सोमवार, 31 दिसंबर 2012

जब सारे जने कह रहे हैं कि कल नया साल है तो जरूर होगा !


 जो सक्षम हैं उन्हें एक और मौका मिल जाता है, अपने वैभव के प्रदर्शन का, अपनी जिंदगी की खुशियां बांटने, दिखाने का, पैसे को खर्च करने का। जो अक्षम हैं उनके लिये क्या नया और क्या पुराना। 

दुनिया के साथ ही हम सब हैं। जब सारे जने कह रहे हैं कि कल नया साल है तो जरूर होगा। सब एक दूजे को बधाईयां दे ले रहे हैं, अच्छी बात है। जिस किसी भी कारण से आपसी वैमनस्य दूर हो वह ठीक होता है। चाहे उसके लिये विदेशी अंकों का ही सहारा लेना पड़े। अब इस युग में अपनी ढपली अलग बजाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। वे कहते हैं कि दूसरा दिन आधी रात को शुरु होता है तो चलो मान लेते हैं क्या जाता है। सदियों से सूर्य को साक्षात भगवान मान कर दिन की शुरुआत करते रहे तो भी कौन सा जग में सब से ज्यादा निरोग, शक्तिमान, ओजस्वी आदि-आदि रह पाये। कौन सी गरीबी घट गयी कौन सी दरिद्रता दूर हो गयी।


हर बार की तरह ही कल फिर एक नयी सुबह आयेगी अपने साथ कुछ नये अंक धारण किये हुए। साल भर पहले भी ऐसा ही हुआ था। होता रहा है साल दर साल। आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। जो सक्षम हैं उन्हें एक और मौका मिल जाता है, अपने वैभव के प्रदर्शन का, अपनी जिंदगी की खुशियां बांटने, दिखाने का, पैसे को खर्च करने का। जो अक्षम हैं उनके लिये क्या नया और क्या पुराना। उन्हें तो रोज सुरज उगते ही फिर वही वही चिंता रहेती है, काम मिलेगा कि नहीं, चुल्हा जल भी पायेगा कि नहीं, बच्चों का तन इस ठंड में ढक भी पायेगा कि नहीं। ऐसे लोगों को तो यह भी नहीं पता कि जश्न होता क्या है।

कुछेक की चिंता है कि इतने सारे पैसे को खर्च कैसे करें और कुछ की, कि इतने से पैसे को कैसे खर्च करें? इन दिनों जो खाई दोनों वर्गों में फैली है उसका ओर-छोर नहीं है। वैसे देखें तो क्या बदला है या क्या बदल जायेगा। कुछ लोग कैसे भी जोड़-तोड़ लगा, साम, दाम ,दंड़, भेद की नीति अपना, किसी को भी कैसी भी जगह बैठा अपनी पीढी को तारने का जुगाड़ बैठाते रहेंगे। कुछ लोग मानव रूपी भेड़ों की गिनती करवा खुद को खुदा बनवाते रहेंगे। कुछ सदा की तरह न्याय की आंखों पर बंधी पट्टी का फायदा उठाते-उठवाते रहेंगे, और कुछ सदा की तरह कुछ ना कर पा कर कुढते-कुढते खर्च हो जायेंगे।

वैसे इस लिखे को अन्यथा ना लें। किसी दुर्भावना या पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं है यह लेख। अपनी तो यही कामना है कि साल का हर दिन अपने देश और देशवासियों के साथ-साथ इस धरा पर रहने वाले हर प्राणी के लिये खुशहाली, सुख, स्मृद्धी के साथ-साथ सुरक्षा की भावना भी अपने साथ लाए।  

सभी भाई-बहनों के साथ-साथ "अनदेखे अपने" मित्रों के लिए आने वाला हर दिन खुशी समृद्धी तथा स्वास्थ्य लेकर आये। यही कामना है।  

