गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

पति पत्नी और घोड़ा "आप" पर लागू थोडा-थोडा


ठीक यही हाल आज केजरीवाल और उनके दल का है। लोग ताक लगाए बैठे रहते हैं कि ये बंदा कुछ भी करे हमें "कमेंट" करना ही है। अब देखना यह है कि कहीं तानों से घबड़ा कर पति-पत्नी घोड़े को ही तो नहीं सर पर उठा लेते :-)  

आज दिल्ली में केजरीवाल की हालत और उन पर होते शब्द बाणों के प्रहार से एक पुरानी कहानी याद आ रही है।  
एक बार एक व्यक्ति अपनी पत्नी और अपने घोड़े के साथ भ्रमण पर निकलता है। घोड़े के साथ दोनों पैदल चल रहे थे।  उन्हें देख लोग हंसने लगे , देखो मूर्खों को साथ में घोड़ा है फिर भी पैदल चल रहे हैं। ऐसा सुन उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी को घोड़े पर बैठा दिया और खुद साथ-साथ चलने लगा. कुछ देर बाद वे लोग एक गांव से गुजरे तो वहाँ के लोग उसकी पत्नी पर ताना मारने लगे कि देखो पति बेचारा पैदल चल रहा है और ये महारानी घोड़े पर सवार है।  ऐसा सुन गांव के बाहर आ पति घोड़े पर बैठ जाता है और पत्नी घोड़े की रास थाम पैदल चलने लगती है।  कुछ दूरी पर उन्हें  महिलाओं का झुंड मिलता है जो उन्हें देख कर गुस्से में आ पति को फटकारने लगता है कि देखो कितना निर्दयी पति है खुद तो घोड़े पर बैठा है और बेचारी पत्नी को पैदल घसीट रहा है। धिक्कार है ऐसे व्यक्ति पर।  
इतना सुनते ही पति ने पत्नी को भी घोड़े पर बैठा लिया। पर क्या दुनिया में सब को खुश रखा जा सकता है ? अभी कुछ ही दूर गए थे कि कुछ लोगों ने इन्हें घेर लिया और डांटते हुए बोले कि क्या तुम मे ज़रा सी भी दया-ममता नहीं है। एक निरीह जानवर पर दोनों जने लदे हुए हो शर्म नहीं आती ?  

ठीक यही हाल आज केजरीवाल और उनके दल का है। लोग ताक लगाए बैठे रहते हैं कि ये बंदा कुछ भी करे हमें "कमेंट" करना ही है। अब देखना यह है कि कहीं तानों से घबड़ा कर पति-पत्नी घोड़े को ही तो नहीं सर पर उठा लेते :-) 

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

दिल के रिश्ते

एक छोटे से स्कूल में छोटी सी तनख्वाह पाने वालों का मन कितना विशाल हो सकता है इसका प्रमाण उसी दिन मैंने जाना। उनके उपकार का सिला तो मैं जिंदगी भर नहीं चुका पाऊँगी पर खून के रिश्तों से परे दिल के रिश्तों में पहले से भी ज्यादा विश्वास करने लग गयी हूँ..............

हमारी जिंदगी तरह-तरह की अनुभूतियों, खट्टे-मीठे अनुभवों, अनोखे घटना चक्रों से भरी पड़ी होती है। इन्हीं में से कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो सदा मन-मस्तिष्क पर अपनी छाप ताउम्र के लिए छोड़ जाती हैं, कर जाती हैं   इंसान को कायल इंसानियत का, बाँध जाती हैं परायों को भी एक अनोखे रिश्ते में।  

ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। मैं एक छोटे से स्कूल की शिक्षिका हूँ। बात करीब सात साल पहले की है। कुछ समय पहले जबर्दस्त आर्थिक नुक्सान से अभी पूरी तरह उबर नहीं पाए थे पर इसी बीच मेरे छोटे बेटे का पूना के एक एम. बी. ए. संस्थान में चयन हो गया।  उसकी कड़ी मेहनत रंग लाई थी, खुशी का माहौल था। पर मन के एक कोने में दाखिले की भारी-भरकम फीस के पैसों की चिंता भी जरूर थी, पर पढ़ाई के लिए मिलने वाले बैंक लोन के लुभावने विज्ञापनों से निश्चिंतता भी थी कि पैसों का इंतजाम हो ही जाएगा। इसके पहले कभी लोन लेने की जरूरत न पड़ने से ऐसे इश्तहारों की सच्चाई से हम अनभिज्ञ ही थे। पर जब बैंकों के चक्कर लगने शुरू हुए तो असलियत से सामना हुआ। बैंक में वर्षों से अच्छा भला खाता होने के बावजूद कर्मचारियों का रवैया ऐसा था मानो हम बैंक को ठगने आए हों। जिरह ऐसी जैसे इनकम टैक्स की चोरी की हो. उनकी रूचि लोन देने में नहीं न देने में ज्यादा थी। एक बार तो बैक के एक वरीयता प्राप्त सज्जन को शेखी बघारते भी सुना कि उन्होंने अपने कार्य काल में कभी किसी का लोन पास नहीं किया, कौन मुसीबत मोल ले। वहाँ किसी को भी इस बात का मलाल नहीं था कि वह किसी के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है। बीस दिन निकल गए थे। सारे कागजात पूरे होने के बावजूद काम सिरे नहीं चढ़ रहा था। कभी किसी कर्मचारी का तबादला हो जाता था, कभी कोई अफसर अवकाश पर चला जाता था, कभी निश्चित दिन और कोई अड़चन आड़े आ जाती थी। ज्यों-ज्यों फीस जमा करवाने की तारीख नजदीक आती जाती थी त्यों-त्यों हमारी मानसिक हालत बदतर होती जाती थी।  भीषण मानसिक तनाव के दिन थे।  ऐसा लगता था कि बेटे का भविष्य हाथ से निकला जा रहा है।  अब सिर्फ चार दिन बचे थे और किसी तरह आधी रकम का ही इंतजाम हो पाया था। 

उस दिन परेशानी की हालत में मैं स्कूल के स्टाफ रूम में बैठी थी, मन उचाट था, धैर्य जवाब दे चुका था. ऐसे में मन पर काबू न रहा और आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली। वजह तो सहकर्मियों से छुपी न थी, सब मुझे घेर कर ढाढस बधाने लग गए। पर फिर जो कुछ हुआ उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी, वह सब याद आते ही आज भी आँखें भर आती हैं। दो-तीन घंटे के अंतराल में ही मेरे सामने मेज पर दो लाख. जी हाँ दो लाख रुपयों का ढेर लगा हुआ था। ऐसी रकम जो हफ्तों से आँख-मिचौनी कर रही थी, मेरे सामने पड़ी थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ क्या न कहूँ। हालत यह कि जुबान बंद, आँखें भीगी हुई और मन अपने सहयोगियों के उपकार के आगे नतमस्तक था।  ऐसे आड़े  वक्त जब हम चारों ओर से थक-हार कर निराश हो चुके थे तब स्कूल में कुछ घंटे साथ बिताने वाले सहकर्मी देवदूत बन कर सामने आए। सुना था कि प्रभू किसी न किसी रूप में अपने संकट-ग्रस्त बच्चों की सहायता जरूर करते हैं, उस दिन ईश्वर ही मानों मेरे सहकर्मियों के रूप में आए थे।  

एक छोटे से स्कूल में छोटी सी तनख्वाह पाने वालों का मन कितना विशाल हो सकता है इसका प्रमाण उसी दिन मैंने जाना। उनके उपकार का सिला तो मैं जिंदगी भर नहीं चुका पाऊँगी पर खून के रिश्तों से परे दिल के रिश्तों में पहले से भी ज्यादा विश्वास करने लग गयी हूँ।  

बाद में लोन तो मिला पर कैसे मिला उसका जिक्र नाही किया जाए तो बेहतर है. आज मेरा बेटा बैंक में ही मैनेजर के पद पर है पर उसे यही सीख दी है कि किसी भी जरुरत मंद को जूते ना घिसने पड़ें यह सदा याद रखे।

