तभी मैंने एक धमाका सा कर दिया यह कह कर कि मेरे चाचाजी एक ऐसा साबुन लाए हैं मेरे लिए, जो कितना भी गहरा रंग हो उसे मिनटों में छुड़वा सकता है, इतना कह मैंने सिन्थॉल की एक टिकिया उनके सामने रख दी। सब उसे उठा, देख, सूंघ कर ऐसे हैरत में पड़े थे जैसे वह साबुन न हो कोई जादू की टिकिया हो पर खुश भी हो रहे थे उन सब को पता था कि उस सारे साजो-सामान का मैं अकेला नहीं, वे सब भी भरपूर उपयोग करने वाले थे ......
कई बार बेहद पुरानी यादें भी ताजा होकर दिलो-दिमाग को गुदगुदा जाती हैं। जिससे बरबस चेहरे पर मुस्कान खिंच जाती है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ, जब नहाने के वक्त साबुन की नई बट्टी के "रैपर" को खोला, वर्षों पहले की एक घटना जीवंत हो उठी। वह भी शायद इस कारण कि अभी-अभी होली हो कर गुजरी है। वैसे तो नहाने के साबुन पर मेरे यहां प्रयोग चलते रहते हैं। नए-पुराने, देश-विदेश के उत्पादों उनके दावों, खासियतों को परखा जाता रहता है। पर घूम-फिर कर गोदरेज कंपनी के "सिन्थॉल" पर ही हम आ टिकते हैं। वह भी सबसे
पहले वाले हरे रंग और लाल कवर वाले उत्पाद पर। जिस पर आजकल "original" लिखा रहता है।
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तब |
बात तब की है जब मेरे लिए नन्हें-मुन्ने का संबोधन एक साथ न होकर अलग-अलग होने लगा था। हमलोग तबके कलकत्ता के नजदीक कोन्नगर में रहा करते थे। होली के एक-दो दिन पहले मेरे चाचा जी तरह-तरह के तोहफों के साथ वहीँ आ गए थे। उन दिनों सारे परिवार में मैं ही अकेला बच्चा था, सो अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है। तो मैं उनकी गोद में बैठा सब कुछ खोल-खोल के देख रहा था। तभी एक पैकेट से छह सिन्थॉल साबुन की बट्टियां भी निकलीं। उस समय तो इतना पता नहीं था पर बाद में जाना था कि गोदरेज ने जो अपना नया साबुन निकाला था ये वही था। पर अपन को इस सब की जानकारी से क्या लेना-देना था ! हमें तो यही लग रहा था कि होली है, उसके लिए ख़ास साबुन होगा रंग उतारने वाला। यही सोच हमने तो अपना सामान उठाया जिसमें वह साबुन भी था और चल दिए दोस्तों में रुआब गांठने। मित्र-मंडली मेरी पिचकारी, तरह-तरह के गीले-सूखे रंग, गुलाल इत्यादि देख-परख कर खुश हो रही थी।
क्योंकि उन सब को पता था कि उस सारे साजो-सामान का मैं अकेला नहीं, वे सब भी भरपूर उपयोग करने वाले थे। उन दिनों जब तक आपस में कुछ अनबन ना हो जाए सब कुछ सबका साझा ही रहता था और अनबन होती भी कितने समय के लिए थी ! तभी हमने एक धमाका कर दिया यह कह कर कि मेरे चाचाजी एक ऐसा साबुन लाए हैं मेरे लिए, जो कितना भी गहरा रंग हो उसे मिनटों में छुड़वा सकता है, इतना कह मैंने सिन्थॉल की एक टिकिया उनके सामने रख दी। सब उसे उठा, देख, सूंघ कर ऐसे हैरत में पड़े थे जैसे वह साबुन न हो कोई जादू की टिकिया हो। सच कहूं तो अपन भी उस समय यही समझ रहे थे कि होली पर ऐसे साबुन के लाने का एक ही मतलब हो सकता है जो हम समझ और समझा रहे थे।
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अब |
आज भी जब वह वाकया याद आता है तो अपनी समझ और दोस्तों के भोलेपन को याद कर चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। कैसे निश्छल मन हुआ करते थे। कैसा अपनत्व हुआ करता था। दोस्त-मित्र भाइयों की तरह होते थे, कुछ तेरा-मेरा नहीं हुआ करता था। पर मन उदास भी हो जाता है आज और उस समय की तुलना कर !
6 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मूर्ख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह सिन्थॉल।
वाह बढ़िया
सच ही कहा बचपन की बाते अनायास ही मन को विभोर कर देती है | :)
बहुत ही बढि़या लेख। पढ़कर बहुत मजा आया। बहुत दिन हुए सिंथाल साबुन यूज नहीं किया सोच रहा हूं कि कल ले ही आऊं।
धन्यवाद, जमशेद जी, पर वही ऑरिजिनल वाला :-)
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