पहले तो इस खेल को खेलने की सुविधा कहीं-कहीं ही होती थी पर आजकल यह आम होता जा रहा है। मुझे गुड़गांव के आम्बिएंस मॉल में तीन-चार बार इसे खेलने का मौका मिला है। दिखने में जितना आसान लगता है उतना आसान यह है नहीं ! पहले तो यूँ ही बॉल को पकड़ कर दे मारते थे पिन पर ! पर धीरे-धीरे पता चला कि हर खेल की तरह इसमें भी अभ्यास और तकनीक जानकारी की उतनी ही जरुरत है जितनी बाकी खेलों में ! इसमें कलाई तथा उँगलियों का मजबूत होना भी बहुत आवश्यक है। बॉल को हथेली पर साधना भी एक कला है..........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
आधुनिक मॉल्स में सिनेमा घरों के अलावा मनोरंजन तथा खेलों के तरह-तरह के और भी उपकरण जुटाए जाते हैं जिससे ग्राहकों की आमद सदा बनी रहे। ऐसा ही एक खेल है "पिन-बॉलिंग"। इसमें एक 41" x 60' की लकड़ी या सिंथेटिक से बनी सीधी लेन या पट्टी होती है जिसके अंत में प्लास्टिक कोटेड, एक ख़ास लकड़ी के बने बबुआ नुमा गुटके जिन्हें "पिन'' कहा जाता है, त्रिभुजाकार आकार में स्वचालित मशीन द्वारा रखे होते हैं, जिनका प्रत्येक का वजन तक़रीबन डेढ़ किलो और ऊंचाई पंद्रह इंच और निचला व्यास सवा दो इंच का होता है। इन्हें लेन के छोर पर खड़े हो कर एक कठोर लकड़ी से बने बॉल से गिराना होता है। आम तौर से इस बॉल का वजन करीब सात किलो होता है, पर महिलाओं और बच्चों के लिए कुछ हल्के बॉल प्रयोग में लाए जाते हैं। वैसे इन्हें खिलाड़ी, जिसे बॉलर कहा जाता है, अपनी सुविधानुसार चुनता है। बॉल में तीन छेद बने होते हैं दो उँगलियों के लिए और एक अंगूठे के वास्ते। जिनके सहारे बॉल पर पकड़ बना, निशाना साध कर "पिन" को गिराना होता है। दाएं और बाएं हाथ से फेंकने में थोड़ा सा फर्क होता है। पिन के गिरने के हिसाब से अलग-अलग अंक प्राप्त होते हैं।
कनाडा में यही खेल पांच "पिन" से भी खेला जाता है ! क्योंकि कई लोगों को दस पिन से शिकायत थी कि उससे थकान और हाथों में अकड़ाहट और दर्द शुरू हो जाता है। इसलिए वहाँ पिन के आकार को छोटा कर दिया गया और बॉल भी रबर की बना इस खेल को कुछ आसान और खुशनुमा बना दिया गया। पर लोगों की दिलचस्पी दस पिन में ज्यादा है और वह ही लोकप्रिय भी है।
इस की लेन या पट्टी के पीछे एक जटिल तकनीक काम करती रहती है जो बॉल को वापस आपके पास के फ्रेम में बिना सामने लाए पहुंचाती है तथा पिन को भी व्यवस्थित करती है। सारी पिन गिरने पर पुन: उन्हें ट्रे में सजा उन्हें आपके सामने रखना या जितनी गिरी हैं उनको छोड़ बाकियों को पुन: स्थापित करने का काम अपने आप होता चलता है।
पहले तो इस खेल की सुविधा कहीं-कहीं ही होती थी पर आजकल यह आम होता जा रहा है। मुझे गुड़गांव के आम्बिएंस मॉल में तीन-चार बार इसे खेलने का मौका मिला है। यहां खेलों के कुछ बेहद आधुनिक संस्करण उपलब्ध हैं। मॉल के इस हिस्से पर सचिन तेंदुलकरऔर विराट कोहली का मालिकाना हक़ है। बॉलिंग का यह खेल दिखने में जितना आसान लगता है उतना आसान यह है नहीं ! पहले तो यूँ ही बॉल को पकड़ कर दे मारते थे पिन पर ! पर धीरे-धीरे पता चला कि हर खेल की तरह इसमें भी अभ्यास और तकनीक जानकारी की उतनी ही जरुरत है जितनी बाकी खेलों में ! इसमें कलाई तथा उँगलियों का मजबूत होना भी बहुतआवश्यक है। बॉल को हथेली पर साधना भी एक कला है; नहीं तो अधिकाँश बार आप अपनी पारी, बॉल को यूं ही बिना लक्ष्य तक पहुंचाए बेकार कर देते हैं। हालांकि ज्यादा देर खेलने से हाथ और कलाई में दर्द और तनाव भी महसूस होने लगता है। फिर भी इस खेल को खेलने का अलग ही मजा और नशा है। इसलिए कहीं भी आउटिंग वगैरह पर इसको खेलने की सुविधा उपलब्ध हो तो आजमाने से चूकिएगा नहीं !
