फ़िल्मी क्षेत्र में कुछ लोग अपने "चिरागों-मोमबत्तियों " को भी दिन का सूर्य समझ, दर्शकों पर थोपने की कोशीश करते नहीं थकते। ऐसे लोग यदि अपने बच्चों, रिश्तेदारों को फिल्मी नदी की धारा में नहीं तैरा पाते तो उन्हें टी. वी. या इश्तेहारों के तरण-ताल में अपने सुरक्षा उपकरणों के साथ उतारने में अपने रसूख का प्रयोग करने से नहीं चूकते। पर दर्शकों की नापसंदगी के कारण मजबूरन संबंधित कंपनी को आर्थिक नुक्सान सहते हुए उसे हटाना पड़ता है। गलती उस कंपनी की भी है जो चुके-लुटे-पिटे चेहरों की बदौलत अपना उत्पाद बेचने की हिमाकत करते हैं।
एक पुरानी फ़िल्म का गाना है, "कोई लाख करे चतुराई, कर्म का लेख मिटे न रे भाई।" यह अटल सत्य है कि भाग्य का लिखा बदलना विधि के हाथों में भी नहीं है। पर कुछ इंसान "छप्पर फटने" से या "खुदा के मेहरबान" होने से अपने क्षेत्र में कुछ रसूख हासिल कर लेते हैं तो अपनी महत्वकांक्षाओं के तहत वे किसी भी तरह की, ख़ास कर अपने जिगर के टुकड़ों की, नाकामी बर्दास्त नहीं कर पाते भले ही वे किसी भी काम के लायक न हों। पर ऐसी हस्तियों को लगता है कि वे अपने पद-रसूख या छवि का प्रयोग कर किसी को भी कैसी भी सफलता दिलवा सकते हैं। वे भूल जाते हैं कि अपनी हैसियत के चलते वे अपने प्रिय पात्र को कहीं भी किसी भी क्षेत्र में प्रवेश तो दिला सकते हैं पर वहां टिके रहने और अपना स्थान बनाए रखने के लिए उस पात्र में योग्यता होनी चाहिए। किसी गधे को मार-मार कर घोडा नहीं बनाया जा सकता। अपने को भाग्य-विधाता समझने वाले ऐसे लोग हर क्षेत्र में होते हैं, जिनके अनगिनत उदाहरण सबके सामने हैं, और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे लोग कभी बीती बातों से सबक भी नहीं लेते। सभी जानते हैं कि अपने समय के मशहूर खिलाडी अपने बेटे को भी खेल जगत की नामचीन हस्ती बनाने के लिए उसे दसियों राज्यों से पच्चीसों मौके दिलवा-दिलवा कर भी स्थापित नहीं कर पाए। नेताओं की तो बात ही छोड़ दें, अपने फरजंदों को बिना उनकी लियाकत परखे उन्हें हर चमकदार-बहुचर्चित सर्वाधिक लुभावने क्षेत्र में प्रवेशित करने के लिए क्या-क्या तिकड़में नहीं आजमाते। पर रपटीली जमीं पर टिकने के लिए खुद में हुनर होना जरुरी होता है। ये बात सबसे ज्यादा नजरंदाज फिल्मी क्षेत्र में होती है। कारण भी है, यह ऐसी जगह है जहां सालों-साल चमकीले नकली सिक्के असली पर भारी पड़ते आए हैं। जहां हर बाप को अपना बेटा दिलीप कुमार या अमिताभ बच्चन नज़र आता है वहीं हर लड़की खुद को मधुबाला या वहीदा रहमान से कम नहीं आंकती। पर एक बात है, यहां तकदीर बहुत काम आती है। बहुत बार कुछेक लोग अपने सपाट चेहरे, भावहीन अभिनय के बावजूद कुछ लटके-झटकों के साथ किसी कंधे-सीढ़ी का सहारा ले किसी तरह ठेल-ठाल कर धक्का-मुक्की कर अपनी जगह बना लेते हैं। विडंबना यह है कि इस खुदाई मेहरबानी को वे अपनी कला समझने की भूल जिंदगी भर करते रहते है। इसी मुगालते में वे अपने चिरागों-मोमबत्तियों को भी दिन का सूर्य समझ, येन-केन-प्रकारेण, लोगों पर थोपने की कोशीश करते नहीं थकते। उन्हें यह ध्यान नहीं रहता कि "पब्लिक सब जानती है।" उसकी संवेदनाओं या भावनाओं के साथ एक-दो बार खिलवाड़ किया जा सकता है, बार-बार नहीं।