नव-वर्ष सभी के लिए मंगलमय हो, मुबारक हो, सुखमय हो। सभी सुखी, स्वस्थ, प्रसन्न और सुरक्षित रहें।


गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

जागो ! कि तुम आधा विश्व हो


पिछले कई दिनों से दिल्ली में दरींदों के वहशीपन का शिकार बनी बेकसूर लडकी को न्याय दिलाने के लिए सरकार और जनता के बीच ठनी हुई है। सरकारी पाले के लोग इस गलतफहमी में हैं कि हर बार की तरह यह मुसीबत भी वे मौन साध कर टाल देंगें। पर इस बार उनका यह काम बिल्ली और कबूतर का हश्र करने वाला होगा। जिम्मेदार लोग जब अपने घर में भी लडकियां होने की बात करते हैं तो वे यह भूल जाते हैं कि उनकी लडकियों और आम जनता की बेटियों की सुरक्षा में जमीन-आसमान का फर्क है। उनकी बच्चियां जहां सुरक्षा के अभेद्य किले में रहती हैं तो आम लडकियों की सुरक्षा के लिए एक मिट्टी की दिवार भी मुयस्सर नहीं होती। 

ठीक है कि दोषियों को कडी से कडी सजा मिलनी चाहिए पर सिर्फ ऐसे कुछ लोगों को सजा देने से यह कोढ खत्म नहीं हो जाएगा। आज किसी भी दिन का अखबार उठा कर देख लें इतनी अफरा-तफरी के बावजूद देश के किसी ना किसी कोने में होने वाली ऐसी हरकतों की खबर छपी ही रहती है। जो इस कडवी सच्चाई को इंगित करती है कि देश की राजधानी में उठे तूफान का असर देश के दूसरे भागों में रह रहे राक्षसों पर बेअसर ही है। डर, भय, इंसानियत जैसी बातें इनके दिलों से कोसों दूर जा चुकी हैं। इसकी कुछ ना कुछ वजह तो हमारी सडी-गली व्यवस्था भी है। जो एक्के-दुक्के दुष्कर्मी को दंडित करने से सुधरने वाली नहीं है।  आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। महिलाओं को दिल से बराबरी का दर्जा देने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। यह इतना आसान नहीं है, हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन पुरुष उन्हें परोस कर अपना मतलब साधते रहते हैं। यह क्या पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन, आठ मार्च, महिला दिवस जैसा नामकरण कर उनको समर्पित कर दिया है। कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है? यदि ऐसा नहीं है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता? पर सभी खुश हैं। विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।  
आश्चर्य होता है, दुनिया के आधे हिस्से के हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए, उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन निश्चित किया गया है। इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर समाज ने, समाज में  उन्हें इतना चौंधिया दिया होता है कि वे अपने कर्मों के अंधेरे को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की, अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की। अपने सोए हुए जमीर को जगाने की। 

ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं उद्यमी नहीं हैं, लायक नहीं हैं, मेहनती नहीं हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। पर पुरुष वर्ग ने बार-बार, हर बार उन्हें दोयम होने का एहसास करवाया है। आज सिर्फ माडलिंग को छोड दें, हालांकि वहां और बहुत से तरीके हैं शोषण के, तो हर जगह, हर क्षेत्र में महिलाओं का वेतन पुरुषों से कम है। हो सकता है इक्की दुक्की जगह इसका अपवाद हो।

