बहुतेरी बार विदेशी "कुत्तों" ने हमारे देश पर हमले किए, हमें लूटा-खसोटा, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारी धरोहरों को नष्ट करने की पुरजोर कोशिश की। वह तो कहते हैं ना कि दुश्मनों ने तो पूरा जोर लगाया एकाधिक बार सफल भी रहे पर कोई बात थी जो हस्ति नहीं मिटी हमारी। इतिहास से सभी वाकिफ हैं। पर उनकी कोशिशें शायद थमी नहीं हैं।
इधर फिर एक विदेशी कुत्ता अपने मालिकों के नापाक इरादों को पूरा करने में लगा हुआ है। यह वही 'वोडाफोन' का कुत्ता है जो पिछले सालों अपनी मासूमियत के कारण हम सब के दिलों का चहेता बन गया था। पर इस बार के विज्ञापनों पर ध्यान दें उसकी मासूमियत में एक षडयंत्र का आभास हो रहा है। लगता है वह बच्चों की कमसिन उम्र का भोलापन छीन लेना चाहता हो। इस छोटी सी उम्र में जैसे वह उन्हें "ईडेन का सेव" खिलाने पर उतारू हो। जिस तरह वह विज्ञापन के बालक-बालिका के एकांत की रक्षा करता है, जिस तरह उन्हें खींच-तान कर एक-दूसरे के सामने ला खडा करता है, जिस तरह बच्चों को आमने-सामने लाने का कोई मौका नहीं चूकता, उससे इस धारणा को बल मिलता है कि कहीं ना कहीं कुछ तो गडबड है। ये विदेशी कंपनियां अपने यहां के जहर को यहां भी फैलाने से बाज नहीं आ रही हैं।
10 टिप्पणियां:
व्यापार धूर्तता का रहा पहले भी गठजोड़ |
सागर-पारी जानते, कैसे ठगें करोड़ |
कैसे ठगें करोड़, तोड़ना परम्पराएं |
संस्कार को छोड़, होड़ में सारे आएं |
किसकी शर्ट सफ़ेद, जान न पाए कोई |
कौन सकेगा खेद, खेद है भारत रोई ||
क्षमा करें महोदय / महोदया ।
अनर्गल भाव न निकालें इस तुरंती का ।
मैंने ध्यान से पढ़ा आपकी उत्कृष्ट रचना ।
बस यही ।।
धूर्त और व्यापार का, रहा सदा गठजोड़ |
एक नयी संस्कृति ही परोसी जा रही है इसके माध्यम से।
bilkul sach hai...........
आपने जो लिखा है वही बात मैंने भी महसूस की ... मासूमियत खत्म हो गयी है अब विज्ञापन की ।
विज्ञापन की उम्र बढ़ रही है और दृष्टी सिकुड़ रही है...
टीवी में विज्ञापन देखते हुए जब इसी तरह की बेचैनगी को अपनी प्रियंवदा से व्यक्त करता हूँ... तो वह इसे कभी-कभी मेरे दिमाग का फितूर बता देती है...
हम शांत हो जाते हैं ... जबकि मेरा मानना है ... लेख, कविता, विज्ञापन जैसा कोई भी सम्प्रेषण का माध्यम हो उसमें छिपे अभिप्रायों को जितना अच्छे से स्त्रियाँ समझ सकती हैं... उतना पुरुष नहीं.... फिर भी मैं अपनी कमतर समझ को चौकन्ना रखता हूँ.
आजकल विज्ञापन कम्पनियों में अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को खींचने की होड़ ने इस तरह के भोंडेपन को बढ़ावा दिया है. जो वर्ग अभी नया-नया उपभोक्ता बना है या जिसमें उपभोक्ता बनने की संभावनाएँ छिपी हैं.. उसे अपने सामान से रिझाया जा रहा है.
आज संस्कृति पर चिंतन पर करने वालों की काफी कमी है... व्यक्तिगत स्तर पर ये प्रयास तो हो रहे हैं लेकिन सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर इनके प्रति घोर उदासीनता है. नैतिक मूल्यों की सुरक्षा के लिये यदि कोई धर्म कोशिश करता है तो उसे कट्टरवादी कोशिशें कहा जाने लगता है और उस धर्म को रूढ़ीवादी व संकीर्ण मानसिकता का माना जाने लगता है. इसलिये ऐसे मामलों पर भी बड़े-बूढ़े खामोश रहने लगे हैं... अपनी पीड़ा को किसी से नहीं कहते.
आपने इस पीड़ा को व्यक्त किया ... सराहनीय प्रयास है.
साजिशों के तहत किये गये हमलों पर नज़र रखना अब व्यक्तिगत प्रयासों से संभव है.
रविकर जी की काव्य-टिप्पणी सारगर्भित है. काफी पसंद करता हूँ उनकी टिप्पणियाँ.
bilkul sahi kah rhe hai aap
मुद्दा गम्भीर है
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