जब गुरु विशिष्ट को यह घटना मालुम पड़ी तो उन्होंने ऋषि विश्वामित्र को समझाया कि आपके क्रोध से पता नहीं आज कैसा अनर्थ हो जाता। आपने तो भक्त और भगवान् को ही आमने-सामने खड़ा करवा दिया था। विश्वामित्र जी को भी अपनी भूल का एहसास हुआ उन्होंने विशिष्ट जी से क्षमा मांगते हुए राम जी से अपना वचन वापस ले लिया
हमारे ग्रन्थों-पुराणों में जो कथा-कहानियां कही-बताई गयीं हैं, उनमें भगवान् की लीलाओं का वर्णन है जो किसी ना किसी प्रयोजनवश रचाई गयी होती हैं और अपने-आप में गूढार्थ समेटे रहती हैं। नहीं तो कोई सोच तो क्या कल्पना भी नहीं कर सकता कि हनुमान जी जैसे भक्त-शिरोमणि, खुद राम के ह्रदय समान, विनयशील, पूर्णतया समर्पित भक्त को भी अपने आराध्य, अपने इष्ट के सामने खड़ा होना पड़ा था !
हमारे ग्रन्थों-पुराणों में जो कथा-कहानियां कही-बताई गयीं हैं, उनमें भगवान् की लीलाओं का वर्णन है जो किसी ना किसी प्रयोजनवश रचाई गयी होती हैं और अपने-आप में गूढार्थ समेटे रहती हैं। नहीं तो कोई सोच तो क्या कल्पना भी नहीं कर सकता कि हनुमान जी जैसे भक्त-शिरोमणि, खुद राम के ह्रदय समान, विनयशील, पूर्णतया समर्पित भक्त को भी अपने आराध्य, अपने इष्ट के सामने खड़ा होना पड़ा था !
कथा इस प्रकार वर्णित है कि एक बार राजा शकुंतन शिकार के बाद लौट रहे थे। उनके मार्ग में पड़ने वाले एक आश्रम में गुरु वशिष्ठ, ऋषि विश्वामित्र और अत्रि मुनि यज्ञ कर रहे थे। बाहर से सिर्फ गुरु वशिष्ठ ही नज़र आ रहे थे। राजा को लगा कि मैं शिकार से लौट रहा हूँ, खून-पसीने से अपवित्र शरीर के साथ यज्ञ में शामिल होना उचित नहीं होगा। यह सोच उसने वहीँ से गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया और आगे बढ़ गया। यह बात नारद जी ने विश्वामित्र जी को बताई कि शकुंतन ने सिर्फ वशिष्ठ जी को प्रणाम किया आपको नहीं। इतना सुनते ही ऋषि विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित हो गए और क्रोधवश उन्होंने राम पास जा अपने अपमान की बात कही और उनसे कहा की सूर्यास्त होने से पहले शकुंतन का कटा हुआ सर मेरे समक्ष होना चाहिए अन्यथा तुम्हे मेरे श्राप का सामना करना पड़ेगा।
उधर नारद जी ने विश्वामित्र जी के क्रोध की बात शकुंतन को भी बताई और उसे अपनी रक्षा के लिए हनुमान जी की शरण में जाने को कहा क्योंकि उनके अलावा किसी में भी इतना सामर्थ्य नहीं था कि उसकी राम जी से रक्षा कर सके। परन्तु नारद जी को यह भी पता था कि अगर वह सीधे हनुमान जी के पास जाकर राम से अपनी प्राणो की रक्षा के लिए कहेगा तो हनुमान जी उसकी मदद नही करेंगे। इसलिए उन्होंने राजा को पहले हनुमान जी की माता अंजनी के पास जा उनसे बिना पूरी बात बताए अपने प्राण रक्षा का आशिर्वाद लेने को कहा। शकुंतन ने ऐसा ही किया। जब हनुमान जी को पूरी बात का पता चला तो वे धर्मसंकट में पड़ गए। एक तरफ उनके सब कुछ प्रभू राम थे तो दूसरी तरफ माँ का वचन और उनकी आज्ञा ! पर हनुमान जी से बड़ा