इतिहास और पौराणिक ग्रंथ तक इसके गवाह हैं कि जब-जब पुरुष को महिला की सहायता की जरूरत पड़ी है उसने उसे सिर-आंखों पर बैठाया है, मतलब निकलते ही तू कौन तो मैं कौन? हमारे ग्रन्थों में वर्णित किस्से-कहानियां चाहे कल्पना हो चाहे हकीकत, उसमें भी नारी से पक्षपात सामने नजर आता है। देव जाति जो अपने आप को बहुत दयालू, न्यायप्रिय, सबका हित करने वालों की तरह पेश करती आई है, उस पर भी जब-जब मुसीबतें पड़ीं तो उसने भी एकजुट हो कर शक्ति रूपी नारी का आवाहन किया पर मुसीबत टलते ही उसे पूज्य बना कर एक कोने में स्थापित कर दिया। कभी सुना है कि स्वर्ग में किसी महिला का राज रहा हो। इस धरा पर माँ जैसा जन्मदाता, पालनहार, ममतायुक्त, गुरू जैसा कोई नहीं है फिर भी अधिकांश माताओं की हालत किसी से छिपी नहीं है।  

जब भी कभी इस आधी आबादी के भले की कोई बात होती है तो वहां भी पुरुषों की ही प्रधानता रहती है। वहां इकठ्ठा हुए बहूरूपिए कभी खोज-खबर लेते हैं, सिर पर ईंटों का बोझा उठा मंजिल दर मंजिल चढती रामकली की। अपने घरों में काम करतीं, सुमित्रा, रानी, कौशल्या, सुखिया की। कभी सोचते हैं तपती दुपहरी में खेतों में काम करती रामरखिया के बारे में। कभी ध्यान देते हैं दिन भर सर पर सब्जी का बोझा उठाए घर-घर घूमती आसमती पर। नहीं ! क्योंकि उससे अखबारों में सुर्खियां नहीं बनतीं, टी.वी. पर चेहरा नज़र नहीं आता। ऐसा यदि करना पड़ जाता है तो पहले कैमरे और माईक का इंतजाम होना जरूरी होता है। ऐसे दिखावे जब तक खत्म नहीं होंगें, महिला जब तक महिला का आदर करना नहीं शुरु करेगी तब तक चाहे एक दिन इनके नाम करें चाहे पूरा साल। चाहे किसी शहर के दरिंदों को सजा मिल भी जाए कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

ठण्ड पर भारी पड़ती, एक पाव की रजाई


सर्दी की दस्तक पड़ते ही  गर्म कपड़े, कंबल और रजाईयां भी आल्मारियों से बाहर आने को आतुर हो रहे हैं। रजाई का नाम सुनते ही एक रूई से भरे एक भारी-भरकम ओढ़ने के काम आने वाले  कपड़े का ख्याल आ जाता है, जो जाड़ों में ठंड रोकने का आम जरिया होता है। पहाड़ों में तो चार-चार किलो की रजाईयां आम हैं। ज्यादा सर्दी या बर्फ पड़ने पर तो बजुर्गों या अशक्त लोगों को दो-दो रजाईयां भी लेनी पड़ती हैं। अब सोचिये इतना भार शरीर पर हो तो नींद में हिलना ड़ुलना भी मुश्किल हो जाता है। फिर  पुराने समय में राजा-महाराजाओं के वक्त में राज परिवार के लोग कैसे ठंड से बचाव करते होंगे। ठीक है सर्दी दूर करने के और भी उपाय हैं या थे, पर ओढने के लिये कभी न कभी, कुछ-न कुछ तो चाहिये ही होता होगा। अवध के नवाबों की नजाकत और नफासत तो जमाने भर में मशहूर रही है। ऐसे में कोइ पाव  भर, भार वाली रजाई से ठंड दूर करने की बात करे तो आश्चर्य ही होगा। पर यह भी सच है की  उन्हीं के लिये हल्की-फुल्की रजाईयों की ईजाद की गयी। ये खास तरह की रजाईयां, खास तरीकों से, खास कारीगरों द्वारा सिर्फ खास लोगों के लिये बनाई जाती थीं।  जिनका वजन होता था, सिर्फ एक पाव या उससे भी कम। जी हां एक पाव की रजाई, पर कारगर इतनी कि ठंड छू भी ना जाये। धीरे-धीरे इसके फनकारों को जयपुर में आश्रय मिला और आज राजस्थान की ये राजस्थानी रजाईयां दुनिया भर में मशहूर हैं।

