गुरुवार, 7 अगस्त 2014

आना फगवाड़े के नूरे का दिल्ली, किस्मत आजमाने।

चुटकुलों को यदि जोड़ा जाए तो अच्छी भली कहानी बन सकती है. इसी ख्याल से यह प्रयास किया है।  आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी.  

आज आपको एक प्यारे से भोले से बंदे के बारे में बताता हूं। इनका नाम है नूरा। ये पंजाब के सतनाम पुर जिले के फगवाड़ा शहर के पास के एक गांव उच्चा पिंड के रहने वाले हैं। इनकी खासीयत है कि ये जो भी काम हाथ में लेते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए, उसे पूरा जरूर करते हैं। चाहे लोग मजाक बनाएं या हसीं उड़ाएं ये अपने में मस्त रहते हैं।

तो जनाब एक बार नूराजी के कोई संबंधी दिल्ली के मूलचंद अस्पताल में भर्ती थे। तो इन्हें दिल्ली आना पड़ा था। ये नई दिल्ली स्टेशन से पूछते-पूछाते क्नाट प्लेस आए और वहां एक आफिस जाते भले आदमी ने इन्हें बताया कि 342 नं की बस मूलचंद अस्पताल जाएगी। शाम को उसी आदमी ने अपने दफ्तर से लौटते हुए इनकी खास भेषभूषा की वजह से इन्हें पहचान और वहीं खड़े देख पूछा कि आप अभी तक यहीं खड़े हो तो इन्होंने खुश हो कहा कि बस 340 बसें निकल गयी हैं मेरी वाली भी आती ही होगी। नूरा जी अपनी जगह ठीक थे क्योंकि ये जहां रहते हैं वहां यात्री बस दिन में चार बार ही गुजरती है तो लोग बस को उसके नंबर से नहीं उनके क्रम से ही उन्हें अपनी सुविधानुसार काम में लेते हैं। पहली, दूसरी, तीसरी ईत्यादि के रूप में। वही बात इन्होंने यहां भी अपनाई थी।

इनके भोलेपन के ऐसे ही क्रिया-कलापों को भाई लोगों ने चुटकुलों का रूप दे, जगह और किरदार बदल-बदल कर सैंकड़ों बार सैंकड़ों जगह फिट कर दिया है।

अपने नूरा भाई पैदाईशी भोले हैं। युवावस्था का सूर्य उदय होते-होते इन्हें एक कन्या अच्छी लगने लगी थी। पर वह इनके भोलेपन का फायदा उठा  अपना मतलब निकालती रहती थी। पर जब इनके प्रस्ताव बढने लगे तो उसने एक फरमाइश रख दी कि मुझे "क्रोकोडाइल बूट" ला कर दो तब मैं तुम्हारी बात सुनुंगी। अब क्या था नूराजी चल दिए जंगल के दलदल की ओर। एक दिन, दो दिन हफ्ता बीत गया। घर में हड़कंप मच गया कि लड़का गया तो कहां गया। खोज खबर हुई तो बात का पता चला। सब लोग जंगल पहुंचे तो देखते क्या हैं कि आठ-दस मगरमच्छ मरे पड़े हैं और नूरा एक और पर निशाना साधे बैठा है। लोगों ने कहा अरे तू कर क्या रहा है ? तो पता है इन्होंने क्या जवाब दिया, अरे मुझे इनके बूट चाहिये थे और ये सारे के सारे नंगे पैर ही घूम रहे हैं। अब बताइये इतना भोला पर लगन का पक्का इंसान आपने देखा है कभी। 

इधर जब से हमारा नूरा दिल्ली घूम कर अपने पिंड़ लौटा है तब से उसे शहर में कुछ करने का कीड़ा काट गया है। कहां, वहाँ की रौनक, खुशहाली और कहां गांव का सूनापन, सुस्त आलम. रातदिन अब नूरा की आँखों में शहर समाया रहने लगा है। पर अकेले वहां जाने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी, सो गांव के अपने तीन लंगोटियों के साथ माथा-पच्ची करने के बाद वे चारों इस नतीजे पर पहुंचे कि मां-बाप पर बोझ बनने से अच्छा है कि एक बार चल कर किस्मत आजमाई जाए। हिम्मत है, लगन है, पैसा है, मेहनती हैं, भगवान जरूर सफल करेगा। पर सामने सवाल था कि करेंगे क्या? इसमें भी नूरे का ही अनुभव काम आया, शहर जो जा आया था। उसने बताया कि दिल्ली में इतनी गाड़ियां हैं कि आदमी तो दिखता ही नहीं। गाड़ी पर गाड़ी चढी बैठी है। समझ लो जैसे अपने खेतों में धान की बालियां। अब जैसे खेतों में  पानी का पंप होता है वैसे ही वहां गाड़ियों के लिए पेट्रोल पंप होते हैं। अरे लाईनें लग जाती हैं, नम्बर नहीं आता। हम पेट्रोल पंप खोलेंगे।
पर लायसेंस कैसे मिलेगा ?  एक सवाल उछला। घबड़ाने की बात नहीं है। वहां सिन्धिया हाऊस में मेरे मामाजी रहते हैं। बहुत पहुंच है उनकी,  वे सारा काम करवा देंगे। जवाब भी साथ-साथ आया।

