अब अपन राम, लिपे -पुते, पिचकारी घसीटते हुए पंचम सुर में गला फाड़ते घर की ओर जो उन्मुख हुए तो उस सौ गजी फासले में जो भी हमें देखता हंसे बिना नहीं रह पाता। इससे हमारा दुःख और भी कई गुना बढ़ जाता था। मेरे क्रंदन की आवाज सुनते ही शिव, जो घर में काम करता था, दौड़ा हुआ आया और कुछ समझते ना समझते मुझे माँ के हवाले कर दिया........
इंसान की बढती उम्र के साथ उसके दिमाग के बैंक के खाते में उसकी यादों रूपी धन की सदा बढ़ोत्तरी होती रहती है। जिस तरह जमा धन वक्त-बेवक्त काम आता है वैसे ही यादों की पूंजी मौका ए वक्त पर कभी-कभी दिल को सकून दे जाती है। कुछ यादों की तासीर आंवले की तरह होती है, जो उस समय तो कड़वी लगती है पर बाद में उसी में मिठास मिलने लगती है। जब भी कोई त्यौहार वगैरह आता है तो यही संचित यादें इंसान को वर्षों पीछे साथ ले जाती हैं। अब होली ने जैसे ही द्वार खटखटाया, यादों ने भी दिलो-दिमाग की खिड़कियां खोल दीं अतीत में झांकने के लिए।
वैसे तो होली के रंगों से परहेज किए क्यों, कैसे और कितने वर्ष बीत गए, याद नहीं पड़ता। पर उसकी बचपन की
यादें अभी भी चेहरे पर मुस्कराहट लाने से बाज नहीं आतीं। ख़ास कर दो घटनाएं, जिन्हें घटे कम से कम आधी सदी बीत चुकी होगी पर फिर भी वे कल ही की घटी लगती हैं। उन दिनों कलकत्ते के पास कोननगर की लक्ष्मी नारायण जूट मील में बाबूजी कार्यरत थे। ऊंचा पद और रुतबा था। घर में एकलौता बालक, मैं। वैसे भी मील के स्टाफ में पांच-सात बच्चे ही थे। सभी की नज़र-ए-इनायत मुझ पर रहती थी। हुड़दंगी होना तो बनता ही था। सब का चहेता, जिसकी फूँक सिर्फ बाबूजी के सामने सरकती थी।
उन दिनों दिवाली से ज्यादा होली के त्यौहार का बेसब्री से इंतजार रहता था। मुझे अभी भी अपनी बड़ी वाली पीतल की पिचकारी की याद है जो जिद कर के ली थी। हालांकि भरने और चलाने में बहुत जोर लगाना
पड़ता था। कभी-कभी तो मूँठ को जमीन पर टिका नली को दोनों हाथों से पकड़, शरीर का पूरा वजन डालना पड़ जाता था। होली के दो तीन दिन पहले से ही बाल्टी, पानी और पिचकारी मेरे दिन भर के साथी बन जाते थे। बंगले और मील को जाने वाले रास्ते के बीच एक छड़ों वाला भारी-भरकम गेट था। उसी के एक तरफ मेरा मोर्चा जमा करता था। मील की पारी बदलने के वक्त उधर से गुजरने वाले मजदूरों के जत्थे ही मेरी पिचकारी का निशाना बनते थे। अधिकांश हँसते, बचते, भाग लेते थे। पानी होता ही कितना था ! पर कोई-कोई प्यार से ही समझाने की कोशिश कर कहता था, बाबा (बच्चे के लिए संबोधन) हम लोग नहीं खेलता। हम पर रंग मत डालो। उस समय कहां जाति-धर्म का ज्ञान था, कहां इतनी समझ थी कि कोई क्यों होली नहीं खेलता ? लगता था कि पानी से बचने का बहाना कर रहा है। पर एक दो बार ध्यान आया कि जिनके लम्बी सी दाढ़ी होती है वही मना करते हैं। हालांकि उनकी मनाही में भी गुस्सा या आक्रोश नहीं होता था। पर क्यों करते हैं यह समझ के परे ही रहता था। आज के माहौल में तो कोई वैसा सोच भी सकता है क्या ?
दूसरी घटना जब भी याद आती है तो बेसाख्ता हंसी छूट जाती है। होली के ही दिन थे। शिकार तो मील की पारी बदलने पर ही मिलते थे। बाकी समय उनको तलाशना पड़ता था। सो एक दिन इसी तलाश में मील के औजार घर पहुँच गया, अपनी पिचकारी ले कर। एक बार, दो बार, तीन बार, प्यार से, बाबूजी का डर दिखा, सामान खराब होने की बात समझा, जब किसी भी बात का असर नहीं हुआ इस आफत की पोटली पर, तो कुछ तो सबक सिखाना ही था सो दो जनों ने मुझे पकड़ा और एक ने सफ़ेद ऑयल पेंट से मेरी बाहें और लातों को पोत दिया और चेहरे पर भी तिलक सा लगा छोड़ दिया। अब अपन राम, लिपे-पुते, पिचकारी घसीटते हुए पंचम सुर में गला फाड़ते घर की ओर जो उन्मुख हुए तो उस सौ गजी फासले में जो भी हमें देखता हंसे बिना नहीं रह पाता। इससे हमारा दुःख और भी कई गुना बढ़ जाता था। मेरे क्रंदन की
आवाज सुनते ही शिव, जो घर में काम करता था, दौड़ा हुआ आया और कुछ समझते ना समझते मुझे माँ के हवाले कर दिया। फिर जो धुलाई शुरू हुई, शायद घंटे से ऊपर ही कार्यक्रम चला होगा, तो होती ही चली गयी। माँ को यह चिंता थी कि बाबूजी के घर आने के पहले हालत काबू में आ जाए नहीं तो आज छितरैल पक्की है। जैसे-तैसे मुझे दुरुस्त किया गया। पर मजाल है, माँ ने किसी को कुछ कहा हो या किसी की शिकायत की हो ! सब छोटे-बड़े अपने ही तो हुआ करते थे। कुछ भी होता था तो पहले अपने बच्चे या खुद की गलती देखी जाती थी। आज कोई बाहर वाला छोड़िए, घर का रिश्तेदार ही किसी के बच्चे को कुछ कहने की हिम्मत नहीं रखता।
2 टिप्पणियां:
यह कैसा शीर्षक है ? पता नहीं ! पर होली में ऐसा ही कुछ नहीं होता ?
बहुत बढ़िया सच कुछ अलग सा ही है .
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