रविवार, 5 अक्टूबर 2014

फर्क है कुलू के दशहरे में और विजयादशमी में

सात दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में पहाड़ी जन-जीवन की मासूमियत, ज़िंदा-दिली, धार्मिक मान्यताएं, सामाजिक-आर्थिक अवस्था के साथ-साथ इतिहास, संस्कृति और रीति-रिवाजों, सबकी झलक एक जगह देखने को मिल जाती है। देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद का दहन नहीं किया जाता।
दशहरे का उत्सव 


आश्विन माह के दसवें दिन विजया दशमी या दशहरे का त्यौहार धूम-धाम से पूरे देश में मनाया जाता है। बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाने के लिए सांकेतिक रूप से हर साल रावण का पुतला अग्नि को समर्पित किया जाता है। पर जब सारे देश में विजयादशमी के दिन दशहरा उत्सव संपन्न हो जाता है, ठीक उसके दूसरे दिन हिमाचल के कुल्लू शहर में शुरू होता है "कुल्लू का दशहरा।" यह अपने आप में एक ऐसा बड़ा उत्सव है जिसे देखने देश-विदेश से पर्यटक उमड़ पड़ते हैं। सात दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में पहाड़ी जन-जीवन की मासूमियत, ज़िंदा-दिली, धार्मिक मान्यताएं, सामाजिक-आर्थिक अवस्था के साथ-साथ इतिहास, संस्कृति और रीति-रिवाजों सबकी झलक एक जगह देखने को मिल जाती है। देश के दूसरे हिस्सों की तरह यहां रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद का दहन नहीं किया जाता। यहां के दशहरे के प्रारंभ होने और मनाने की एक अलग कथा है।  
वर्षों पहले 1637  में कुल्लू घाटी में राजा जगत सिंह का राज था।  वैसे तो राजा लोक-प्रिय था, प्रजा
दरबार में पधारे देवी-देवता 
का भला चाहने वाला था पर उसे बहुमूल्य चीजों का संग्रह करने का शौक पागलपन की हद तक था। उसी के राज के टिपरी गांव में दुर्गा दत्त नाम का एक गरीब ब्राह्मण पूजा-पाठ कर अपना गुजर-बसर किया करता था। ब्राह्मण से किसी बात पर खफा एक आदमी ने राजा के कान भर दिए कि दुर्गा दत्त के पास कटोरा भर अति सुन्दर, बहुमूल्य तथा नायाब मोती हैं, जिन्हें उसने छिपा कर रखा हुआ है। राजा ने तुरंत दुर्गा दत्त के पास उन मोतीयों को राज खजाने में जमा करवाने का आदेश भिजवाया। दुर्गा दत्त ने हर नाकाम कोशिश की राजा को समझाने की कि उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है पर राजा न माना। उसके

राजघराने के वंशज 
उत्पीड़न से तंग आ ब्राह्मण ने अपने परिवार सहित अपने को घर में बंद कर आग लगा कर प्राण त्याग दिए। उसके दुखी मन से निकली आह के कारण कुछ ही समय पश्चात राजा को कोढ़ की बीमारी ने आ दबोचा उसे हर ओर कीड़े ही कीड़े नजर आने लगे। उसका खाना-पीना सब मुहाल हो गया।  उसकी बीमारी की खबर आग की तरह चारों दिशाओं में फैल गयी। कई तरह के इलाज आजमाए गए, हकीम, वैद्यों, ओझाओं, साधू-संतों के उपाय किए गए पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अंत में एक बैरागी बाबा जिनका नाम किशन दास था, उन्होंने राजा को अपने राज में रघुनाथ जी की मूर्ती की स्थापना कर अपना सब कुछ उनको अर्पित कर देने की सलाह दी। राजा ने अपने ख़ास आदमी दामोदर दास को अयोध्या भेज वहां के 'त्रेत नाथ' के मंदिर से रघुनाथ जी की मूर्ति को मंगवा कर कुल्लू के सुल्तानपुर इलाके में पूरे विधी-विधान से स्थापित करवाया। इसके लिए अयोध्या के विद्वान पंडितों को भी बुलवाया गया। पूजा-अर्चना के बाद प्रभु की मूर्ति के चरणामृत को ग्रहण करने के पश्चात राजा को
अपने आराध्यों को लाते भक्त 
बिमारी से मुक्ति मिली। 




इसके बाद राजा जगत सिंह ने वादे के अनुसार अपना सारा राज्य प्रभु को समर्पित कर उनका छड़ीबरदार बन प्रजा की सेवा करनी प्रारंभ कर दी। राजा ने घाटी के समस्त देवी-देवताओं को प्रभु रघुनाथ जी के दरबार में उनके सम्मान की खातिर हाजरी लगाने के लिए कुल्लू के ढालपुर इलाके में एकत्रित होने का आह्वान किया। 
तिल धरने को जगह नहीं रहती 

यह बात 1651 के आश्विन माह के पहले पखवाड़े की है। तब से यह प्रथा चलती आ रही है। चूँकि इसी समय देश भर में दशहरे के त्यौहार की धूम रहती है तो उसी कड़ी को थामते हुए इसका भी वैसा ही नामकरण हो गया। जिसने आज विश्व-व्यापी ख्याति हासिल कर ली है और इस अवसर पर यहां पैर धरने की जगह मिलना मुश्किल हो जाता है।                       

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

सामयिक ज्ञानवर्धक जानकारी प्रस्तुति हेतु आभार

Manoj Kumar ने कहा…

अच्छी रचना !
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और फॉलो कर अपने सुझाव दे !

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