आज की पैर फैलाती आधुनिकता क्या कल की माओं में वह वात्सल्य, ममता, समर्पण का लेशमात्र भी छोड़ेगी जो माँ-बच्चों के पारस्परिक "बांड" के लिए अति आवश्यक होते हैं ? कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि ऐसी "मदर्स" साल के किसी एक दिन को "प्रॉजिनि या सन्स डे" घोषित करवा दें !
आज के दिन को पश्चिम से आयातित सभ्यता और बाजार ने मातृदिवस का नाम दिया है। दोनों के अपने-अपने कारण हैं। पश्चिम में संयुक्त परिवार ना के बराबर हैं। मौज-मस्ती की प्रवृत्ति अब संस्कृति का रूप ले चुकी है। सोच-रहन-सहन सब आत्मकेंद्रित हो गया है। प्रजनन क्रिया एक रोमांच, खेल, प्रयोग या उत्सुकता का माध्यम बन कर रह गयी है ! संतान के प्रति जिम्मेदारियां भार लगने लगी हैं। अपनी आजादी, अपने व्यक्तित्व, अपनी महत्वकांक्षाओं में व्यवधान ना पड़े इसलिए बच्चे को बचपन से ही "कृत्रिम" परिवेश में डाल दिया जाता है।खरीदा हुआ आवास, ख़रीदा हुआ संरक्षण, ख़रीदा हुआ भोजन, माँ-बाप व बच्चे में वह प्रेम, लगाव, ममत्व, अपनापन उपजने ही नहीं देते जो इन रिश्तों को उम्र भर बांधे रखते हैं। तभी तो वहां सरकार को बच्चों के लिए तरह-तरह के कानून बनाने पड़े हैं। वही बच्चा जब बड़ा होता है तो "कैरियर" की अंधी दौड़ में वह भी वही सब दोहराता है जससे वह गुजर चुका होता है। नाते-रिश्तों को याद करने-रखने के लिए दिन निश्चित कर दिए गए हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा बाजार ने उठाया है। जिसने अपनी सुरसा रूपी भूख को कुछ हद तक कम करने के लिए, साल के दिनों को किसी ना किसी रिश्ते से जोड़ उत्सव या समारोह का रूप दे अपना तो उल्लू सीधा किया ही साथ ही इंसान को अपनी गलतियों की ग्लानि से उभरने का एक मौका सा भी दे दिया।
हमारे देश में अभी भी कुछ हद तक संस्कृति बची हुई है। अभी भी गांव-कस्बों और कुछ-कुछ शहरों में संयुक्त परिवार का चलन कायम है। हमारे यहां माँ सिर्फ एक रिश्ता नहीं है यह तो अटूट बंधन है। इस केंद्र बिंदु के बिना परिवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जन्म देने वाली माँ को देवी का स्थान प्राप्त है, जो कभी भी अपनी तकलीफों की परवाह किए बिना अपनी संतान को बिना किसी प्रलोभन के हर अला-बला से बचाने के लिए, किसी भी उतार-चढ़ाव पर साथ देने के लिए हर क्षण तत्पर रहती है। क्या-क्या वह नहीं सहती अपनी संतान के लिए ! उसी के लिए साल में एक दिन निश्चित कर देने से उसके दिल पर क्या गुजरती होगी यह किसी ने कभी सोचा है ! पल-पल ममता लुटाने वाली को अपने ही बच्चों का प्यार पाने के लिए किसी एक दिन के इंतजार में अपनी आँखें पथरानी होती हैं ! अपने बच्चों की आवाज सुनने के लिए जिनके कान तरसते रह जाते हैं। हूक नहीं उठती होगी उनके दिल में जब कलेजे के टुकड़े आ गले न लगते होंगे !! पर जाने-अनजाने, बढती उम्र में वही सबसे ज्यादा उपेक्षित हो जाते हैं जब उन्हें सबसे ज्यादा सहारे की जरुरत होती है।
