हिंदू परंपरा के अनुसार शव-दाह के बाद अस्थियों का किसी धार्मिक स्थल पर विसर्जन तथा भस्मी को बहते जल में प्रवाहित करने का विधान है। पर अब नदियों-सरोवरों की स्वच्छता को बनाए रखने के हेतु भस्मी-विसर्जन के लिए दिल्ली में कुछ स्थान निर्धारित कर दिए गए हैं। दिल्ली के अंतर्राजीय बस-अड्डे के पास, यमुना से लगा, मजनू के टिला भी एक ऐसा ही स्थान है। लोगों की भावनाओं को समझते हुए, सिख समुदाय ने यहां भस्मी-विसर्जन की अति उत्तम व्यवस्था कर एक बड़ी समस्या को हल कर समाज के सामने एक मिसाल पेश की है.....
समय बहुत तेजी से घूम रहा है। आज की ईजाद दूसरे दिन पुरानी पड़ जाती है। रोज ही किसी ना किसी क्षेत्र में बदलाव महसूस किया जा रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी में भी विभिन्न प्रकार के पहलू सामने आ रहे हैं। हर क्षेत्र अपने उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह की सहूलियतें देने पर उतारू है। पर कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां के बदलावों का, मानव जीवन का अभिन्न अंग होते हुए भी, जल्द पता नहीं चलता ! हालांकि वहाँ कार्यरत या वहाँ से संबंधित लोग अपनी तरफ से आम लोगों की परेशानियों को समझते हुए कुछ ना कुछ बेहतरी के लिए कदम उठाते ही रहते हैं। ऐसी ही एक जगह है, मानव के ब्रह्म-लोक की यात्रा पर निकलने के पहले इस धरा पर का अंतिम पड़ाव, मुक्तिधाम !
मुक्तिधाम या श्मशान या कायांत ! शम का अर्थ है शव और शान का अर्थ शयन यानी बिस्तर। जहां मरे हुए शरीरों को रखा जाता है। मौत के बाद काया या शरीर का अंत होता है जीवन का अंत नहीं होता है, इसीलिए यह कायांत है, जीवांत नहीं। पर इस दुनिया में देह से ही मोह है, संबंध हैं, रिश्ते-नाते हैं, अपनत्व है, ममता है, इसीलिए इसके ख़त्म होने पर, नष्ट होने पर परिजनों का दुखी होना अत्यंत स्वाभाविक है। दुखी और व्यथित दिलो-दिमाग से उस समय सारे इंतजाम करना, व्यवस्था करना बहुत मुश्किल हो जाता है। उन हालातों और परेशानियों को समझते हुए अब सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त, उस समय की जरुरत की सारी सामग्री और वस्तुओं को एक ही जगह उपलब्ध करवाने की व्यवस्था मुक्तिधामों में ही कर दी गयी है। नहीं तो बांस, बल्ली, पुआल, पूजा का सामान, कपडे-लत्ते, जूता-चप्पल इत्यादि दसियों तरह के सामान के लिए अलग-अलग जगहों पर जाना पड़ता था। अब तो जैसे क्रिश्चियन समाज में ताबूत मिलते हैं उसी तरह बनी-बनाई अर्थी भी उपलब्ध होने लगी है। इससे समय और परेशानी में काफी कमी आ गयी है।
हिंदू परंपरा के अनुसार शव-दाह के बाद अस्थियों का किसी धार्मिक स्थल पर विसर्जन तथा भस्मी को बहते जल में प्रवाहित करने का विधान है। पर अब नदियों-सरोवरों की स्वच्छता को बनाए रखने के लिए हर जगह भस्मी विसर्जन नहीं किया जाना उचित तो है पर एक समस्या का सबब भी बनता जा रहा है। क्योंकि दोनों ही कार्य अपनी जगह अति आवश्यक हैं। इसलिए भस्मी-विसर्जन के लिए दिल्ली में कुछ स्थान निर्धारित कर दिए गए हैं। जिससे किसी की भावना को ठेस भी ना पहुंचे और वातावरण भी सुरक्षित रहे। ऐसा ही एक स्थान है दिल्ली के अंतर्राजीय बस-अड्डे के पास, यमुना से लगा, मजनू के टिले का स्थान। जहां इसी नाम से एक भव्य गुरुद्वारा भी बना हुआ है। लोगों की भावनाओं को समझते हुए, सिख समुदाय ने यहां भस्मी-विसर्जन की अति उत्तम व्यवस्था कर एक बड़ी समस्या को हल कर समाज के सामने एक मिसाल पेश की है।
गुरूद्वारे के ठीक नीचे, बगल से दूषित जल-निरूपण के बाद पानी की एक धारा यमुना में मिलती है। उसी के ऊपर एक चबूतरा बना ऊके एक किनारे "फ्नेल" जैसा छेद बना भस्मी को पानी में डालने की व्यवस्था कर दी गयी है। जिससे लोगों को पानी-कीचड़ से छुटकारा तो मिल ही गया है, भस्मी का भी हवा में उड़ने से होने वाली समस्या से मुक्ति मिल गयी है। साफ़-सुथरे, सम्मान जनक तरीके से यह काम पूरा होने लगा है। इसके साथ ही पहले जो भस्मी के बोरे वगैरह को लोग यूँ ही इधर-उधर फेंक देते थे उसके लिए भी संस्था ने एक जगह बना, एक ना दिखने वाली बड़ी समस्या का निदान कर दिया है। सलाम है ऐसे लोगों को जिन्होंने इन सारी समस्याओं का निदान किया !