बात तय हो गयी। चारों चौलंगे पहुंच गये दिल्ली। दौड़ भाग शुरु हुई, पता चला कि स्वतंत्रता सेनानी कोटे में एक पंप का आवंटन बचा है। सारे खुश। तैयारी कर पहुंचे गए इंटरव्यू देने। पता नहीं सरकारी अफसरों ने क्या देखा, क्या समझा, या फिर इनकी तकदीर का जोर था कि सारी औपचारिकताएं फटा-फट निपट गयीं और इन चारों भोले बंदों की मनचाही मुराद पूरी हो गयी. नूरा पार्टी को अपने लाभ से ज्यादा जनता का ख्याल था सो उनके हितों को मद्दे नज़र रख ऐसा इंतजाम किया गया कि इनके काम से सड़क वगैरह जाम ना हो और पंप खोल दिया गया। पर हफ्ता भर बीत गया, एक भी ग्राहक नहीं आया।
ऐसा क्यूं ?  क्योंकि भोले बंदों ने पंप पहली मंजिल पर खोला था। जिंदगी के पहले काम में ही असफलता।पर जो हिम्मत हार जाए वह नूरा कैसे कहलाए। उद्यमी बंदों ने सोच विचार कर उसी जगह एक रेस्त्रां का उद्घाटन कर दिया। पर भगवान की मर्जी यह भी ना चला। अब हुआ यह था, कि नए काम के उत्साह में ये लोग पेट्रोल पंप का बोर्ड़ हटाना ही भूल गये थे। बोर्ड़ बदला जा सकता था। पर जिद। जिस काम ने शुरु में ही साथ नहीं दिया वह काम करना ही नहीं। यह जगह ही मनहूस है। 


पर अब करें क्या गांव वापस जा हंसवाई तो करवानी नहीं थी. तभी मामाजी ने सुझाव दिया कि यहां टैक्सियों का कारोबार ज्यादातर अपने लोगों के हाथ में है वे तुम्हारी सहायता करेंगे, तो तुम लोग टैक्सी डाल लो. सुझाव सबको पसंद आया और सब बेच-बाच कर इस बार चारों ने एक सुंदर सी मंहगी गाड़ी खरीद ली।  गाड़ी आ गयी पूजा-पाठ कर सड़क पर उतार भी दी गयी। पर दिनो पर दिन बीत गये इन्हें एक भी सवारी नहीं मिली। कारण ?  चारों भोले बंदे, दो आगे, दो पीछे बैठ कर ग्राहक ढूंढने निकलते रहे थे। 

हर बार निराशा हाथ लगने से नूरे का दिमाग फिर गया.  हद हो गयी, यह शहर शरीफों का साथ ही नहीं देता। ईमानदारी से इतने काम करने चाहे, किसी में भी कामयाबी नहीं मिली। ठीक है, हमें भी टेढी ऊंगली से घी निकालना आता है। अब हम दिखाएंगे कि हम क्या कर सकते हैं.

चारों मित्रों ने मश्विरा कर उलटे काम करने की ठान ली। सारा आगा-पीछा सोच दूसरे दिन रात को प्लान बना अपने घर की पिछली गली से एक लड़के को अगवा कर उसे बुद्धा गार्डन ले गए. वहाँ जा कर उससे कहा कि वह अपने घर जाए और अपने बाप से चार लाख रुपये देने को कहे ऐसा ना करने पर तेरी जान ले ली जाएगी यह भी बता देना।
लड़का घर गया, अपने बाप को सारी बात बता दी। लड़के के बाप ने पैसे भी भिजवा दिए।
अरे!!!!  ये कैसे हो गया ?
ऐसा इसलिए क्योंकि लडके का बाप भी तो भोला बंदा ही था ना। :-) :-) :-)

3 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

बेहद पसंद आई।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

मनोज जी,
धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुमन जी,
आपको भी सपरिवार शुभकामनाएं

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...