मंत्री महोदय की यह सदेच्छा पूरी होती तो नहीं लगती, पर फिर भी यदि ऎसी कोइ नीति बन जाती है या कुछ लोग स्वप्रेरणा से ही सरकारी अस्पताल को अपनाते हैं तो हर साल खर्च होने वाली भारी-भरकम रकम को देश, समाज के कल्याण में लगाया जा सकेगा।
अपने से उम्र में बड़े लोग बताते हैं कि आजादी के कई सालों बाद भी लोग गुरुजनों, नेताओं की बात को पत्थर की लकीर मानते थे। उन्होंने कह दिया तो बात सच ही होगी नहीं तो उसे सच करने पर तुल जाते थे। बड़े और जिम्मेदार लोग भी अपनी जिम्मेदारी समझते थे। मजाल है की कभी हल्की बात उनके मुंह से निकल जाए। पर अब सब कुछ उलट-पलट गया है। कोइ किसी की बात का सहज ही विश्वास नहीं करता (टी वी पर विराजमान स्वयंभू महाराजाओं को छोड़) खासकर नेता बिरादरी कुछ ज्यादा ही ग्रसित है इस अभिशाप से। वे यदि दिन की बात करते हैं तो लोग आकाश में सूर्य को खोजने लगते हैं। ऐसे में साफ दिल, कर्तव्यनिष्ठ, कुछ करने का जज्बा रखने वाले नेताओं की मंशा को भी आम लोग गंभीरता से लेने में हिचकिचाते हैं।
अभी कुछ दिनों पहले मध्य-प्रदेश के पंचायत और विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने मुख्य मंत्री समेत सारे मंत्रियों, विधायकों और सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों को यह कह कर हैरत और असमंजस में डाल दिया कि सरकारी सेवा में प्रवृत्त हर इंसान का इलाज सरकारी अस्पताल में होना चाहिए और उनके मेडिकल बिलों पर रोक लगनी चाहिए। उनके अनुसार जब सरकारी अस्पताल में इलाज और दवाएं मुफ्त में मिलती हैं तो फिर सरकारी आदमी अपना इलाज बाहर क्यों करवाते हैं? वहाँ भी जेनेरिक दवाओं का उपयोग होना चाहिए। इससे सरकारी खजाने पर से एक बड़ा बोझ खत्म करने में सहायता मिलेगी। इससे सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि जब मंत्री और आला अधिकारी अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में करवाएंगे तो वहाँ की व्यवस्था ठीक होगी। वहाँ की दवाएं, उपकरण, आपात कालीन सेवाएं समय पर सबको हासिल हो पाएंगी। डाक्टर, नर्स, स्टाफ सब चुस्त-दुरुस्त रहेंगे। इलाज की गुणवत्ता बढ़ेगी तो लोगों की धारणा कि सरकारी अस्पतालों में ढंग से इलाज और देखभाल नहीं होती वह भी दूर हो जाएगी। साथ ही उनहोंने कहा कि शायद मेरा प्रस्ताव लोगों को पसंद न आए पर मैं हमेशा इसके पक्ष में रहूँगा।
मंत्री जी ने बात तो पते की कही और वह स्वागत योग्य है। जब मंत्री, नेताओं का इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों में आना-जाना होगा तो वे वहाँ की तकलीफों, मजबूरियों, अव्यवस्थाओं को समझ कर उसे दूर करने की कोशिश करेंगे, जिससे अस्पताल के साथ-साथ गरीब जनता का भी भला हो सकेगा। पर क्या उन्हीं की पार्टी के लोग उसे मानेंगे? क्या भारी-भरकम बिलों की अदायगी से प्राप्त होने वाली रकम का लोभ संवरण कर पाएंगे? सबसे बड़ी बात क्या सरकारी अस्पताल पर अपना विश्वास ला पाएंगे?
पर फिर भी यदि ऎसी कोइ नीति बन जाती है या कुछ लोग स्वप्रेरणा से ही सरकारी अस्पताल को अपनाते हैं तो हर साल खर्च होने वाली भारी-भरकम रकम को देश, समाज के कल्याण में लगाया जा सकेगा।
5 टिप्पणियां:
सरकारी अस्पताल आम के लिए होते हैं,
खास के लिए नहीं!
बनते तो आम और उनकी हिमायत से ही हैं
बिल्कुल सही कहा है मन्त्री जी ने.
देखते हैं, कितनी सफलता मिलती है. वैसे सुझाव स्वागत योग्य है.
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