रेल गाड़ियों में सुरक्षा का मामला तो खैर दो हाथों में है, पहला भगवान और दूसरा खुद अपने ! पर खान-पान की हालत तो ना ही देखी-पूछी जाए तो बेहतर है। यदि इनका रख-रखाव इतना ही दूभर होता जा रहा है तो क्यों नहीं प्रयोग के तौर पर इसे कुछ समय के किए ही सही निजी हाथों में सौंप दिया जाए ? पर ऐसा होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि ऐसा हो गया तो यह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी सदा के लिए हाथों से निकल जाएगी।
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इससे कहीं बेहतर लोकल गाड़ी के डब्बे हैं |
देश की सबसे प्रतिष्ठित रेल गाड़ियों में राजधानी एक्स. की गिनती होती है, पर अलग - अलग राज्यों से चलने वाली राजधानियों के साथ शायद व्यवहार भी उनके स्थानों के हिसाब से किया जाता है। इसका उदाहरण है, छत्तीसगढ से नई दिल्ली तक चलने वाली राजधानी एक्स. का। हर नज़र से, हर हालत से, हर तरीके से यह अपनी हमनाम बहनों से उन्नीस ही नहीं पंद्रह-सोलह ही बैठती है। एक विडंबना तो यही है कि राजधानी हो कर भी इसे राजधानी से नहीं चलाया जाता। यह बिलासपुर से आरंभ होती है। फिर मंत्रियों- संतरियों-रसूखदारों की वजह से दो-अढ़ाई सौ की. मी. की दूरी में ही इसके पांच-पांच विराम स्थल हैं।
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अपनी हालत खुद बयां हो रही |
फिर जोड़-तोड़-जुगाड़ से इसके लिए बोगियों का इंतजाम किया जाता है। उनकी हालत भी अपनी हालत पर आंसू बहाती लगती है। यह तो गाडी का हाल है तो उसमें मिलने वाली सुविधाओं का हश्र क्या होना है, इसका अंदाज ही लगाया जा सकता। अब जो खुद ही भगवान भरोसे हो वह बेचारा अपने यात्रियों का क्या ख्याल रख पाएगा। उसमें मिलने वाले "बेडरोल" को देख लें या फिर "कैटरिंग" को। लगता नहीं कि उनका इंतजाम एक "प्रेस्टीजियस" गाडी के यात्रियों को ध्यान में रख कर किया जाता है। ऐसा महसूस होता है कि यात्रियों के खान-पान का जिम्मा संभालने वाली संस्था को नाहीं किसी का डर है नाहीं चिंता। लाख शिकायतों के बावजूद खाने के स्तर का कोई स्तर नहीं है। अतिश्योक्ति नहीं है पर ऐसा खाना शायद घर के पालतू भी न खाएं।
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इस आधी सिकी चीज को परौंठा कहते हैं |
पर वे लोग भी जानते हैं कि किसने रोज-रोज आना हैं और आम आदमी की फितरत है कि कोई झूठ-झमेले में नहीं पड़ना चाहता और इसी का लाभ उठा वे अपनी रोटियां सेके जाते है। यह भी हो सकता है कि इस इस काम का ठेका किसी भतीजे-भांजे ने ले रखा हो तो बस किसका किसने क्या बिगाड़ लेना है ! इसीलिए यह तमाशा सबके आगे
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यह झाग जैसी चीज 'आइसक्रीम' कहलाती है |
सीना ठोक कर चले जा रहा है। इसकी सफलता का एक छोटा सा कारण यह भी है कि यात्रियों को ख़ास कर गृहणियों को यात्रा के दौरान खाने-पीने की सामग्री बनाने ले जाने के झंझट से छुटकारा मिल जाता है सो एक दिन की बात ध्यान में रख जो मिलता है उसे नाक-भौं सिकोड़ने के बावजूद ग्रहण कर अपनी यात्रा पूरी कर सब कुछ भुला देते हैं। इतना सब होने के बावजूद गंतव्य पहुँचाने के पहले "वेटर" आप को दी गयी "सेवा" के बदले टिप भी चाहने लगे हैं क्या रेलवे का फर्ज नहीं बनता कि ऐसे किसी भी तरह के गलत चलन को रोके ? क्या कोई जिम्मेदार या सही मायनों में देश की इस सबसे अहम सेवा की चिंता करने वाला कोई इंसान इसकी ओर भी ध्यान देगा ?
लाख वायदों-घोषणाओं के बावजूद रेल गाड़ियों में यात्रियों की हालत जस की तस बनी हुई है। सुरक्षा का मामला तो खैर दो ही हाथों में है, पहला भगवान और दूसरा खुद यात्री के ! खान-पान की हालत तो ना ही देखी-पूछी जाए तो बेहतर है। अपनी समस्याओं का हल सिर्फ किराया बढ़ा कर निकालने के अलावा इस मंत्रालय की आँखें बंद ही रहती हैं। यदि इसका रख-रखाव दूभर होता जा रहा है तो क्यों नहीं प्रयोग के तौर पर इसे कुछ समय के लिए ही सही निजी हाथों में सौंप दिया जाता ? पर ऐसा होना बहुत मुश्किल है क्योंकि इसका संचालन करने वालों को अच्छी तरह मालूम है कि ऐसा हो गया तो यह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी सदा के लिए उनके हाथों से निकल जाएगी।
6 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-05-2015) को "कचरे में उपजी दिव्य सोच" {चर्चा अंक- 1992} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
शास्त्री जी,
आभार
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, क्लर्क बनाती शिक्षा व्यवस्था - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ब्लॉग बुलेटिन का आभार पोस्ट को शामिल करने के लिए
कम से कम राजधानी एक्सप्रेस में तो ऐसा नहीं हो
ओंकार जी,
राजधानी गाड़ियों में शायद यह सबसे ज्यादा उपेक्षित गाडी है, जिसका शायद कोई वली-वारिस नहीं है।
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