विद्वान और नीतिवान भी कौन था, उन्हें एक युक्ति सूझि, उन्होंने राजा को सरयू नदी के तट पर बैठ राम का नाम जपने को कहा और खुद उसके पीछे छोटा कद बना कर बैठ गए। श्री राम जब शकुंतन को ढूंढते हुए वहां पहुंचे तो उसे अपना ही नाम जपते पाया, श्री राम भी दुविधा में पड़ गए कि अपने भक्त का वध कैसे करें ! ऐसे समय में उन्हें हनुमान जी याद आ रहे थे परन्तु उनका भी कहीं पता नहीं था। हार कर अपने वचनों की रक्षा के लिए राम ने अपने बाणों से शकुंतन पर वार किया पर राम नाम के जप के प्रभाव से उनका कोई असर न होते देख उन्होंने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने की सोची। हनुमान जी ने स्थिति की नाजुकता समझ राजा को सिया-राम उच्चारण करने को कहा। भयभीत राजा ने डर के मारे इस उच्चारण के साथ हनुमान जी का नाम भी जपना शुरू कर दिया। इससे श्री राम के सारे दिव्यास्त्र उन्हीं के नाम के प्रभाव से बेअसर हो गए। राम भी कुछ-कुछ स्थिति को समझ गए थे, उन्होंने बाण चलाना रोक दिया क्योंकि उन्हें वहां हनुमान जी की उपस्थिति का आभास हो गया था सो उन्होंने हनुमान जी को पुकारा, सब कुछ ठीक होता देख हनुमान जी अपने रूप में हाथ जोड़ प्रभू के सामने आ खड़े हुए और सारी बात बताई। राम जी ने प्रसन्न हो उन्हें अपने गले लगा लिया और कहा कि तुमने आज फिर सिद्ध कर दिया कि स्वयं भगवान से भी बढ़कर ताकत उनके सच्चे भक्त में होती है।
विद्वान और नीतिवान भी कौन था, उन्हें एक युक्ति सूझि, उन्होंने राजा को सरयू नदी के तट पर बैठ राम का नाम जपने को कहा और खुद उसके पीछे छोटा कद बना कर बैठ गए। श्री राम जब शकुंतन को ढूंढते हुए वहां पहुंचे तो उसे अपना ही नाम जपते पाया, श्री राम भी दुविधा में पड़ गए कि अपने भक्त का वध कैसे करें ! ऐसे समय में उन्हें हनुमान जी याद आ रहे थे परन्तु उनका भी कहीं पता नहीं था। हार कर अपने वचनों की रक्षा के लिए राम ने अपने बाणों से शकुंतन पर वार किया पर राम नाम के जप के प्रभाव से उनका कोई असर न होते देख उन्होंने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने की सोची। हनुमान जी ने स्थिति की नाजुकता समझ राजा को सिया-राम उच्चारण करने को कहा। भयभीत राजा ने डर के मारे इस उच्चारण के साथ हनुमान जी का नाम भी जपना शुरू कर दिया। इससे श्री राम के सारे दिव्यास्त्र उन्हीं के नाम के प्रभाव से बेअसर हो गए। राम भी कुछ-कुछ स्थिति को समझ गए थे, उन्होंने बाण चलाना रोक दिया क्योंकि उन्हें वहां हनुमान जी की उपस्थिति का आभास हो गया था सो उन्होंने हनुमान जी को पुकारा, सब कुछ ठीक होता देख हनुमान जी अपने रूप में हाथ जोड़ प्रभू के सामने आ खड़े हुए और सारी बात बताई। राम जी ने प्रसन्न हो उन्हें अपने गले लगा लिया और कहा कि तुमने आज फिर सिद्ध कर दिया कि स्वयं भगवान से भी बढ़कर ताकत उनके सच्चे भक्त में होती है।
उधर जब गुरु विशिष्ट को यह घटना मालुम पड़ी तो उन्होंने ऋषि विश्वामित्र को समझाया कि आपके क्रोध से पता नहीं आज कैसा अनर्थ हो जाता। आपने तो भक्त और भगवान् को ही आमने-सामने खड़ा करवा दिया था। विश्वामित्र जी को भी अपनी भूल का एहसास हुआ उन्होंने विशिष्ट जी से क्षमा मांगते हुए राम जी से अपना वचन वापस ले लिया और राजा को भी अभय प्रदान कर भय-मुक्त कर दिया।
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (01-09-2016) को "अनुशासन के अनुशीलन" (चर्चा अंक-2452) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
जय श्री राम!
आभार शास्त्री जी
Manish ji, swagat hai.
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