कलकत्ता के स्मारकों की अंतिम किस्त -
आज जब कहीं ना कहीं कुछ साल पुराने पुलों के टूटने, नवनिर्मित या बनने के दौरान ही गिर जाने वाले पुलों की खबर आती है तो इस पुल को इस उम्र में भी सीना ताने, अथक मेहनत करते देख इसके बनाने वालों के प्रति आदर से सर झुक जाता है।
हावडा पुल। वर्षों-वर्ष इस अनूठे अजूबे के ऊपर से दिन में दो बार गुजरना होता रहा। कभी बस से, कभी ट्राम से और कभी-कभी पैदल भी, पर कभी इसको ध्यान से नहीं देखा था। अलबत्ता नवागंतुकों को हावडा स्टेशन से निकलते ही पूरा सर उठा कर इसे देखना ध्यान में जरूर आ जाता था। पर अब दूर रह कर इसकी अहमियत समझ में आती है।
कस्बे हावडा की खुशकिस्मति थी कि दुनिया के व्यस्ततम कैंटीलीवर पुलों में से एक यह पुल यहां बना जिससे वह भी संसार भर में मशहूर हो गया, नहीं तो दुनिया के विशाल और व्यस्ततम रेल स्टेशनों में से एक होते हुए भी शायद उसका इतना नाम नहीं होता।
हुगली नदी के दोनों किनारों पर पसरा, हावडा और कलकत्ते को जोडता, बाहर से आने वालों के लिए प्रवेश-द्वार सरीखा, विश्व का अनोखा कैंटिलीवर पुल, कब कलकत्ते की एक पहचान बन गया पता ही नहीं चला। यह सिर्फ एक पुल ही नहीं कलकत्ते की जीवन रेखा है। रोज हजारों-हज़ार लोग कलकत्ते के आस-पास के इलाकों से काम करने, अपनी रोजी-रोटी कमाने और शहर की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस पर से गुजरते हैं। देश के कोने-कोने के विभिन्न स्थानों से लोग हावडा स्टेशन पर उतर शहर जाने से पहले इसी के दर्शन करते हैं।
इसके पहले इस जगह पर एक पुराना पुल हुआ करता था, पर नदी में रोज दो बार तेज ज्वार-भाटे के कारण खतरे की आशंका सदा बनी रहती थी। इसीलिए तत्कालीन सरकार ने एक मजबूत और ऊंचा पुल बनवाने का निर्णय लिया। जिसके फलस्वरूप 1939 में बनना शुरु हो कर 1943 में इस नये पुल का स्वरूप सामने आया।
करीब सात सालों में पूरे हुए इस 8 लेन के 705 मीटर लम्बे और 71 फुट चौडे पुल के दोनों तरफ 15-15 फुट के दो पैदल पथ पद-यात्रियों के लिए बने हुए हैं। इस पूरी बनावट का भार इसके दोनों सिरों पर 90 मीटर ऊंचे दो विशाल जल-रोधक स्तभों ने उठा रखा है। उनके अलावा बीच में कोई सहारा या खंभा नहीं है। इसे बनाने में करीब 26500 टन लोहे की खपत हुई थी। एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि इसमें कहीं भी "नट-बोल्ट" का इस्तेमाल नहीं किया गया है। सारी की सारी जुडाई "रिवेट" के द्वारा हुई है। उस जमाने में इसके बनने में 2,5000000 रुपये का खर्च आया था। आज तो इतने पैसे पर बिचौलिए भी नहीं मानते।
आज इसके ऊपर से करीब 60 से 70 हजार विभिन्न तरह की गाडियां और अनगिनत लोग आवाजाही करते हैं। आजादी के बाद इसका नाम "रविंद्र सेतु" कर दिया गया है। पर ज्यादातर लोग अभी भी इसे "हावडा ब्रिज" के नाम से ही जानते हैं। इसकी खूबसूरती को निहारना हो तो नदी में नौका में या स्टीमर में बैठ इसके बीचो-बीच जा कर देखें, एक अद्भुत नजारा पेश आएगा। तभी समझ भी आएगा कि क्यों इसका अनगिनत, विभिन्न भाषाओं की फिल्मों में फिल्माकन किया गया है।
आज जब कहीं ना कहीं कुछ साल पुराने पुलों के टूटने, नवनिर्मित या बनने के दौरान ही गिर जाने वाले पुलों की खबर आती है तो इस पुल को इस उम्र में भी सीना ताने, अथक मेहनत करते देख इसके बनाने वालों के प्रति आदर से सर झुक जाता है।
# सारे आंकड़े और चित्र अंतरजाल से साभार
# सारे आंकड़े और चित्र अंतरजाल से साभार