आज भी अधिकांश परिवारों में सुबह उठ सबसे पहले अपने माता-पिता के चरणस्पर्श करने की प्रथा बदस्तूर कायम है। हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने इसे इसीलिए बनाया था कि यही एक निस्वार्थ रिश्ता है जो सदा अपने बच्चों की भलाई का ही सोचता है, भूल से भी जो अपने बच्चों के अहित का ख्याल मन में नहीं ला सकता। दिन
की इस पहली क्रिया में मन से आशीर्वाद दिया जाता है। जिससे बच्चों को तो ठोस संबल मिलता ही है माता-पिता को भी आत्मिक संतोष की अनुभूति होती है। एक कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है तो मेरे ख्याल से, नब्बे प्रतिशत, वह हाथ और साथ माँ का ही होना चाहिए।
पर धीरे-धीरे अपने यहां भी परिस्थितियों में भी चिंताजनक बदलाव आने लगा है। जीवन-यापन उतना सरल नहीं रह गया है। आगे बढ़ने की होड़ सी मच गयी है। आज के, खासकर शहरी युवाओं में पश्चिमी भेड-चाल की दस्तक शुरू हो गयी है। हर संस्कृति में अच्छाइयां और कुछ बुराइयां होती हैं। पर बुराइयों पर मनभावन नकाब ऐसे चढ़े होते हैं की नीम-विकसित दिलो-दिमाग उस तरफ तुरंत आकर्षित हो, नाते-रिश्ते, रीती-रिवाज सब तिरोहित कर देते हैं। वही हो रहा है ! सच्चाई कड़वी है पर आज के महानगरों के कुछ तथाकथित अत्याधुनिक युवाओं की कार्यशैली, जो आज नहीं तो कल छोटे शहरों-कस्बों में भी अपनाई जाने लगेंगी, हमारी संस्कृति व परम्पराओं के बिलकुल विपरीत है। आज की पैर फैलाती आधुनिकता क्या कल की माओं में वह वात्सल्य, ममता, समर्पण का लेशमात्र भी छोड़ेगी जो माँ-बच्चों के पारस्परिक "बांड" के लिए अति आवश्यक होते हैं ? कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि ऐसी मदर्स किसी एक दिन को "प्रॉजिनि या सन्स डे" घोषित करवा दें !
आज के दिन को पश्चिम से आयातित सभ्यता और बाजार ने मातृदिवस का नाम दिया है। दोनों के अपने-अपने कारण हैं। पश्चिम में संयुक्त परिवार ना के बराबर हैं। मौज-मस्ती की प्रवृत्ति अब संस्कृति का रूप ले चुकी है। सोच-रहन-सहन सब आत्मकेंद्रित हो गया है। प्रजनन क्रिया एक रोमांच, खेल, प्रयोग या उत्सुकता का माध्यम बन कर रह गयी है ! संतान के प्रति जिम्मेदारियां भार लगने लगी हैं। अपनी आजादी, अपने व्यक्तित्व, अपनी महत्वकांक्षाओं में व्यवधान ना पड़े इसलिए बच्चे को बचपन से ही "कृत्रिम" परिवेश में डाल दिया जाता है।खरीदा हुआ आवास, ख़रीदा हुआ संरक्षण, ख़रीदा हुआ भोजन, माँ-बाप व बच्चे में वह प्रेम, लगाव, ममत्व, अपनापन उपजने ही नहीं देते जो इन रिश्तों को उम्र भर बांधे रखते हैं। तभी तो वहां सरकार को बच्चों के लिए तरह-तरह के कानून बनाने पड़े हैं। वही बच्चा जब बड़ा होता है तो "कैरियर" की अंधी दौड़ में वह भी वही सब दोहराता है जससे वह गुजर चुका होता है। नाते-रिश्तों को याद करने-रखने के लिए दिन निश्चित कर दिए गए हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा बाजार ने उठाया है। जिसने अपनी सुरसा रूपी भूख को कुछ हद तक कम करने के लिए, साल के दिनों को किसी ना किसी रिश्ते से जोड़ उत्सव या समारोह का रूप दे अपना तो उल्लू सीधा किया ही साथ ही इंसान को अपनी गलतियों की ग्लानि से उभरने का एक मौका सा भी दे दिया।
