वह तो हफ्ते दस दिन में मंदिर, गुरुद्वारे के लंगर से चार-पांच दिन का बटोर लाता हूँ तो ज़िंदा हूं, तुमसे तो वह भी नहीं होगा. हमारे विगत को जानते हुए कोइ हमारा स्मार्ट कार्ड या आधार कार्ड भी नहीं बनाएगा. तुमने जो किया है उससे बुढापे की पेंशन भी मिलने से रही। इसलिए पर्वों-त्योहारों खासकर होली को तो भूल ही जाओ जिसने हमारी यह गत बना दी थी
रामगढ़ की एतिहासिक लड़ाई के बाद सब कुछ मटियामेट हो चुका था. ना डाकुओं का दबदबा रहा, ना वो हुंकार, आदमी ही ना रहे तो गिनती क्या पूछनी. ले दे कर सिर्फ सांभा बचा था, वह भी चट्टान के ऊपर किसी तरह छिपा रह गया था, इसलिए।
रामगढ़ की एतिहासिक लड़ाई के बाद सब कुछ मटियामेट हो चुका था. ना डाकुओं का दबदबा रहा, ना वो हुंकार, आदमी ही ना रहे तो गिनती क्या पूछनी. ले दे कर सिर्फ सांभा बचा था, वह भी चट्टान के ऊपर किसी तरह छिपा रह गया था, इसलिए।
वर्षों बाद जेल काट तथा बुढापा ओढ़ गब्बर वापस आया था रामगढ़। मन में एक आशा थी कि शायद छूटा हुआ लूट का माल हासिल हो ही जाए. पर वह भौंचक था यहाँ आ कर। बीते सालों में रामगढ़ खुशहाल हो चुका था. अब वहाँ तांगे नहीं तिपहिया और टैंपो चलने लग गए थे. सड़कें भी पक्की हो गयीं थीन. बिजली आ चुकी थी. लालाटेंने इतिहास बन चुकी थीं। बीरू-बसंती के प्यार को विवाह के गठबंधन में बदलने में सहयोगी उस समय की बिना पाइप की पानी की टंकी में अब पाइप और पानी दोनों उपलब्ध हो गए थे. पुलिस का थाना बन गया था. एक डिग्री कालेज भी खुल गया था जिससे किसी अहमद को अपनी जान पर खेल शहर जा पढाई नहीं करनी पड़ती थी. और यह सब ठाकुर के वहाँ से चुनाव जीतने का नतीजा था.
बात हो रही थी गब्बर के लौटने की, समय की मार अपने समय के आतंक गब्बर को आज कोइ पहचानने वाला ही नहीं था. एक्के-दुक्के लोगों ने तो भिखारी समझ उसके हाथ में एक-दो रुपये तक पकड़ा दिए थे। उसने उनको भी अपनी खैनी की पोटली के साथ अपनी कमीज की जेब में ठूंस लिया। उसे तो एक ही चिंता सता रही थी कि पुलिया, जिसे जय ने उड़ा दिया था, के बगैर वह खाई कैसे पार करेगा। पर कमजोर होती आँखों के बावजूद उसे उस सूखे नाले पर एक पक्का मजबूत पुल दिखाई पड़ गया, दिल जल उठा गब्बर का, यह पुल उस समय होता तो..................... खैर धीरे-धीरे चल वह अपने पुराने अड्डे के पास पहुंचा तो वहाँ का नक्शा भी कुछ-कुछ बदला हुआ मिला. लोगों ने प्लाट काट-काट कर घर बनाने की तैयारियां कर रखी थीं। फिलहाल वक्त आशिकों ने उस महफूज जगह को अपना आशियाना बना डाला था। एक्का-दुक्का जोड़े तो इस भरी दुपहरिया में भी चट्टानों के पीछे दुबके नजर आ रहे थे। गब्बर जिसके नाम से पचास-पचास कोस दूर रोते बच्चे दर कर चुप हो जाते थे उसी गब्बर की नाक के नीचे आज के छोकरे प्रेम का राग अलाप रहे थे.