सच्ची घटना पर आधारित।         

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

अब स्वर्ग में भीड़-भाड़ कम है

वही रोज की रुटीन, ना काम ना काज, ना थकान ना सुस्ती, ना हारी ना बीमारी, ना चिंता ना क्लेश, न लड़ाई न झगड़ा। कुछ भी तो नही था "टेस्ट" बदलने को. वैसे यह सब किस चिड़िया का नाम है, वहाँ के लोग जानते भी नहीं थे।  समय पर इच्छा करते ही हर चीज उपलब्ध। बस सुबह-शाम भजन-कीर्तन, स्तुति गायन, मौज-मस्ती। एकरसता से जीवन जैसे ठहर गया था।  

बात काफी पुरानी है। प्रभू ने नया-नया शौक पाला था, सृजन का। वे दिन-रात अपनी सृष्टि में मग्न रहा करते थे। नई-नई तरह की आकृतियां, वस्तुएं, कलाकृतियां बना-बना कर अपने क्रीड़ास्थल को सजा-सजा कर खुश होते रहते थे। समय के साथ और लगातार कुछ न कुछ निर्माण होते रहने से हो-हल्ला बढ़ने लगा. जगह की तंगी भी महसूस होने लगी। ऊपर से धीरे-धीरे स्वर्ग में रहनेवाली उनकी सर्वोत्तम रचनाएं वहां की एक जैसी जिंदगी और दिनचर्या से ऊबने लग गयीं। वही रोज की रुटीन, ना काम ना काज, ना थकान ना सुस्ती, ना हारी ना बीमारी, ना चिंता ना क्लेश, न लड़ाई न झगड़ा। कुछ भी तो नही था "टेस्ट" बदलने को. वैसे यह सब किस चिड़िया का नाम है, वहाँ के लोग जानते भी नहीं थे।  समय पर इच्छा करते ही हर चीज उपलब्ध। बस सुबह-शाम भजन-कीर्तन, स्तुति गायन, मौज-मस्ती। एकरसता से जीवन जैसे ठहर गया था।  

फिर वही हुआ जो होना था। सब जा-जा कर प्रभू को तंग करने, उनके काम में बाधा डालने लग गए। सुख का आंनद भी तभी महसूस होता है जब कोई दुख: से गुजर रहा होता है। अब स्वर्ग में निवास करने वाली आत्माएं जो परब्रह्म में लीन रह कर उन्मुक्त विचरण करती रहती थीं, उन्हें क्या पता था कि बिमारी क्या है, दुख: क्या है, क्लेश क्या है, आंसू क्यों बहते हैं, बिछोह क्या होता है, वात्सल्य क्या चीज है ममता क्या है, मंहगाई क्या है, अभाव क्या होता है। उन्हें आलू-प्याज या आटे-दाल का भाव क्या मालुम था।  

भगवान भी वहां के वाशिंदों की मन:स्थिति से वाकिफ थे। वैसे भी वहां की बढती भीड़ ने उनके काम-काज में रुकावट डालनी शुरु कर दी थी। सो उन्होंने इन सब ऊबे हुओं को सबक सिखाने के लिये एक "क्रैश कोर्स" की रूपरेखा बनाई। इसके तहत सारी आत्माओं को स्वर्ग से बाहर जा कर तरह-तरह के अनुभव प्राप्त कर उसके अनुसार फिर अपना हक़ प्राप्त करना था। पर इसके लिये एक रंगमंच की आवश्यकता थी सो प्रभू ने काफी चिंतन-मनन के बाद पृथ्वी का निर्माण किया। वहां के वातावरण को रहने लायक तथा मन लगने लायक बनाने के लिये मेहनत की गयी। हर छोटी-बड़ी जरूरत का ध्यान रख उसे अंतिम रूप दे दिया गया। पर आत्माओं पर तो कोई गति नहीं व्यापति। इसलिये उन्हें संवेदनशील बनाने के लिये एक माध्यम की जरूरत महसूस हुई इस के लिये शरीर की रचना की गयी. एकरसता ना रहे इसका पूरा ध्यान रखा गया।  किसी को गोरा, किसी को काला, किसी को पीत, किसी को गेहुंवां वर्ण दिया गया. रहने के लिए भी अलग-अलग वातावरणों की व्यवस्था की गयी।  किसी भी तरह की किसी को भी कोई कमी न हो इसका पूरा ध्यान रख प्रभू ने सब को धरा पर भिजवा दिया।  जहां स्वर्ग के एक क्षणांश की अवधि में रह कर हरेक को तरह-तरह के अनुभव प्राप्त करने थे।