समय बहुत तेजी से घूम रहा है। आज की ईजाद दूसरे दिन पुरानी पड़ जाती है। रोज ही किसी ना किसी क्षेत्र में बदलाव महसूस किया जा रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी में भी विभिन्न प्रकार के पहलू सामने आ रहे हैं। हर क्षेत्र अपने उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह की सहूलियतें देने पर उतारू है। पर कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां के बदलावों का, मानव जीवन का अभिन्न अंग होते हुए भी, जल्द पता नहीं चलता ! हालांकि वहाँ कार्यरत या वहाँ से संबंधित लोग अपनी तरफ से आम लोगों की परेशानियों को समझते हुए कुछ ना कुछ बेहतरी के लिए कदम उठाते ही रहते हैं। ऐसी ही एक जगह है, मानव के ब्रह्म-लोक की यात्रा पर निकलने के पहले इस धरा पर का अंतिम पड़ाव, मुक्तिधाम !
मुक्तिधाम या श्मशान या कायांत ! शम का अर्थ है शव और शान का अर्थ शयन यानी बिस्तर। जहां मरे हुए शरीरों को रखा जाता है। मौत के बाद काया या शरीर का अंत होता है जीवन का अंत नहीं होता है, इसीलिए यह कायांत है, जीवांत नहीं। पर इस दुनिया में देह से ही मोह है, संबंध हैं, रिश्ते-नाते हैं, अपनत्व है, ममता है, इसीलिए इसके ख़त्म होने पर, नष्ट होने पर परिजनों का दुखी होना अत्यंत स्वाभाविक है। दुखी और व्यथित दिलो-दिमाग से उस समय सारे इंतजाम करना, व्यवस्था करना बहुत मुश्किल हो जाता है। उन हालातों और परेशानियों को समझते हुए अब सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त, उस समय की जरुरत की सारी सामग्री और वस्तुओं को एक ही जगह उपलब्ध करवाने की व्यवस्था मुक्तिधामों में ही कर दी गयी है। नहीं तो बांस, बल्ली, पुआल, पूजा का सामान, कपडे-लत्ते, जूता-चप्पल इत्यादि दसियों तरह के सामान के लिए अलग-अलग जगहों पर जाना पड़ता था। अब तो जैसे क्रिश्चियन समाज में ताबूत मिलते हैं उसी तरह बनी-बनाई अर्थी भी उपलब्ध होने लगी है। इससे समय और परेशानी में काफी कमी आ गयी है।
हिंदू परंपरा के अनुसार शव-दाह के बाद अस्थियों का किसी धार्मिक स्थल पर विसर्जन तथा भस्मी को बहते जल में प्रवाहित करने का विधान है। पर अब नदियों-सरोवरों की स्वच्छता को बनाए रखने के लिए हर जगह भस्मी विसर्जन नहीं किया जाना उचित तो है पर एक समस्या का सबब भी बनता जा रहा है। क्योंकि दोनों ही कार्य अपनी जगह अति आवश्यक हैं। इसलिए भस्मी-विसर्जन के लिए दिल्ली में कुछ स्थान निर्धारित कर दिए गए हैं। जिससे किसी की भावना को ठेस भी ना पहुंचे और वातावरण भी सुरक्षित रहे। ऐसा ही एक स्थान है दिल्ली के अंतर्राजीय बस-अड्डे के पास, यमुना से लगा, मजनू के टिले का स्थान। जहां इसी नाम से एक भव्य गुरुद्वारा भी बना हुआ है। लोगों की भावनाओं को समझते हुए, सिख समुदाय ने यहां भस्मी-विसर्जन की अति उत्तम व्यवस्था कर एक बड़ी समस्या को हल कर समाज के सामने एक मिसाल पेश की है।
गुरूद्वारे के ठीक नीचे, बगल से दूषित जल-निरूपण के बाद पानी की एक धारा यमुना में मिलती है। उसी के ऊपर एक चबूतरा बना ऊके एक किनारे "फ्नेल" जैसा छेद बना भस्मी को पानी में डालने की व्यवस्था कर दी गयी है। जिससे लोगों को पानी-कीचड़ से छुटकारा तो मिल ही गया है, भस्मी का भी हवा में उड़ने से होने वाली समस्या से मुक्ति मिल गयी है। साफ़-सुथरे, सम्मान जनक तरीके से यह काम पूरा होने लगा है। इसके साथ ही पहले जो भस्मी के बोरे वगैरह को लोग यूँ ही इधर-उधर फेंक देते थे उसके लिए भी संस्था ने एक जगह बना, एक ना दिखने वाली बड़ी समस्या का निदान कर दिया है। सलाम है ऐसे लोगों को जिन्होंने इन सारी समस्याओं का निदान किया !
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-11-2017) को "नागफनी के फूल" (चर्चा अंक 2791) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी
स्नेह बना रहे
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