डफ वादक और मंडली फाग गाते हुए, घर-घर जा यथायोग्य अभिवादन कर, रंग लगा, लगवा कर एक दो-तल वाली इमारत के दालान में इकट्ठा हो, अपने पूरे रंग में आ जाते थे। वहां इमारत के ऊपर के दोनों तल भरे रहते थे, बच्चों और महिलाओं से, जो अपने-अपने हथियारों के साथ लैस हो अनवरत उन पर रंगों की बरसात बदस्तूर जारी किए रहते थे। आज आश्चर्य होता है कैसे कलाकार थे वे, जो पानी की बेढब और तीखी बौछारों के बीच भी गायन का न सुर टूटने देते थे नाहीं ताल। डफ को पानी से बचाना एक अलग कलाकारी होती थी क्योंकि ज़रा सा पानी पड़ते ही उस पर मढा चमड़ा अपनी रंगत खो बेसुरा हो बैठता था.......
प्रकृति जब अपने पूरे तरुणाई के साथ पृथ्वी पर छा जाती है तभी बसंत का आगमन होता है जो अपने चरम पर
हमें देता है होली का तोहफा। अपने यहां त्यौहार ढेरों हैं। सबकी अपनी खासियत भी है। पर इसकी खुमारी ही कुछ अलग है। ऐसी मस्ती, ऐसा बिंदासपन, ऐसी हुल्लड़ता, ऐसा बिल्लौसपन और किसी भी उत्सव में नहीं पाया जाता, जिसमें समाज की तरफ से भी रोक-टोक में ढील दे दी जाती हो। यही एक ऐसा त्यौहार है जिसमें नए कपड़ों, नए जूतों या अन्य किसी नवीन चीज की जरुरत हौसला पस्त नहीं करती। होने वाला खर्च डराता नहीं है। उल्टे पुराने कपड़ों-चप्पलों की बन आती है। हर बंदा-बंदी डम्प कर दिए गए, नकार दिए गए पुराने कपड़ों में से इस दिन
पहना जा सकने वाला वस्त्र खोजने लगता है। यही एक ऐसा उत्सव है जिसमें सच्चा समाजवाद झलकता है। ना कोई बड़ा ना कोई छोटा, ना कोई अमीर ना कोई गरीब, ना कोई खरा ना कोई खोटा, सब बराबर।
अपने बचपन के समय की होली की बहुत याद आती है। कलकत्ता के पास कोननगर में स्थित थी, लक्ष्मीनारायण जूट मील, जहां बाबूजी कार्यरत थे। स्टाफ में मारवाड़ी समाज की बहुलता थी, तो होली भी राजस्थानी रंग-ढंग से ही मनाई जाती थी। हफ्ते भर पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थीं होली के स्वागत की। नयी चंग या डफ लायी जाती थी उसका तरह-तरह से परिक्षण कर तैयार किया जाता था। इतने सारे परिवारों के लिए ठंडाई, गुझिया, मिठाई, नमकीन इत्यादि का पर्याप्त मात्रा में इंतजाम किया जाता था। रंग तो फैक्ट्री में उपलब्ध होते थे पर व्यक्तिगत पिचकारियों की खरीद उनका रख-रखाव एक अलग काम हुआ करता था। उन दिनों प्लास्टिक का चलन नहीं था। पिचकारियां, पिचकारियों की तरह होती थीं। लोहे या पीतल की, तीन आकारों में छोटी,
मध्यम और बड़ी। उनमें दो तरह के "अड्जस्टमेंट" हुआ करते थे। एक फौव्वारे की तरह रंग फेंकता था, जिसकी दूरी के हिसाब से क्षमता कम होती थी। दूसरा एक धार वाला, जो कम से कम दस-बारह फुट तक पानी फेंक किसी को भिगो सकता था।
मील तो चौबीसों घंटे चलती थी। छुट्टी भी सिर्फ होली वाले दिन ही होती थी। इसलिए ड्यूटी के हिसाब से सारे कामों को अंजाम दिया जाता था। हफ्ते-दस दिन पहले से रात को डफ पर थपकियां पड़नी शुरू हो जाती थीं। "सर्रा-रा-रा" की गूंज देर रात तक मस्ती बरसाती रहती थी। वैसे असली फाग गायन हम बच्चों के सो जाने के बाद ही शुरू होता था। होली वाले दिन स्टाफ के युवा टोली बना मील-परिसर में चक्कर लगाना शुरू करते थे। आगे-आगे डफ वादक अपनी मीठी तान में फाग गाते हुए चला करता था, पीछे पूरी टोली सुर में सुर मिलाती चलती थी। घर-घर जा यथायोग्य अभिवादन कर, रंग लगा, लगवा कर एक दो-तल वाली इमारत के दालान में इकट्ठा हो, सब अपने पूरे रंग में आ जाते थे। ना कीचड़ या ग्रीस, ना कपड़ा फाडू
हुड़दंग। एक शालीनता तारी रहती थी पूरे माहौल में। वहां इमारत के ऊपर के दोनों तल भरे रहते थे, बच्चों और महिलाओं से, जो अपने-अपने हथियारों के साथ लैस हो अनवरत उन पर रंगों की बरसात बदस्तूर जारी किए
रहते थे। आज आश्चर्य होता है कैसे कलाकार थे वे, जो पानी की बेढब और तीखी बौछारों के बीच भी गायन का न सुर टूटने देते थे नाहीं ताल। डफ को पानी से बचाना एक अलग कलाकारी होती थी क्योंकि ज़रा सा पानी पड़ते ही उस पर मढा चमड़ा अपनी रंगत खो बेसुरा हो बैठता था।
रहते थे। आज आश्चर्य होता है कैसे कलाकार थे वे, जो पानी की बेढब और तीखी बौछारों के बीच भी गायन का न सुर टूटने देते थे नाहीं ताल। डफ को पानी से बचाना एक अलग कलाकारी होती थी क्योंकि ज़रा सा पानी पड़ते ही उस पर मढा चमड़ा अपनी रंगत खो बेसुरा हो बैठता था।
घंटों चलने वाले इन सब कार्यक्रमों के बाद संध्या समय होता था प्रीतिभोज का। खाना-पीना मौज -मस्ती, गाना-बजाना या फिर मैदान में पर्दा लगा प्रोजेक्टर के माध्यम से किसी फिल्म का शो। पर उस शाम का मुख्य आकर्षण होती थी ठंडाई जो वहीँ तैयार की जाती थी। जिसका स्वाद आज तक नहीं भुलाया जा सका है। उसके भी दो वर्ग हुआ करते थे, बच्चों और महिलाओं के लिए सादी और पुरुषों के लिए "बूटी" वाली। वहां का सारा
स्टाफ एक परिवार की तरह था। बड़े-छोटे का लिहाज, बड़ों के प्रति आदर-सम्मान तथा अनुशासन इतना कि मजाल है किसी बच्चे ने कभी आँख उठा कर भांग वाले पेय को देखा भी हो उधर युवा भी अपने से बड़ों का लिहाज कर ही उसका सेवन करते थे। जिस पर शिव जी की कृपा कुछ ज्यादा होने लगती वह चुपचाप वहां से खिसक लेता था। ना कभी हुड़दंग देखा सुना गया न ही कभी किसी गलत हरकत उभरने दिया गया।
कैसे थे वे दिन और कैसे थे वे लोग !!!
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-03-2016) को "होली आयी है" (चर्चा अंक - 2290) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रंगों के महापर्व होली की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Sach, Ab Bahut Kuch Badal Gaya Hai...
Happy holi
Mere blog ki new post par aapke vicharo ka swagat hai..
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