह बात थी दिल्ली से करीब 300 की.मी. दूर की। अब दिल्ली की देख लीजिए। पता चला था कि चांदनी चौक के भागीरथ प्लेस में दवा वगैरह के मूल्यों में काफी फर्क है।  दो दिन पहले चांदनी चौक गया इसी सिलसिले में। लगे हाथ घडी का सेल भी बदलने के लिए टाइटन के शो रूम से काम करवा कर बिल माँगा तो वही जवाब मिला, 12 % GST लग जाएगा ! मैंने कहा तो क्या हुआ ? बोला, देख लीजिए ! मैंने कहा, देखना है, मुझे चाहिए ! तो दूसरे ग्राहकों तथा उसकी अजीब सी नज़रों का सामना करते हुए मैंने बिल लिया। यही हाल दवा की दूकान पर भी हुआ !!! GST लग जाएगा जैसे टैक्स न हो कोई बला हो। वहाँ भी थोड़ी हूँ-हाँ, आना-कानी  के बाद ही बिल मिला। यह तो देश के सिर्फ दो राज्यों की बानगी है, अलग-अलग जगहें, अलग-अलग लोग, अलग-अलग तरह का वातावरण, पर व्यापारिक मानसिकता एक जैसी !

सोचने की बात यह है कि ईमानदारी से टैक्स देना क्या आम आदमी का ही फर्ज है ? क्या देश सुधारने का सारा जिम्मा इसी वर्ग पर है ? क्या सबकी धौंस इसी जमात पर चलती है ? क्या डरा-धमका कर सिर्फ इन्हें ही नीबू की तरह अंतिम बूँद लेने के लिए निचोड़ा जाता रहेगा ? यह भी एक कारण है उसके सौ-पचास बचाने का। उसे लगता है कि जब हर तरह की उगाही सिर्फ उसीसे होती है तो वह क्यों नहीं जहां बचता है वहाँ से बचा ले !
क्या कभी उन CA या Tax Consultants से सवाल-जवाब किए जाते हैं जो ऐसे व्यापारियों को कानून की आडी-टेढ़ी गलियों में घुमा कर चोरी करना सिखाते हैं ? क्यों नहीं ऐसे गलत लोगों के काम  रोक लगाई जाती ? क्यों नहीं कर चोरी करने वाले तिजारतदारों को किसी का भय रहता ? क्यों नहीं लाखों की पगार लेने वाले अफसर इन पर हाथ डाल पाते ? या डालना नहीं चाहते ? क्यों ? 

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