गुरुवार, 2 जुलाई 2015

"बाज़ार से नहीं गुजरा हूँ, फिर भी खरीददार हूँ",

कहा जाता था कि "बाज़ार से गुजरा हूँ, पर खरीददार नहीं हूँ" पर उपभोक्ता संस्कृति ने उसे उलट कर "बाज़ार से नहीं गुजरा हूँ फिर भी खरीददार हूँ", कर दिया है। मैं ऐसी जगह जाने से कतराता हूँ, जहां फांसने की पूरी चाक-चौबंद तैयारी कर रखी गयी हो।  इस कतराहट को जानते हुए भी जब कभी श्रीमती जी कुछ अलग अंदाज में कहती हैं कि चलो न ज़रा मॉल से कुछ सामान ले आएं, तो समझ में आ जाता है कि फिर छुरी पर खरबूजे को गिराने की तैयारी हो चुकी है, फिर रात के भोजन को बेस्वाद होने से भी बचाना होता है सो  !!!

पिछले दस-पंद्रह सालों में कितना कुछ बदल गया है हमारे चारों ओर के परिवेश में। वह भी बिना किसी शोर-शराबे के। रहन-सहन, चाल-ढाल, सोच-विचार हर चीज में परिवर्तन हुआ है। जीवन कुछ आसानी महसूस करने लगा है। रोजमर्रा की जद्दो-जहद कुछ कम हो गयी है। सारे बदलाव अच्छाइयों के लिए ही किए जाते हैं पर क्या ऐसा हो पाता है? अच्छाइयों के साथ कुछ बुराइयां भी दबे पांव, बिन बुलाए चली आती हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे।

अब बाज़ार को ही लीजिए। उसने तो शायरों की धारणाएं ही बदल कर रख दी हैं। कहा जाता था कि "बाज़ार से गुजरा हूँ, पर खरीददार नहीं हूँ" पर उपभोक्ता संस्कृति ने उसे उलट कर "बाज़ार से नहीं गुजरा हूँ, फिर भी खरीददार हूँ", कर दिया है। अपनी घरेलू ख़रीददारी को ही लें। पहले हर छोटी-बड़ी परचून या रोजमर्रा के सामान की दुकान पर ग्राहक को बाहर ही खड़े हो कर अपनी जरुरत बतानी होती थी जिसके अनुसार, उसके बजट के दस-पांच रूपये ऊपर-नीचे में सामान मिल जाता था। पर अब तो आधुनिक दुकानों को आपके सामने पूरी तरह बिछा दिया जाता है। हमें लगता है कि अब अपनी मर्जी से हम चुनाव कर सकते हैं। पर इनके तरह-तरह के प्रलोभन और सहूलियतें अपने मकड़जाल में अच्छे-अच्छों को चकरघिन्नी बना डालते हैं। ये मॉल हमारी जेब का माल इतनी खूबी से निकलवा लेते हैं कि हमें कानों-कान खबर नहीं हो पाती। आप बाज़ार भाव के अनुसार कैसा भी बजट बना कर जाएं, पांच-सात सौ ऊपर लगना तय है। पुरानी दुकानों में हर चीज अपनी जगह पर स्थायी तौर पर रखी जाती थी जिससे दूकान के सहायकों को उसे खोजने में दिक्कत न हो और ग्राहक  को भी जल्दी सामान मिल जाए। पर अब जान-बूझ कर सोची-समझी रणनीति के तहत एक निश्चित अवधि के पश्चात जिंस का स्थान बदल दिया जाता है, जिससे कि आप सिर्फ अपने मतलब का सामान ले कर ही न चलते बनें, उसे खोजने के दौरान और भी जरुरी-गैरजरूरी वस्तुएं आपकी नज़र के दायरे में आती रहें, जिससे जरुरत होने ना होने पर भी आपको भर्मित कर आपकी खरीददारी का दायरा कुछ और बढ बाजार को फायदा दिला सके।और इसके लिए सामानों को भी "आधुनिक लुक" प्रदान कर दिया जाता है। अब जैसे भुट्टे को ही लें, मॉल में जब ग्राहक उसे अपनी  प्राकृतिक पोशाक के बदले डिजायनर परिधान में देखता है तो उसे लपक लेने से अपने को नहीं रोक पाता और अपनी जेब का छेद और बड़ा कर लेता है।
मैं ऐसी जगह जाने से कतराता हूँ, जहां फांसने की पूरी चाक-चौबंद तैयारी कर रखी गयी हो।  इस बात को जानते हुए भी जब कभी श्रीमती जी कुछ अलग अंदाज में कहती हैं कि चलो न ज़रा मॉल से कुछ सामान ले आएं, ज्यादा नहीं है बस पांच-सात चीजें ही हैं। उस समय यदि मैं कहूँ भी कि लिस्ट भेज दो या किसी से मंगवा लो तो उलटे असर की संभावना बढ़ जाती है और रात के खाने के बेस्वाद हो जाने के डर से गाडी निकलनी पड़ती है साथ ही समझ भी आ जाता है कि फिर छुरी पर खरबूजे को गिराने की तैयारी हो चुकी है। इन मॉल्स की महिमा तो इतनी अपरंपार है कि बाबा रामदेव, जिनका अपना खुद का इतना बड़ा "नेटवर्क" है ग्राहकों को घेरने के लिए, वे भी मॉल के मायाजाल को समझते हुए अपने उत्पादन वहां रखवाने लगे हैं।

अब मैं और आप तो यही गुनगुना सकते हैं, "मॉल अनंत मॉल 'महिमा' अनंता।
जय हो !!!  
               

4 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, तीन सवाल - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Aapka bhi aabhar

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

बढ़िया जी - बेहतरीन

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

रस्तोगी जी, धन्यवाद

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