पर मोह-माया-ममता कहां छूट पाती है। ऐसे लोग यदि अपने बच्चों, रिश्तेदारों को फिल्मी नदी की धारा में नहीं तैरा पाते तो उन्हें टी. वी. या इश्तेहारों के तरण-ताल में अपने सुरक्षा उपकरणों के साथ उतारने में अपने रसूख का प्रयोग करने से नहीं चूकते। पर ऐसे ऊल-जलूल इश्तिहार भी कहां लोगों को प्रभावित कर पाते हैं और दर्शकों की नापसंदगी के कारण मजबूरन संबंधित कंपनी को आर्थिक नुक्सान सहते हुए उसे हटाना पड़ता है। गलती उस कंपनी की भी है जो चुके-लुटे-पिटे चेहरों की बदौलत अपना उत्पाद बेचने की हिमाकत करते हैं। जबकि यह प्रमाणित हो चूका है कि अनजान चेहरों के साथ बनाए गए अच्छे मजमून और संदेश वाले इश्तिहार दर्शकों पर ज्यादा असर छोड़ते हैं। जबकि किसी सितारे के कारण लोगों का ध्यान उत्पाद पर कम 'सेलेब्रेटी' पर ज्यादा रहता है। अब दर्शकों को पसंद आए न आए पर ऐसे चेहरे अपने सरपरस्तों के कारण कुछ दिनों तक ही सही दृश्व माध्यम की बदौलत अपनी दमित इच्छा पूर्ति कर लेते हैं और ऊपर से कमाई अलग।
एक पुरानी फ़िल्म का गाना है, "कोई लाख करे चतुराई, कर्म का लेख मिटे न रे भाई।" यह अटल सत्य है कि भाग्य का लिखा बदलना विधि के हाथों में भी नहीं है। पर कुछ इंसान "छप्पर फटने" से या "खुदा के मेहरबान" होने से अपने क्षेत्र में कुछ रसूख हासिल कर लेते हैं तो अपनी महत्वकांक्षाओं के तहत वे किसी भी तरह की, ख़ास कर अपने जिगर के टुकड़ों की, नाकामी बर्दास्त नहीं कर पाते भले ही वे किसी भी काम के लायक न हों। पर ऐसी हस्तियों को लगता है कि वे अपने पद-रसूख या छवि का प्रयोग कर किसी को भी कैसी भी सफलता दिलवा सकते हैं। वे भूल जाते हैं कि अपनी हैसियत के चलते वे अपने प्रिय पात्र को कहीं भी किसी भी क्षेत्र में प्रवेश तो दिला सकते हैं पर वहां टिके रहने और अपना स्थान बनाए रखने के लिए उस पात्र में योग्यता होनी चाहिए। किसी गधे को मार-मार कर घोडा नहीं बनाया जा सकता। अपने को भाग्य-विधाता समझने वाले ऐसे लोग हर क्षेत्र में होते हैं, जिनके अनगिनत उदाहरण सबके सामने हैं, और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे लोग कभी बीती बातों से सबक भी नहीं लेते। सभी जानते हैं कि अपने समय के मशहूर खिलाडी अपने बेटे को भी खेल जगत की नामचीन हस्ती बनाने के लिए उसे दसियों राज्यों से पच्चीसों मौके दिलवा-दिलवा कर भी स्थापित नहीं कर पाए। नेताओं की तो बात ही छोड़ दें, अपने फरजंदों को बिना उनकी लियाकत परखे उन्हें हर चमकदार-बहुचर्चित सर्वाधिक लुभावने क्षेत्र में प्रवेशित करने के लिए क्या-क्या तिकड़में नहीं आजमाते। पर रपटीली जमीं पर टिकने के लिए खुद में हुनर होना जरुरी होता है। ये बात सबसे ज्यादा नजरंदाज