#हिन्दी_ब्लागिंग
आधुनिक मॉल्स में सिनेमा घरों के अलावा मनोरंजन तथा खेलों के तरह-तरह के और भी उपकरण जुटाए जाते हैं जिससे ग्राहकों की आमद सदा बनी रहे। ऐसा ही एक खेल है "पिन-बॉलिंग"। इसमें एक 41" x 60' की लकड़ी या सिंथेटिक से बनी सीधी लेन या पट्टी होती है जिसके अंत में प्लास्टिक कोटेड, एक ख़ास लकड़ी के बने बबुआ नुमा गुटके जिन्हें "पिन'' कहा जाता है, त्रिभुजाकार आकार में स्वचालित मशीन द्वारा रखे होते हैं, जिनका प्रत्येक का वजन तक़रीबन डेढ़ किलो और ऊंचाई पंद्रह इंच और निचला व्यास सवा दो इंच का होता है। इन्हें लेन के छोर पर खड़े हो कर एक कठोर लकड़ी से बने बॉल से गिराना होता है। आम तौर से इस बॉल का वजन करीब सात किलो होता है, पर महिलाओं और बच्चों के लिए कुछ हल्के बॉल प्रयोग में लाए जाते हैं। वैसे इन्हें खिलाड़ी, जिसे बॉलर कहा जाता है, अपनी सुविधानुसार चुनता है। बॉल में तीन छेद बने होते हैं दो उँगलियों के लिए और एक अंगूठे के वास्ते। जिनके सहारे बॉल पर पकड़ बना, निशाना साध कर "पिन" को गिराना होता है। दाएं और बाएं हाथ से फेंकने में थोड़ा सा फर्क होता है। पिन के गिरने के हिसाब से अलग-अलग अंक प्राप्त होते हैं।
कनाडा में यही खेल पांच "पिन" से भी खेला जाता है ! क्योंकि कई लोगों को दस पिन से शिकायत थी कि उससे थकान और हाथों में अकड़ाहट और दर्द शुरू हो जाता है। इसलिए वहाँ पिन के आकार को छोटा कर दिया गया और बॉल भी रबर की बना इस खेल को कुछ आसान और खुशनुमा बना दिया गया। पर लोगों की दिलचस्पी दस पिन में ज्यादा है और वह ही लोकप्रिय भी है।
इस की लेन या पट्टी के पीछे एक जटिल तकनीक काम करती रहती है जो बॉल को वापस आपके पास के फ्रेम में बिना सामने लाए पहुंचाती है तथा पिन को भी व्यवस्थित करती है। सारी पिन गिरने पर पुन: उन्हें ट्रे में सजा उन्हें आपके सामने रखना या जितनी गिरी हैं उनको छोड़ बाकियों को पुन: स्थापित करने का काम अपने आप होता चलता है।
पहले तो इस खेल की सुविधा कहीं-कहीं ही होती थी पर आजकल यह आम होता जा रहा है। मुझे गुड़गांव के आम्बिएंस मॉल में तीन-चार बार इसे खेलने का मौका मिला है। यहां खेलों के कुछ बेहद आधुनिक संस्करण उपलब्ध हैं। मॉल के इस हिस्से पर सचिन तेंदुलकरऔर विराट कोहली का मालिकाना हक़ है। बॉलिंग का यह खेल दिखने में जितना आसान लगता है उतना आसान यह है नहीं ! पहले तो यूँ ही बॉल को पकड़ कर दे मारते थे पिन पर ! पर धीरे-धीरे पता चला कि हर खेल की तरह इसमें भी अभ्यास और तकनीक जानकारी की उतनी ही जरुरत है जितनी बाकी खेलों में ! इसमें कलाई तथा उँगलियों का मजबूत होना भी बहुतआवश्यक है। बॉल को हथेली पर साधना भी एक कला है; नहीं तो अधिकाँश बार आप अपनी पारी, बॉल को यूं ही बिना लक्ष्य तक पहुंचाए बेकार कर देते हैं। हालांकि ज्यादा देर खेलने से हाथ और कलाई में दर्द और तनाव भी महसूस होने लगता है। फिर भी इस खेल को खेलने का अलग ही मजा और नशा है। इसलिए कहीं भी आउटिंग वगैरह पर इसको खेलने की सुविधा उपलब्ध हो तो आजमाने से चूकिएगा नहीं !
6 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन हिरोशिमा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
रोचक जानकारी !
हर्ष जी, हार्दिक धन्यवाद
अनिता जी, कुछ अलग सा पर सदा स्वागत है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-08-2018) को "सावन का सुहाना मौसम" (चर्चा अंक-3057) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
राधा जी, बहुत-बहुत शुक्रिया, आभार
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