अपनी दिनभर की दिनचर्या में रोज ही ऐसे कई युवा मिलते हैं जो निढाल, निस्तेज, सुस्त नजर आते हैं। जैसे जबरदस्ती शरीर को ढो रहे हों। अधिकांश नवयुवकों को किसी ना किसी व्याधि से ग्रस्त दवा फांकते देखना बडा अजीब लगता है। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक समय में हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी समस्या से जुझता हुआ किसी यंत्र की कसी हुई तार की तरह हर वक्त तना रहता है। जिसके फलस्वरूप देखने में बिमारी ना लगने वाली, सर दर्द, कमर दर्द, अनिद्रा, अपच, कब्ज जैसी व्याधियां उसे अपने चंगुल में फंसाती चली जाती हैं, जिससे अच्छा भला युवा उम्रदराज लगने लगता है।
सदियों से हमारे यहां प्रभू से प्रार्थना की जाती रही है कि "हे प्रभू हमें सौ साल की उम्र प्राप्त हो"। पर यदि 30-35 साल के बाद ही रो-धो कर, दवाएं फांक कर, ज्यादातर समय बिस्तर पर गुजार कर जीना पडे तो ऐसे जीवन से क्या फायदा।
निश्चिंतता |
पर इस नैराश्य पूर्ण स्थिति में भी आप अपने चारों ओर देखें तो आपको ऐसे अनेक लोग दिख जाएंगे जो अपने कर्मों से, अपने आचरण से, अपने अनुभवों से हमारा मार्ग-दर्शन कर सकते हैं। जिन्हें देख जिंदगी को खुशहाल बनाने के तौर-तरीकों को समझा जा सकता है, उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। ऐसे ही एक शख्स हैं मेरे मामा जी। जो 82 साल के होने के बावजूद किसी 35 साल के युवा से कम नहीं हैं। आज देश-प्रदेश के लोगों के बीच बहुचर्चित शतायु मैराथन धावक फौजा सिंह के प्रांत पंजाब के एक कस्बे फगवाडा के पास के गांव हदियाबाद के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्में श्री प्यारे लाल सुंधीर बचपन से ही सामान्य कद-काठी के इंसान रहे। पर लाख विषमताओं, हजारों अडचनों, सैंकडों परेशानियों के बावजूद उन्होंने अनियमितता का सहारा नहीं लिया। यहां तक कि छोटी उम्र में ही जीवनसाथी की असमय मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपने को संभाले रखा और अपने बच्चों को सही तालीम दिलवा कर उन्हें जीवन पथ पर अग्रसर और स्थापित किया। आज जब वे हर तरह से सम्पन्न हैं, घर में हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध है फिर भी इस उम्र में में भी उन्हें खाली बैठना ग्वारा नहीं है। आज भी सिर्फ व्यस्त रहने के लिए उन्होंने अपने व्यवसाय को तिलांजली नहीं दी है। घर में कार होने के बावजूद अपनी सेहत की खातिर इस उम्र में भी रोज 10 से 15 की.मी. सायकिल पर चलना उनका शौक है। किसी भी तरह की चिंता, फिक्र, तनाव को वे पास नहीं फटकने देते। इसी वजह से बिना किसी का साथ ढूंढे अपनी बिटिया के पास नार्वे तक हर ढेढ दो साल बाद चक्कर लगाने से नहीं घबराते। वहा भी घर पर नहीं रुकते, आस-पास के दूसरे देशों को देखना, घूमना भी उनका शगल है, फिर चाहे किसी का साथ मिले या ना मिले। अपना देश तो इनका घूमा हुआ ही है वह भी अकेले. हमारे यहां तो उनका हर साल आना हमारी जरूरत है। उनके 10-15 दिनों का प्रवास हमें एक नई शक्ति प्रदान कर जाता है। यह सब उन लोगों के लिए सबक है जो बचपन के खान-पान की कमी, अपनी उम्र, किसी का सहारा ना होने या अपनी जीवन में ना टाली जा सकने वाली मुसीबतों को अपने द्वारा पैदा की गयीं मुसीबतों का जिम्मेदार मानते हैं। सीधी सी बात है जिसमे जीने की उद्दाम इच्छा हो उसके लिए कोइ बाधा कोइ मायने नहीं रखती।
सोचिए जब होनी को टाला नहीं जा सकता तो फिर परेशान क्यों? जब जो होना है, हो कर ही रहना है तो फिर नैराश्य क्यों? जब भविष्य अपने वश में नहीं है तो उसके लिए वर्तमान में चिंता क्यों?
जरा सोचिए, मैं भी सोचता हूं। कठिन जरूर है पर मुश्किल नहीं.
3 टिप्पणियां:
दार्शनिक प्रश्न है पर जीवन में उत्साह बनाये रखना आवश्यक है।
प्रवीण जी, सही कह रहे हैं, उत्साह हो, ललक हो, हर परेशानी से गुजर जाने का जज्बा हो तभी जीवन सार्थक है।
आपसे सहमत
एक टिप्पणी भेजें