फिल्मी क्षेत्र में होती है। कारण भी है, यह ऐसी जगह है जहां सालों-साल चमकीले नकली सिक्के असली पर भारी पड़ते आए हैं। जहां हर बाप को अपना बेटा दिलीप कुमार या अमिताभ बच्चन नज़र आता है वहीं हर लड़की खुद को मधुबाला या वहीदा रहमान से कम नहीं आंकती। पर एक बात है, यहां तकदीर बहुत काम आती है। बहुत बार कुछेक लोग अपने सपाट चेहरे, भावहीन अभिनय के बावजूद कुछ लटके-झटकों के साथ किसी कंधे-सीढ़ी का सहारा ले किसी तरह ठेल-ठाल कर धक्का-मुक्की कर अपनी जगह बना लेते हैं। विडंबना यह है कि इस खुदाई मेहरबानी को वे अपनी कला समझने की भूल जिंदगी भर करते रहते है। इसी मुगालते में वे अपने चिरागों-मोमबत्तियों को भी दिन का सूर्य समझ, येन-केन-प्रकारेण, लोगों पर थोपने की कोशीश करते नहीं थकते। उन्हें यह ध्यान नहीं रहता कि "पब्लिक सब जानती है।" उसकी संवेदनाओं या भावनाओं के साथ एक-दो बार खिलवाड़ किया जा सकता है, बार-बार नहीं।
पर मोह-माया-ममता कहां छूट पाती है। ऐसे लोग यदि अपने बच्चों, रिश्तेदारों को फिल्मी नदी की धारा में नहीं तैरा पाते तो उन्हें टी. वी. या इश्तेहारों के तरण-ताल में अपने सुरक्षा उपकरणों के साथ उतारने में अपने रसूख का प्रयोग करने से नहीं चूकते। पर ऐसे ऊल-जलूल इश्तिहार भी कहां लोगों को प्रभावित कर पाते हैं और दर्शकों की नापसंदगी के कारण मजबूरन संबंधित कंपनी को आर्थिक नुक्सान सहते हुए उसे हटाना पड़ता है। गलती उस कंपनी की भी है जो चुके-लुटे-पिटे चेहरों की बदौलत अपना उत्पाद बेचने की हिमाकत करते हैं। जबकि यह प्रमाणित हो चूका है कि अनजान चेहरों के साथ बनाए गए अच्छे मजमून और संदेश वाले इश्तिहार दर्शकों पर ज्यादा असर छोड़ते हैं। जबकि किसी सितारे के कारण लोगों का ध्यान उत्पाद पर कम 'सेलेब्रेटी' पर ज्यादा रहता है। अब दर्शकों को पसंद आए न आए पर ऐसे चेहरे अपने सरपरस्तों के कारण कुछ दिनों तक ही सही दृश्व माध्यम की बदौलत अपनी दमित इच्छा पूर्ति कर लेते हैं और ऊपर से कमाई अलग।
7 टिप्पणियां:
व्यवसाय का अंग है प्रचार और फिल्मी आकर्षण प्रचार में सहायक है।
प्रवीण जी,
स्वागत है। काफी लंबा अंतराल रहा।
बात सही है कि व्यवसाय और फिल्मी आकर्षण का घालमेल हो चुका है पर इन फिल्मी हस्तियों का कुछ तो फर्ज बनता है समाज के प्रति, जबकि ये लोग जानते हैं कि इनके चाहने वाले इनकी थोथी बातों पर भी विश्वास कर लेंगे। जानते-बूझते गुटके, डिब्बा बंद खाद्य-पदार्थो को सिर्फ अपने आर्थिक लाभ के लिए सही बताना कहाँ तक उचित है?
उत्पाद में गुणवत्ता हो तो उसका बाज़ार बनेगा है किसी की शक्ल देखकर उत्पाद खरीदना मूर्खता है यह कुछ दिनों का खेल भर हो सकता है
प्रेरक प्रस्तुति
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जयंती - बालकृष्ण भट्ट और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
satya vachan
हर्षवर्धन जी,
शुक्रिया।
जीतेन्द्र जी,
स्वागत है।
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