अब हर आत्मा का अपना नाम था, अस्तित्व था, पहचान थी। उसके सामने ढेरों जिम्मेदारियां थीं। समय कम था काम ज्यादा था। पर यहां पहुंच कर भी बहुतों ने अपनी औकात नहीं भूली। वे पहले की तरह ही प्रभू को याद करती रहीं। कुछ इस नयी जगह पर बने पारिवारिक संबंधों में उलझ कर रह गयीं। पर कुछ ऐसी भी निकलीं जो यहां आ अपने आप को ही भगवान समझने लग गयीं। अब इन सब के कर्मों के अनुसार भगवान ने फल देने थे। तो अपनी औकात ना भुला कर भग्वद भजन करने वालों को तो जन्म चक्र से छुटकारा मिल फिर से स्वर्ग की सीट मिल गयी। गृहस्थी के माया-जाल में फसी आत्माओं को चोला बदल-बदल कर बार-बार इस धरा धाम पर आने का हुक्म हो गया। और उन स्वयंभू भगवानों ने, जिन्होंने पृथ्वी पर तरह-तरह के आतंकों का निर्माण किया था, दूसरों का जीना मुहाल कर दिया था, उनके लिये एक अलग विभाग बनाया गया जिसे नरक का नाम दिया गया। पर कुछ पहुंचे हुए भी थे जो नरक के लायक भी नहीं थे,  ऐसे महानुभावों के लिए के लिए पृथ्वी पर ही "व्यवस्था" कर दी गयी।  

अब स्वर्ग में भीड़-भाड़ काफी कम हो गयी है। वहां के वाशिंदों को भी आपस में अपने-अपने अनुभव बता-बता कर अपना टाइम पास करने का जरिया मिल गया है।

प्रभू निश्चिन्त हो आराम से अपनी निर्माण क्रिया में व्यस्त हैं।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

सोच, पहली बार मतदाता बने युवाओं की

 इनमें इक्का-दुक्का ही ऐसे थे जिन्होंने परिपक्वता का कुछ आभास देते हुए शहर के विकास को मद्देनज़र रख अपना मत दिया था। कुछ का मापदंड सायकिल और लैपटॉप रहे। अच्छे खासे प्रतिशत ने अपने परिवार का अनुसरण किया था। कईयों ने ऐसे ही "नाटो" को आजमाया था तो कईयों ने बिना सोचे समझे मौज-मस्ती में पहली बार मिली इस जिम्मेदारी को खिलवाड़ समझ दो-तीन बटन दबा दिए थे बिना परिणाम की चिंता किए।  

अभी-अभी संपन्न हुए चुनावों में लाखों युवाओं को, जो एक आंकड़े नुमी उम्र को पार कर गए थे, शिरकत करने का सिर्फ उस आंकड़े को पार करते ही अवसर मिल गया। आज नहीं तो कल उन्हें इस प्रक्रिया में आना ही था। पर सवाल यह उठता है कि क्या उस आंकड़े को छू जाने से ही बालक से युवा हुआ व्यक्ति क्या इतना परिपक्व हो जाता है कि वह अपनी बुद्धि से अच्छे-बुरे, हानि- लाभ की पहचान बिना किसी बाहरी प्रभाव के कर सके ? बालपन में अपनी ही दुनिया में रहने वाले को अचानक बड्डपन का भार दे क्या उससे यह आशा की जा सकती है कि वह देश की भलाई के लिए देश पर शासन करने वालों का चुनाव कर देश का भविष्य निर्धारित कर सके ? कहने का मतलब यह नहीं है कि यह उम्र अभी कम है या सारे युवा परिपक्व नहीं होते। कभी न कभी तो उन्हें यह भार अपने कंधों पर लेना ही है पर अधिकाँश ऐसे नए मतदाता पेशोपेश में रहते हैं. अपनी समझ, अपनी बुद्धी या अपनी सोच पर दृढ नहीं होते। ज्यादातर अपने परिवार के बड़ों का अनुसरण करते हैं।  कुछेक अपने साथियों के कहने पर चलते हैं, कुछेक के लिए यह छुट्टी की मौज-मस्ती का एक मनोरंजक पहलू होता है।  