इन हल्की रजाईयों को पहले हाथों से बनाया जाता था। जिसमें बहुत ज्यादा मेहनत,  समय और लागत आती थी। समय के साथ-साथ बदलाव भी आया। अब इसको बनाने में मशीनों की सहायता ली जाती है। सबसे पहले रुई को बहुत बारीकी से अच्छी तरह साफ किया जाता है। फिर एक खास अंदाज से उसकी धुनाई की जाती है, जिससे रूई का एक-एक रेशा अलग हो जाता है। इसके बाद उन रेशों को व्यवस्थित  किया जाता है फिर उसको बराबर बिछा कर कपड़े में इस तरह भरा जाता है कि उसमें से हवा बिल्कुल भी ना गुजर सके। फिर उसकी सधे हुए हाथों से सिलाई कर दी जाती है। सारा कमाल रूई के रेशों को व्यवस्थित करने और कपड़े में भराई का है जो कुशल करीगरों के ही बस की बात है। रूई जितनी कम होगी रजाई बनाने में उतनी ही मेहनत, समय और लागत बढ जाती है। क्योंकि रूई के रेशों को जमाने में उतना ही वक्त भी बढ जाता है।

छपाई वाले सूती कपड़े की रजाई सबसे गर्म होती है क्योंकि मलमल के सूती कपड़े से रूई बिल्कुल चिपक जाती है। सिल्क वगैरह की रजाईयां देखने में सुंदर जरूर होती हैं पर उनमें उतनी गर्माहट नही होती। वैसे भी ये कपड़े थोड़े भारी होते हैं जिससे रजाई का भार बढ जाता है।

तो अब जब भी राजस्थान जाना हो तो पाव भर की रजाई की खोज-खबर जरूर लिजिएगा। 


बुधवार, 12 दिसंबर 2012

अभी दस तो लो, फिर सौ का देखते हैं

सबको लग रहा है की यही वक्त है कर ले  पूरी आरजू। क्या पता बाद में मौका मिले न मिले। 

ससंद ने भारत में खुदरा व्यापार के लिए बड़ी विदेशी कंपनियों के लिए लाल कार्पेट बिछवा दिया है। जिसके झाडने, संवारने और बिछवाने में सरकार को बसपा और सपा ने आदतानुसार  नौंटंकी रूपी छुपा समर्थन दे विपक्षी प्रस्ताव को धाराशाई करवा दिया।

बसपा अध्यक्ष मायावती से मिले समर्थन और मुलायम सिंह की राजनीति के बाद सरकार के लिए मतदान महज संसदीय औपचारिकता रह गया था। भले ही इसे विपक्ष ने सरकार की नैतिक हार करार दिया हो। मत-विभाजन के बाद भाजपा ने आरोप लगाया कि सरकार ने जोड़-तोड़ से मत हासिल किए हैं। जबकि सरकार ने इसे किसान, व्यापारी संघों और राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श के बाद उठाया गया कदम बताया है।

इस बार एक मजेदार वाकया यह रहा कि मतदान से पहले खुद प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी, राजनीतिक खिलाडियों को अपने पक्ष में करने की कवायद करते नजर आए। मनोनीत सदस्यों ने तो सरकार को उपकृत करना ही था पर विपक्षी खेमे में भी कई दरारें नजर आई।
सरकार की जीत में सरकार का एक पहले उठाया गया कदम भी काफी मददगार रहा, जिसमें सरकार ने विदेशी किराना स्टोर को इजाजत देने का फैसला राज्यों पर छोड दिया था। इसी कारण कई क्षेत्रीय दलों ने सरकार का साथ दिया।

