एक नायाब कला है चाय में बिस्कुट डुबा कर उसे बिना गिराये मुंह तक लाना। दिखने में आसान सा यह काम इतना आसान भी नहीं है। इसके पीछे पूरा गणित काम करता है। इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। यह नैसर्गिक कला हमें विरासत में मिलती चली आई है :-)
बहुतेरी बार ऐसा लगता है कि हमारी कई ऎसी नैसर्गिक खूबियां हैं जो बेहतरीन कला होने के बावजूद किसी इनि-मिनी-गिनी रिकॉर्ड दर्ज नहीं हो पायी हैं। ऐसा नहीं होने का कारण यह भी है कि इस ओर हमने कभी कोई कोशिश ही नहीं की है। ऐसी ही एक नायाब कला है चाय में बिस्कुट डुबा कर उसे बिना गिराये मुंह तक लाना।
दिखने में आसान सा यह काम इतना आसान भी नहीं है। इस सारे क्रिया-कलाप में तन्मयता, एकाग्रता, कारीगरी और विशेषज्ञता की जरुरत होती है, जिसे हम बिना किसी प्रयास के अंजाम दे देते हैं। इसके पीछे पूरा गणित काम करता है। ऐवंई हम गणित में जगतगुरु नहीं बन गए थे। पर चूँकि यह हमारे यहां बहुत आम बात है इसलिए इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। अपने-आप को माडर्न समझने वाले चाहे इसे हिकारत की नज़र से देखें पर उससे इसकी अहमियत कम नहीं हो जाती। इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। यह नैसर्गिक कला हमें विरासत में मिलती चली आई है। पहले बिस्कुटों की इतनी विभिन्न श्रेणियाँ नही होती थीं । परन्तु तरह-तरह के बिस्कुट, केक, रस या टोस्ट के बाजार में आ जाने के बावजूद हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। हमारी प्राकृतिक सूझ-बूझ ने सब के साथ अपनी "टाइमिंग" बैठा ली है। जहां "ग्लूकोज़" या "बेकरी" के उत्पादों का भिगोने का समय अलग होता है वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीमकरैकर" का कुछ अलग। यहां भी पूरा स्वाद का मामला है। यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को रसना लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता। यह सारा काम सेकेण्ड के छोटे से हिस्से में पूरा करना होता है। यदि बिस्कुट चाय के प्याले में गिर गया तो समझिए कि आपकी चाय की ऐसी की तैसी हो गयी। उसका पूरा स्वाद बदल जाता है बिस्कुट की तो छोड़ें वह तो किसी और ही गति को प्यारा हो चुका होता है। पर ऐसा होता नहीं है, .01 प्रतिशत की गफलत होती हो तो हो, वह भी बच्चों द्वारा, नहीं तो ऐसा बहुत कम ही होता है कि किसी ने इस प्रयोग के दौरान अपनी चाय खराब की हो। अब चूंकि बाहर वाले तथाकथित विकसित देशवासी इस कला को अपना या समझ नहीं पाए हैं तो उन्होंने इसे कमतर आंकने या अकवाने का दुष्प्रचार चला रखा है। पर कुछ भी हो हमें अपनी यह विरासत जिंदा रखनी है, इस कला को पोषित करते रहना है, इसे कला जगत में इसका अपेक्षित सम्मान दिलवाना है
बहुतेरी बार ऐसा लगता है कि हमारी कई ऎसी नैसर्गिक खूबियां हैं जो बेहतरीन कला होने के बावजूद किसी इनि-मिनी-गिनी रिकॉर्ड दर्ज नहीं हो पायी हैं। ऐसा नहीं होने का कारण यह भी है कि इस ओर हमने कभी कोई कोशिश ही नहीं की है। ऐसी ही एक नायाब कला है चाय में बिस्कुट डुबा कर उसे बिना गिराये मुंह तक लाना।
दिखने में आसान सा यह काम इतना आसान भी नहीं है। इस सारे क्रिया-कलाप में तन्मयता, एकाग्रता, कारीगरी और विशेषज्ञता की जरुरत होती है, जिसे हम बिना किसी प्रयास के अंजाम दे देते हैं। इसके पीछे पूरा गणित काम करता है। ऐवंई हम गणित में जगतगुरु नहीं बन गए थे। पर चूँकि यह हमारे यहां बहुत आम बात है इसलिए इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। अपने-आप को माडर्न समझने वाले चाहे इसे हिकारत की नज़र से देखें पर उससे इसकी अहमियत कम नहीं हो जाती। इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। यह नैसर्गिक कला हमें विरासत में मिलती चली आई है। पहले बिस्कुटों की इतनी विभिन्न श्रेणियाँ नही होती थीं । परन्तु तरह-तरह के बिस्कुट, केक, रस या टोस्ट के बाजार में आ जाने के बावजूद हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। हमारी प्राकृतिक सूझ-बूझ ने सब के साथ अपनी "टाइमिंग" बैठा ली है। जहां "ग्लूकोज़" या "बेकरी" के उत्पादों का भिगोने का समय अलग होता है वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीमकरैकर" का कुछ अलग। यहां भी पूरा स्वाद का मामला है। यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को रसना लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता। यह सारा काम सेकेण्ड के छोटे से हिस्से में पूरा करना होता है। यदि बिस्कुट चाय के प्याले में गिर गया तो समझिए कि आपकी चाय की ऐसी की तैसी हो गयी। उसका पूरा स्वाद बदल जाता है बिस्कुट की तो छोड़ें वह तो किसी और ही गति को प्यारा हो चुका होता है। पर ऐसा होता नहीं है, .01 प्रतिशत की गफलत होती हो तो हो, वह भी बच्चों द्वारा, नहीं तो ऐसा बहुत कम ही होता है कि किसी ने इस प्रयोग के दौरान अपनी चाय खराब की हो। अब चूंकि बाहर वाले तथाकथित विकसित देशवासी इस कला को अपना या समझ नहीं पाए हैं तो उन्होंने इसे कमतर आंकने या अकवाने का दुष्प्रचार चला रखा है। पर कुछ भी हो हमें अपनी यह विरासत जिंदा रखनी है, इस कला को पोषित करते रहना है, इसे कला जगत में इसका अपेक्षित सम्मान दिलवाना है
कुछ इसी तरह की लियाकत अपने यहां गोल-गप्पे (पुचका, पानी-पूरी) खाने में भी काम आती है। इस नाजुक सी चीज, जिसमें खट्टे पानी के साथ साथ आलू और चने जैसी भारी चीजें भी डली होती हैं, उसे नरमाई के साथ हलके से पकड़, फूटने से बचाते हुए मुंह तक लाना कोई आसान काम नहीं होता। फिर तीन-चार जने भी खा रहे हों तो भी अपना अगला हिस्सा आने के पहले-पहले अपना दोना खाली करना पड़ता है। इस सारे क्रिया-कलाप में भी जिस तरह चाय-बिस्कुट जैसी तन्मयता, एकाग्रता, कारीगरी और विशेषज्ञता की जरुरत होती है उस विषय पर फिर कभी।
2 टिप्पणियां:
बात तो बिल्कुल ठीक है
वही तो :-)
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