यह सत्य मेरे सामने तब आया जब मैंने पहली बार मतदाता बने अपने भतीजे से पूछा कि उसने किसे वोट दिया। उसका जवाब बड़ा अप्रत्याशित था, उसने कहा कि वह सब को खुश रखने के लिए हर बार अलग-अलग दलों को वोट देगा। इस बार "इस" को दिया है अगली बार "उस" को और फिर किसी तीसरे को।  मैंने पूछा ऐसा क्यों ? तो बोला हमारे ग्रुप ने ऐसा ही फैसला किया है। हो सकता है कि अगले एक दो साल में उसे मतदान का महत्व समझ में आ जाए पर उसके पीछे आने वाली पीढ़ी भी क्या ऐसा ही करेगी? 
   
यह सुन मेरे में एक जिज्ञासा जगी कि कुछ ऐसे ही बच्चों से बात की जाए। यह कोई "सर्वे" नही था नहीं किसी नतीजे पर पहुँचने का मार्ग, सिर्फ एक जिज्ञासा को शांत करने का जरिया था। मैंने अलग-अलग जगहों के 100  बच्चों का लक्ष्य रखा था पर समयाभाव के कारण  63 से ही बात कर सका, जिनके जवाब गरीब तो नहीं अजीब जरूर थे।  इनमें इक्का-दुक्का ही ऐसे थे जिन्होंने परिपक्वता का कुछ आभास देते हुए शहर के विकास को मद्देनज़र रख अपना मत दिया था। कुछ का मापदंड सायकिल और लैपटॉप रहे। अच्छे खासे प्रतिशत ने अपने परिवार का अनुसरण किया था। कईयों ने ऐसे ही "नाटो" को आजमाया था तो कईयों ने बिना सोचे समझे मौज-मस्ती में पहली बार मिली इस जिम्मेदारी को खिलवाड़ समझ दो-तीन बटन दबा दिए थे बिना परिणाम की चिंता किए।  
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमारी या शिक्षण संस्थानों की जवाबदेही नहीं बनती कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी देने के पहले उस पौध को उसकी गंभीरता से अवगत करवा दिया जाए? उसे बताया और समझाया जाए कि इस जिम्मेदारी की  देश के भविष्य को तय करने में कितनी अहम् भूमिका है।  उनकी नासमझी कितने गलत हाथों को सक्षम बनाने की उत्तरदायी हो सकती है।  

यह तो शहर के पढने-लिखने वाले स्कूली शिक्षा पाने वाले बच्चों का हाल है. सोच कर ही मन घबड़ाता है कि दूर-दराज के ज्यादातर उचित शिक्षा विहीन उम्र के इस आंकड़े को प्राप्त करने वाले युवा कैसे-कैसे प्रलोभनों से और किस-किस से प्रभावित हो कैसे-कैसे लोगों को अधिकार सौंप देते होंगे।    

                 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

"ऐसी वाणी बोलिए सब का आपा खोए, औरन को विचलित करे आपहूं विचलित होए।"

जब पहली बार विपक्षी गुटों ने अपनी सरकार बनाई थी तो जनता या देश के हित में कुछ करने के बजाए सारे अंत्री-मंत्री श्रीमती इंदरा गांधी की बुराईयों, उनकी नीतियों के पीछे हाथ धो कर पड़ गए पर इंदिरा जी खुद तो शालीन बनी ही रहीं इसके अलावा अपने साथियों को भी कुछ कहने नहीं दिया था।  

समय ने भी क्या करवट बदली, कि हर शै बदली-बदली नज़र आने लगी है।  आदमी के रहन-सहन से लेकर कथो-किताबत पर असर साफ दिखाई पड़ रहा है।  पहले कहा जाता था "ऎसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए, औरन को शीतल करे, आपहू शीतल होए।" पर आज अन्य मान्यताओं के साथ इसको भी बदल कर कुछ ऐसा कर दिया गया है "ऐसी वाणी बोलिए सब का आपा खोए, औरन को विचलित करे आपहूं विचलित होए।" 