यह विडंबना ही कही जाएगी कि जिस बात को लेकर सरकार ने अपने सबसे बडे हितैषी तृणमूल का साथ खोया, जिसके कारण देश को बंद झेलना पडा, संसद का बहुमूल्य समय बर्बाद हुआ, उसका असर सिर्फ दस शहरों में ही दिखेगा। वह भी दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर ही होंगे। जबकी ऐसे शहरों की संख्या तकरीबन 53 है।

विदेशी स्टोर खोलने को अब तक केवल 11 राज्यों व केंद्र शासित प्रांतों ने अनुमति दी है। इनमें आंध्र प्रदेश, असम, दिल्ली, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, राजस्थान, उत्तराखंड, चंडीगढ़, दमन और दियू तथा दादर और नागर हवेली शामिल हैं। जबकी खुद कांग्रेस शासित राज्य केरल ने भी अब तक रिटेल में एफडीआइ को इजाजत नहीं दी है। इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार भी अभी पेशोपेश में नज़र आ रही है, क्योंकि राज्य की सत्ता में साझेदार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को इस मुद्दे पर ऐतराज है। इन सब बातों से विदेशी कंपनियां भी अचंभित हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि देश की वित्तीय राजधानी का दर्जा रखने वाली मुंबई में ही वे कारोबार क्यों नहीं कर सकतीं? इसकी भी संभावना कम ही है कि ये विदेशी कंपनियां छोटे शहरों की ओर रुख करेंगीं। ऊपर से उन्हें कुछ क्षेत्रीय सरकारों की वह धमकी भी हिचकिचवाएगी जिसमें ऐसे स्टोरों को आग लगा देने वाली धमकियां दी गयी हैं।    

जानकारों का आकलन है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए विदेशी कंपनियां अगले लोकसभा चुनाव तक इंतजार कर सकती हैं। उन्हें अपने व्यापार से मतलब है,  आखिर वे यहां धंदा  कर पैसे कमाने आईं हैं नाकी अपना नुक्सान करवाने। उधर क्षेत्रीय दल मौके का फ़ायदा उठा सरकार से जितनी सहूलियतें  बटोर सकें बटोरने में लगे हैं। उन्हें सिर्फ अपने गणित से मतलब है। उनका ऊसूल ही है कि  "जैसी बहे बयार, पीठ पुनि तैसी कीजे".  

अब सबको इंतजार है ऊंट की करवट का।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

जहां भी जाएं वहाँ की व्यवस्था को पूरी तौर से अंगीकार करें।


साल में दूसरी बार नार्वे में एक और  भारतीय दंपति अपनी ही संतान को लेकर वहां की सरकार का कोपभाजन बन गयी है। बच्चों का ठीक से पालन-पोषण नहीं करने के आरोप में पिछली बार एक दंपति को उनके बच्चों से अलग कर दिया गया था, तो इस बार अपने बेटे को डांटने-फटकारने के जुर्म में पिता, चंद्रशेखर को 18 माह और मां अनुपमा को 15 माह के लिए जेल भेज दिया गया है। हांलाकि इस परिवार ने उच्च न्यायालय में अपील करने की बात कही है। वैसे देखें तो ये घटनाएं व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप की तरह लग सकती हैं, पर यह एक सबक है दूसरे देश में जाने वाले हमारे लोगों के लिए। 

आज हर देश के नागरिक बेहतर भविष्य के लिए दूसरे देशों का रुख करते ही हैं इसमें कोई बुराई भी नहीं है। पर कायदा यही कहता है कि हम जहां भी जाएं वहां के नियम-कानून को पूरा सम्मान दें और उसका पालन करें। 

अपने देश में बच्चों का पालन-पोषण करने का तरीका अलग है, सोच अलग है, हम बच्चों को भरपूर प्यार देते हैं तो उनकी गलती या उद्दंडता पर जरा प्रताडित भी करना ठीक समझते हैं। पर बाहर खासकर योरोप के देशों में बच्चे पर किसी भी तरह की जरा सी भी कठोरता जुर्म के रूप में देखी जाती है। वहां पारिवारिक डांट-डपट और पिटाई को अपराध माना जाता है। उनके अनुसार ऐसा करने से बच्चे का सही विकास नहीं हो पाता।  