हमारे देश में अभी भी कुछ हद तक संस्कृति बची हुई है। अभी भी गांव-कस्बों और कुछ-कुछ शहरों में संयुक्त परिवार का चलन कायम है। हमारे यहां माँ सिर्फ एक रिश्ता नहीं है यह तो अटूट बंधन है। इस केंद्र बिंदु के बिना परिवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जन्म देने वाली माँ को देवी का स्थान प्राप्त है, जो कभी भी अपनी तकलीफों की परवाह किए बिना अपनी संतान को बिना किसी प्रलोभन के हर अला-बला से बचाने के लिए, किसी भी उतार-चढ़ाव पर साथ देने के लिए हर क्षण तत्पर रहती है। क्या-क्या वह नहीं सहती अपनी संतान के लिए ! उसी के लिए साल में एक दिन निश्चित कर देने से उसके दिल पर क्या गुजरती होगी यह किसी ने कभी सोचा है ! पल-पल ममता लुटाने वाली को अपने ही बच्चों का प्यार पाने के लिए किसी एक दिन के इंतजार में अपनी आँखें पथरानी होती हैं ! अपने बच्चों की आवाज सुनने के लिए जिनके कान तरसते रह जाते हैं। हूक नहीं उठती होगी उनके दिल में जब कलेजे के टुकड़े आ गले न लगते होंगे !! पर जाने-अनजाने, बढती उम्र में वही सबसे ज्यादा उपेक्षित हो जाते हैं जब उन्हें सबसे ज्यादा सहारे की जरुरत होती है।
आज भी अधिकांश परिवारों में सुबह उठ सबसे पहले अपने माता-पिता के चरणस्पर्श करने की प्रथा बदस्तूर कायम है। हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने इसे इसीलिए बनाया था कि यही एक निस्वार्थ रिश्ता है जो सदा अपने बच्चों की भलाई का ही सोचता है, भूल से भी जो अपने बच्चों के अहित का ख्याल मन में नहीं ला सकता। दिन
की इस पहली क्रिया में मन से आशीर्वाद दिया जाता है। जिससे बच्चों को तो ठोस संबल मिलता ही है माता-पिता को भी आत्मिक संतोष की अनुभूति होती है। एक कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है तो मेरे ख्याल से, नब्बे प्रतिशत, वह हाथ और साथ माँ का ही होना चाहिए।
पर धीरे-धीरे अपने यहां भी परिस्थितियों में भी चिंताजनक बदलाव आने लगा है। जीवन-यापन उतना सरल नहीं रह गया है। आगे बढ़ने की होड़ सी मच गयी है। आज के, खासकर शहरी युवाओं में पश्चिमी भेड-चाल की दस्तक शुरू हो गयी है। हर संस्कृति में अच्छाइयां और कुछ बुराइयां होती हैं। पर बुराइयों पर मनभावन नकाब ऐसे चढ़े होते हैं की नीम-विकसित दिलो-दिमाग उस तरफ तुरंत आकर्षित हो, नाते-रिश्ते, रीती-रिवाज सब तिरोहित कर देते हैं। वही हो रहा है ! सच्चाई कड़वी है पर आज के महानगरों के कुछ तथाकथित अत्याधुनिक युवाओं की कार्यशैली, जो आज नहीं तो कल छोटे शहरों-कस्बों में भी अपनाई जाने लगेंगी, हमारी संस्कृति व परम्पराओं के बिलकुल विपरीत है। आज की पैर फैलाती आधुनिकता क्या कल की माओं में वह वात्सल्य, ममता, समर्पण का लेशमात्र भी छोड़ेगी जो माँ-बच्चों के पारस्परिक "बांड" के लिए अति आवश्यक होते हैं ? कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि ऐसी मदर्स किसी एक दिन को "प्रॉजिनि या सन्स डे" घोषित करवा दें !
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-05-2017) को
टेलीफोन की जुबानी, शीला, रूपा उर्फ रामूड़ी की कहानी; चर्चामंच 2632
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी,
हार्दिक धन्यवाद
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