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी के चुनावों में भाषण वीरों के संवादों ने सब को दिया है। यह जानते हुए भी कि जुबान की चोट का घाव सब घावों से गहरा होता है और इसके अनगिनत प्रमाण हमारे इतिहास, कथा-कहानियों में बिखरे पड़े हैं. इसके बावजूद खुशफहमियों में सांस भरते कुछ लोगों ने अपने आकाओं को खुश करने के लिए अपनी बेलगाम, निरंकुश, अमर्यादित वाणी का ऐसा अंधड़ उड़ाया जिसमें उन्हीं के दल के द्वारा किए गए जनपयोगी कार्यों पर भी पर्दा पड़ गया।  उनके विष बुझे तीरों से लैस अनर्गल प्रलाप रूपी हाथियों ने अपने ही लोगों में हलचल मचा दी। 

आदि काल से हमारे देश में जनता ने कभी भी कटु भाषियों का साथ नहीं दिया है. कटु बोलने वाला सदा अपना ही अहित करता रहा है।  ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है, जब पहली बार विपक्षी गुटों ने अपनी सरकार बनाई थी तो जनता या देश के हित में कुछ करने के बजाए सारे अंत्री-मंत्री श्रीमती इंदरा गांधी की बुराईयों, उनकी नीतियों के पीछे हाथ धो कर पड़ गए पर इंदिरा जी खुद तो शालीन बनी ही रहीं इसके अलावा अपने साथियों को भी कुछ कहने नहीं दिया। जनता ने नए लोगों से जो आशाएं बांधी थी वे चकनाचूर हो गयीं। जनता को जन हित में कुछ होता न दिखने पर उसके जेहन में उनके द्वारा उठाए गए लौह कदमों की याद फिर ताजा हो गयी, परिणाम क्या रहा, लोगों ने उनके द्वारा लगाए आपात काल को भी भुला कर उन्हें फिर प्रचंड मतों के साथ सत्ता सौंप दी। 
इससे सबक न लेते हुए विश्व प्रताप सिंह ने भी वही गलती दोहराई, अपना सारा जोर शालीन राजीव गांधी की छवि बिगाड़ने, उन्हें नीचा दिखाने का एकमंत्र अपनाया जिसके फलस्वरूप जनता ने उन्हें ऎसी पटकनी दी कि कोई पूछने वाला भी नहीं रहा। उलटे राजीव जी और लोक-प्रिय बन कर उभरे।  

पता नहीं अपने ही परिवार, अपनी ही पार्टी में हुई ऐसी बातों से कोई सीख आज के देश के सबसे पुराने, संगठित और देश के हर हिस्से में अपनी उपस्थिति का अहसास करवाने वाले दल ने क्यों नहीं ली। यह और बात है कि दल के शिखर पर बैठे लोगों ने संयम बरता पर अपने कार्यकर्ताओं और प्रवक्ताओं पर नकेल नहीं कसी। जिससे कुछ ऐसी छवि उभर कर आई कि लोगों को लगने लगा कि यह सारी ब्यान बाजी ऊपर के इशारे पर हो रही है, जिसमे कुछ सच्चाई तो थी ही, साथ ही यह भी एहसास होने लगा कि खुद हर मोर्चे पर नाकाम रहने वाले अब दूसरों को भी काम नहीं करने देना चाहते। इसके विपरीत यदि यदि मुंहफट लोगों द्वारा दूसरों को इतिहास सिखाने की बजाए अपना इतिहास ही याद रहता और उनके बयानों पर लगाम कस उन्हें अपने द्वारा किए गए कार्यों और उनसे हुए फायदों की जनता को याद दिलाते रहने को कहा जाता तो दो फायदे होते एक तो जन-जन के बीच इनकी सभ्य और शालीन छवि बनती साथ ही जनता की अल्पकालीन स्मृति से किए गए अच्छे कामों का भी असर बरकरार रहता।  और फिर यदि विपक्ष के आग उगलाऊ भाषणों पर संयम बरता जाता तो भी जनता में भी दल के सुसंस्कृत होने का संदेश जाता। पर धनुष से निकला तीर तो शायद वापस आ भी जाए पर दल के तथाकथित हितैषियों ने वह कर डाला है जो सारा विपक्ष मिल कर भी नहीं कर पाता।          

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