दोनों जगहों के अपने-अपने तर्क अपनी-अपनी जगह ठीक हो सकते हैं। उस पर बहस अलग विषय है। यहां मुद्दा यह है कि यदि आप अपना कर्म-क्षेत्र किसी दूसरे देश में बनाते हैं तो वहां के कानून, वहां के नियम, वहां की व्यवस्था को पूरे तौर से अंगीकार करें। यह नहीं कि अपनी सहूलियत के अनुसार आधे-अधूरे रुप में अपने मतलब की चीज तो स्वीकारें और जो अच्छा ना लगे या अपने अनुकूल ना हो उसे दबे-छिपे तरीके से नकार दें। ऐसा करना कभी भी भारी पड सकता है। 

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

कूडेघर में बीतती जिन्दगी


आज एक खबर पढी। इंसान की मजबूरी , उसकी विवशता, उसकी परिस्थितियां उसे कैसे-कैसे जीवन-यापन के लिए लाचार कर देती हैं यह उसका एक जुगुप्सा पैदा कर देने वाला उदाहरण है।
बात है नई दिल्ली के मस्जिद मोठ इलाके की। वहां के एक बीस वर्ग फुट के कूडा घर में, जहां की सडांध और गंदगी के कारण उसके पास एक आम आदमी का दस सेकेंड भी खडा रहना नामुमकिन हो जाता है, एक बासठ वर्षीय व्यक्ति अपने छह जनों के परिवार के साथ 38 सालों से रह रहा है। 

मस्जिद मोठ का कूडा घर, इनसेट में शोभराज 
गोरखपुर, यूपी से अपने भविष्य को संवारने के लिए शोभराज ने वर्षों पहले  दिल्ली का रुख किया था। पर किस्मत की मार, कोई काम ना मिलने की हालत में उसे लोगों के घर का कूडा उठा अपना पेट पालना पडा। पहले वह अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ नेहरु प्लेस के स्लम में रहता था। स्लम हटाओ अभियानके दौरान उसे मदनपुर में एक फ्लैट प्रदान भी किया गया था पर वहां से अपने कर्म-क्षेत्र मस्जिद मोठ के दूर होने के कारण उसने इस जगह शरण ले ली। परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों समय के साथ-साथ इंसान का जीवन भी चलता रहता है। इसी बीच शोभराज के दोनों बेटों का विवाह भी हो गया, बच्चे भी हो गये।बडे बेटे ने एक  कमरे का फ्लैट संभाल लिया  और शोभराज अपनी पत्नी, बेटे, उसकी पत्नी और दो साल के पोते के साथ यहां रह रहा है। शीत-ताप नियंत्रित कक्षों में बैठ कर मानव हितों की रक्षा पर लाखों रुपयों की एवज में बडी-बडी बातें बनाने वालों के चेहरे पर तमाचे की तरह है कि इस नारकीय स्थिति में रहने के लिए भी उसे 800 रुपये महीना देना पडता है।

आस-पास के लोगों के इस परिवार के प्रति अलग-अलग विचार हैं। कोई इनकी बेचारगी पर तरस खाता है तो कोई सरकारी जमीन पर रहना इनका अतिक्रमण मानता है। पर जो भी हो अपने मृदु व्यवहार के चलते इस परिवार से किसी को कोई शिकायत नहीं है। शोभराज के अनुसार प्रकृति भी अमीर-गरीब में भेद करती है। जहां अमीर इस कूडेदान के पास आते ही अपने को बीमार समझने लगता है वहीं छोटी-मोटी तकलीफ के अलावा उसका पूरा परिवार स्वस्थ ही रहता है। 

सौजन्य
TOI          

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