पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था। जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो मेरे लिए भी उस समय का बाल साहित्य घर आने लगा। सारी बाल पत्रिकाओं के नाम तो मुझे आज भी याद हैं; मनमोहन, बालक, चंदामामा, चुन्नू-मुन्नू जिनमें फिर पराग का नाम भी जुड़ गया। इसके अलावा पाठ्य पुस्तकों के इतर, तरह-तरह की देसी-विदेशी बाल साहित्य की रोचक पुस्तकें भी मेरे लिए लाते-मंगवाते रहते थे, फिर वह चाहे पंचतंत्र हो, ईसप की कथाएं हों, अलादीन हो, एलिस हो या फिर हमारे महान ग्रंथों का बाल संस्करण हो। उन दिनों बच्चों के सर्वांगीण विकास और उनके चरित्र निर्माण, उनके बचपन का बहुत ध्यान रखा जाता था, इसीलिए हर पुस्तक-पत्रिका में ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ पौराणिक-इतिहासिक कहानियों का समावेश भी जरूर हुआ करता था, हाँ आज की तरह अपने गुरुवरों या बड़ों का मजाक, खिल्ली उड़ाने वाली ना कथाएं होती थीं ना हीं चुटकुले..........
#हिन्दी_ब्लागिंग
पिताजी का कार्य-क्षेत्र कलकत्ता (आज का कोलकाता) होने के कारण मेरा बचपन भी वहीं बीता। ददिहाल व ननिहाल पंजाब में थे। उस लिहाज से जैसा कहते हैं ना कि छुटपन में दादी-नानी की पौराणिक, ऐतिहासिक, परियों की कथा-कहानियां सुनी-सुनाई जाती थीं, वैसा मेरे साथ नहीं हो पाया। पर इस मामले में मैं सौभाग्यशाली रहा ! पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था। घर पर दो कांच की आलमारियां तरह-तरह की पुस्तकों से भरी पड़ी थीं। जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो मेरे लिए भी उस समय का बाल साहित्य घर आने लगा। सारी बाल पत्रिकाओं के नाम तो मुझे अभी भी याद हैं, मनमोहन, बालक, चंदामामा, चुन्नू-मुन्नू जिनमें फिर पराग का नाम भी जुड़ गया। इसके अलावा पाठ्य पुस्तकों के इतर, तरह-तरह की देसी-विदेशी बाल पुस्तकें भी लाते-मंगवाते रहते थे। फिर वह चाहे पंचतंत्र हो, ईसप की कथाएं हों, अलदीन हो या फिर हमारे महान ग्रंथों का बाल संस्करण हो।
उन्होंने कभी पढ़ने पर ना जोर दिया नाहीं दवाब बनाया ! पता नहीं कैसे उन्हें मेरे इस रुझान का अंदाज लग गया ! शायद अपने संकलन में मेरी ताक-झाँक को परख कर। इसी के चलते पुस्तकों के बहुमूल्य खजाने का द्वार मेरे लिए खोल दिया गया। इतना ही नहीं जिस पुस्तकालय ने उन्हें आग्रह कर अपना सदस्य बनाया था, वहाँ से भी मुझे सद्साहित्य की प्राप्ति होने लगी। सस्ती का जमाना था पर लोगों की आमदनी भी वैसी ही होती थी सो मेरे तक़रीबन सभी संगी-साथी इस अवर्चनीय सुख से वंचित रहते थे, पाठ्य-पुस्तकों के अलावा किसी और किताब की कल्पना किसी-किसी घर में ही हो पाती थी वह भी इक्का-दुक्का ! मेरे पास तो भंडार था और दिल दरिया ! फिर क्या था, हरेक के लिए हर पुस्तक उपलब्ध, जो उनके परिवार के बड़े भी पढ़ा करते थे। पर शर्त यही रहती थी कि संभाल कर पढ़ा जाए और सही सलामत, बिना कटे-फटे वापस की जाए। क्योंकि वे पुस्तकें मुझे निर्जीव नहीं सजीव लगा करती थीं, अपने परिवार के सदस्यों की तरह।
दैनिक अखबार ''अमृत बाज़ार पत्रिका", जिसका प्रकाशन 1991 में 123 साल के बाद किन्हीं कारणों से बंद हो गया, के साथ-साथ साप्ताहिक हिन्दुस्तान तथा धर्मयुग नियम से आते थे। कभी-कभार माया, सरिता, मनोरमा या फ़िल्मी-पत्रिका फिल्म फेयर हावड़ा स्टेशन के A. H. Wheeler के स्टाल से आ जाए तो आ जाए, पर किसी हल्के या सतही पुस्तक या पत्रिका को कभी भी घर में प्रवेश नहीं मिला ! अपने समय की सर्वाधिक बिक्री वाली मनोहर कहानियां को तो कभी भी नहीं।
पिताजी की कृपा से ही उन सब बातों का असर आज दिख रहा है। पढ़ने की भूख, जिज्ञासु प्रवृत्ति, हर क्षेत्र के बारे में कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त करने की इच्छा अभी भी अपने चरम पर है। आज की पीढ़ी को और उनके
भी छोटे बच्चों को अपनी पौराणिक, ऐतिहासिक, सामयिक कथा कहानियों की जानकारी प्रदान करना बहुत सुहाता है। किसी भी लोकप्रिय कथा-साहित्य-पुस्तक के मुख्य मार्ग से हट कर जब उसके गली-कूचों की बात बताई जाती है तो उनके मुख खुले के खुले रह जाते हैं। क्योंकि आज की शिक्षा पद्यति में उन सब बातों को सम्मलित करना फिजूल माना जाता है, जिनको पहले स्वस्थ मन, दृढ चरित्र, विकसित मस्तिष्क और मानव धर्म के लिए जरुरी समझा जाता था। आज ज्ञान नहीं सिर्फ जानकारी को आगे रख, रोजगार प्राप्ति को ही सर्वोपरि बना सारे मापदंड तय किए जाते हैं, पर विडंबना है कि फिर भी बेरोजगारी बढ़ती जा रही है ! याने ना माया मिली ना राम !
6 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन शिक्षक दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बचपन में मेरा हाल भी आपके दोस्तों के जैसा था। महीने छः महीने में नंदन या चम्पक मिल जाया करती थी और उसी में मौजूद कहानियाँ कई कई बार पढ़ लिया करते थे। तेनालीराम के किस्से काफी रोचक लगते थे। फिर comics के प्रति रुझान गया। और अब सब कुछ पढ़ने की आदत है। सुन्दर पोस्ट।
रोचक पोस्ट..पराग, चंदा मामा व चम्पक के साथ नंदन भी काफी लोकप्रिय बाल पत्रिका थी उन दिनों..
हर्ष जी, स्नेह बना रहे
विकास जी, कुछ अलग सा पर सदा स्वागत है
अनिता जी, स्वागत है। नंदन का पदार्पण कुछ समय बाद हुआ था
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