वो दिन इतिहास बन गये हैं जब नेता आदरणीय हुआ करते थे। खुल कर लोगों से मिला करते थे। कोई ताम-झाम नहीं होता था खुली गाडियों में उन्हें आसानी से देखा पहचाना जा सकता था। अब तो गाडी को देख कर उसमें सफर करने वाले का अंदाज लगाना पडता है।
हर प्रांत की राजधानी में मुख्य सडकों पर सायरन बजाती पुलिस की गाडियों के साथ हमारे नेताओं का गोली रोधक कारों में दुबक कर फर्राटे से निकलना एक आम बात है। आदत पड गयी है जनता को, इनके कारण, अपने जरूरी से जरूरी काम को दोयम दर्जे पर रखने की। आदत पड गयी है उसे अपनी सुरक्षा की चिंता आप करने की। आदत पड गयी है उसे अपने ही द्वारा चुने गये अपने प्रतिनिधि को अपने से ही डरता देखने की। आज अति व्यस्तता का समय है। काम-काजी आदमी के पास जरा भी फाल्तु वक्त नहीं होता कहीं ठहरने, रुकने, इंतजार करने का। अफरा-तफरी मची रहती है अपने काम पर पहुंचने और उसे पूरा करने की। ऐसे में एक बात बडी अखरती है कि जब कोई विशिष्ट व्यक्ति बंदुकों के साये में, बख्तर बंद गाडियों में बंद हो निकलता है तो आम जनता को हर मोड-चौराहे पर रोक दिया जाता है। उन लोगों में अधिकांश किसी ना किसी जरुरी काम से निकले होते हैं,किसी को दूरगामी ट्रेन पकडनी होती है, कोई किसी बिमार अस्पताल ले जा रहा होता है, कोई अपनी ड्यूटी पर जाने के लिए निकला होता है, किसी को परीक्षा भवन में जाने में देर हो रही होती है। समझ में नहीं आता कि जब सारी सडक पडी होती है तो उनका दक्ष ड्रायवर सायरन बजा दाहीने तरफ से क्यों नहीं निकल जाता? क्यों पायलेट जीप में बैठा कोई काफिले के आगे-आगे गाडी दौडाते हुए बाहर हाथ निकाले डंडा लहरा कर जबरदस्ती भय का महौल उत्पन्न करता जाता है। क्यों अपनी ही जनता से लोग दूरीयां बना कर रुआब दिखाना चाहते हैं? काले शीशों के पीछे बैठे आम से ही खास बने लोगों को भी जनता की परेशानी समझनी चाहिए। रास्ता चलता रहे तो किसी को कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी और विशिष्ट व्यक्ति भी जनता की मन ही मन निकलती गालियों से बचे रहेंगे।
वो दिन इतिहास बन गये हैं जब नेता आदरणीय हुआ करते थे। खुल कर लोगों से मिला करते थे। कोई ताम-झाम नहीं होता था खुली गाडियों में उन्हें आसानी से देखा पहचाना जा सकता था। अब तो गाडी को देख कर उसमें सफर करने वाले का अंदाज लगाना पडता है। धर्म, जाति, भाषा, को मुद्दा बना, धन,बल से सिंहासनारूढ होने वाले से वैसे खुलेपन की आशा भी बेमानी है। मन ही मन शायद वह भी अपनी कारस्तानियों से डरा रहता है। उसे लगता है कि उसके झूठ को जनता जानती है। इसीलिए उसे अपनी सुरक्षा की चिंता होने लगती है।
जिस देश के हर प्रांत में बलात्कार, लूट, डकैती, अपहरण जैसी घटनाओं से आम इंसान त्रस्त हो। जहां 761 लोगों के पीछे एक पुलिसकर्मी होने के कारण उसे ठीक से और समय पर मदद ना मिल पाती हो, वहीं के एक विशिष्ट व्यक्ति के लिए दर्जनों सुरक्षा-कर्मी उसे सुरक्षित रखने को तैनात हों तो ऐसी व्यवस्था को क्या कहा जाएगा। इसी अव्यवस्था पर सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल उठाया है। कुछेक लोग तो सिर्फ अपने अहम, रुतबे, और रौब को दिखाने के लिए ही इन सुविधाओं के लिए अड जाते हैं। फिर उन्हीं सुविधाओं, लाल बत्ती और विशेष सुरक्षा घेरे का भय दिखाकर रौब गांठने से बाज नहीं आते। इसी का नतीजा है कि एक बार फिर सर्वोच्च अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को आम आदमी की सुरक्षा का एहसास कराया है और जानना चाहा है कि वे कौन अति विशिष्ट लोग हैं और उनकी सुरक्षा पर किस आधार पर कितना खर्च किया जा रहा है? साथ ही यह भी जानकारी चाही है कि जिन लोगों को सुरक्षा मुहैया कराई जा रही है, उनमें ऐसे कितने लोग हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। यह भी विडंबना ही है कि देश और देश की जनता की सुरक्षा, रख-रखाव, उसकी प्रगति, उसके सुख-चैन की जिम्मेदारी का वचन देने वालों की जगह सर्वोच्च न्यायालय को हर हफ्ते, पखवाडे देश मे पनपते नासूरों की रोक-थाम करने के लिए हिदायत देनी पडती है।
इसके पहले कि यह चाहत और शौक, समस्या बन विकराल रूप ले ले, उन विशिष्ट लोगों खासकर राजनितिक वर्ग को भी समय की नब्ज को समय रहते आंक लेना चाहिए कि उनके प्रति लोगों के घटते विश्वास की एक वजह क्या यह भी तो नहीं है।
4 टिप्पणियां:
बात तो आप ठीक कह रहे हैं समय तो सबका कीमती है - लेकिन किया क्या जाए ?
शिल्पा जी, एक आवाज तो उठे!!!
जो अपना समय कीमती सिद्ध कर दे वही महानुभाव..
पूरी व्यवस्था में परिवर्तन अपेक्षित है. यह तो यों ही चलता रहेगा.
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