थका-हारा, लस्त-पस्त गब्बर वहीं एक पत्थर पर बैठ जेब से खैनी निकाल हाथ पर रगड़ रहा था तभी उसे एक चट्टान के पीछे से एक सिर नमूदार होते दिखा। माथे पर हाथ रख आँखे मिचमिचा कर ध्यान से देखा तो खुशी से चीख उठा "अरे सांभा!!!" उधर सांभा जो और भी सूख कर बेंत की तरह हो चुका था, अपने उस्ताद को सामने पा एक साथ परेशान, चितित और चिढ गया. कारण भी था, वह अपने पेट को भरने का इंतजाम तो ठीक से कर नहीं पाता था, ऊपर से यह आ गया था. पर किया भी क्या जा सकता था। मन मार कर, गुस्सा दबा कुशल-क्षेम पूछी फिर सबेरे मांग कर लाई रोटियों में से चार उसके सामने एक प्याज के साथ रख दीं। भूखे गब्बर ने झट से उनका सफाया कर डाला। किसी तरह शाम ढली, रात बीती, सुबह हुई। आदतानुसार गब्बर ने ऐसे ही पूछ लिया "होली कब है, कब है होली" .इतना सुनते ही सांभा के तनबदन में आग लग गयी ऐसा लगा जैसे नेपोलियन को किसी ने वाटरलू याद दिला दिया हो। वह तो इसके आने से वैसे ही परेशान हो रात भर सो नहीं पाया था, ऊपर से फिर वही सवाल. वह फूट पडा, उस्ताद होली, दिवाली सब भूल जाओ. मंहगाई का कोइ इल्म है तुम्हें? अपनी टेंट में दो दाने दाल और पाँव भर आटा खरीदने को भी कुछ नहीं है। यहाँ ना कुछ खाने को है ना पकाने को। इधर जो लौंडे-लफाडिए आते हैं एक दो बार उन्हें डरा - धमका कर कुछ एंठने की कोशिश की तो उलटा वे मुझे ही हड़का गये। वह तो हफ्ते दस दिन में मंदिर, गुरुद्वारे के लंगर से चार-पांच दिन का बटोर लाता हूँ तो ज़िंदा हूं, तुमसे तो वह भी नहीं होगा. हमारे विगत को जानते हुए कोइ हमारा स्मार्ट कार्ड या आधार कार्ड भी नहीं बनाएगा. तुमने जो किया है उससे बुढापे की पेंशन भी मिलने से रही। इसलिए पर्वों-त्योहारों खासकर होली को तो भूल ही जाओ जिसने हमारी यह गत बना दी थी, और यह सोचो कि आज खाओगे क्या और कैसे ?
इतनी डांट तो गब्बर ने अपनी पूरी जिन्दगी में भी कभी नहीं खाई थी। वह सांभा जो उसके डर के मारे कभी पहाडी से नीचे नहीं उतरता था आज उसे नसीहत दे रहा था. सब समय का फेर है। पर यह भी सच है कि तभी से गब्बर सब भूल-भाल कर अब सिर्फ भोजन जुगाड़ चिंतन में जुटा हुआ है.
6 टिप्पणियां:
बेचारा गब्बर...
हे भगवान् !
किसी दुसमन को भी ऐसा दिन ना दिखाना :)
बहुत बहुत अच्छा लिखा है आपने, हमारी हँसी रुक ही नहीं रही है ..
आपका बहुत बहुत आभार !
अब होली जख्म हरे कर जाती है..
काश हमारा कोई सांसद बेचारे गब्बर और सांभा के लिए कुछ पेंशन आदि का इंतज़ाम करवा दे !
बेहद उम्दा प्रस्तुति सर जी !
आज की ब्लॉग बुलेटिन क्योंकि सुरक्षित रहने मे ही समझदारी है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
गब्बर अपने आपको समय के अनुसार नही ढाल पाया और उसी का नतीजा है कि आज भूखों मर रहा है. किसी नेता के साथ लग जाता तो आज टाप का भाई होता.:)
इसीलिये कहते हैं कि समय के अनुसार आदमी को बदल जाना चाहिये अब घोडों से डाके नही डाले जाते. आजकल साईबर क्राईम से, भाईगिरी से माल कमाया जाता है.
बहुत सिद्दत से लिखा आपने, शुभकामनाएं.
रामराम
ताऊ जी, बदकिस्मती भी चारों ओर से घेरती है। अब उस इलाके का नेता भी बना तो वह ठाकुर।
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