सोमवार, 4 जून 2018

पानी, प्लास्टिक, पर्यावरण ! सिर्फ डराइये या सुझाइये ही नहीं, कुछ कर के भी दिखाइए -

बहस में भाग लेने वाले "उस्ताद लोगों" के पास कोई ठोस उपाय नहीं होते; वह वहाँ बैठे ही होते है अपनी विद्वता के प्रदर्शन, दूसरों को उपदेश या उनकी आलोचना करने के लिए ! उनसे कोई पूछने वाला नहीं होता कि जनाब आपने इस मुसीबत से पार पाने के लिए निजी तौर पर क्या किया है ? क्या आपने अपने लॉन-बागीचे की सिंचाई में कुछ कटौती की है ? क्या आप शॉवर से नहाते हैं या बाल्टी से ? आपके 'पेट्स' की साफ़-सफाई में कितना पानी जाया किया जाता है ? क्या आपके घर के A.C. या T.V. के चलने का समय कुछ कम किया गया  है ? आपके घर से निकलने वाले कूड़े में कितनी कमी आई है ? क्या आप या आपके सेवक बाजार से सामान लाने के लिए जाते समय घर से थैला ले कर जाते हैं ? क्या आप अपनी गाडी को छोड़ कभी पब्लिक वाहन का उपयोग करते हैं ? क्या जब आप यहां  आए तो संयोजक से A.C. बंद कर पंखे की हवा में ही बात करने की सलाह दी ?
#हिन्दी_ब्लागिंग
याद आती है, अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के शरुआत की: गर्मियों की छुट्टियों में जब बच्चों का रायपुर से दिल्ली आना होता था तो रास्ते के अधिकाँश स्टेशनों पर रेलवे के नल सूखे पड़े होते थे ! उन दिनों दिल्ली के लिए दो ही गाड़ियां हुआ करती थीं, छत्तीगढ़ एक्स. और समता। जाहिर है बेतहाशा गर्मी और बेहिसाब भीड़ के कारण यात्रा बहुत ही दुखदायी हुआ करती थी। उस पर रास्ते के लगभग सभी स्टेशनों पर रेलवे के पानी के नल सूखे पड़े होते थे। यह एक सोची-समझी, व्यापारियों और रेलवे के कुछ कर्मचारियों की मिली भगत से अंजाम दी गयी निकृष्ट हरकत होती थी। यात्रियों को मजबूरन कोक या घटिया, हानिकारक "कोल्ड ड्रिंक" के नाम से बिकने वाला रंगीन पानी अच्छी-खासी कीमत अदा कर खरीदना पड़ता था। यह बात इसलिए याद आ रही है क्योंकि आम अवाम को बेवकूफ बनाने के लिए बाजार सदा ही तत्पर रहता है। उसके लिए वह हर तरह का कपट-छल-छिद्र अपनाने से नहीं चूकता। हालांकि आज उपभोक्ता बहुत हद तक जागरूक हो चुका है पर बाजार की ताकतें उससे सदा ही दो कदम आगे रहने की तिकड़म भिड़ा लेती हैं। इसमें कुछ हद तक 'माननीयों' का भी हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
 

कमो-बेश उपरिलिखित जैसे कुछ हालात आज भी नजर आ रहे हैं; पेय जल की तंगी के साथ ही बोतल बंद जल की मांग बेतहाशा बढ़ती ही जा रही है। क्या यह भी कोई विदेशी षडयंत्र ही तो नहीं ? वैसे तो आज सारी दुनिया तेजी से पीने के पानी की घटती उपलब्धता को लेकर चिंतित है। हमारा देश भी  कोई अपवाद नहीं है इस मामले में ! पर ऐसा क्यूँ कि पानी बचाने, उस का कम उपयोग करने, उसका संरक्षण करने की जिम्मेदारी आम इंसान और उसमें भी सिर्फ मध्यम वर्ग पर ही थोप दी गयी है ? क्यों उसे ही नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है,  क्यों उसे ही नसीहत दी जाती है ? क्यों उसे ही भाषण पिलाए जाते हैं ? ठीक है, समाज के इस वर्ग की संख्या अपार है उसके संभलने से बहुत कुछ संभल सकता है ! पर क्या हमारे देश के कर्णधारों, उच्चवर्ग या निम्न वर्ग के वाशिंदों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती ? क्यों वहां सैकड़ों एकड़ लॉनों की सिंचाई, असंख्य गाड़ियों की धुलाई या फिर लाखों बस्तियों में बिना टोंटी के नलों से पानी की बहाई पर रोक नहीं लगती ? क्यों सुबह लोगों को पानी की महत्ता पर भाषण झाड़ने वाले महानुभाव शाम को लाखों गैलन पानी की बर्बादी की कीमत पर होने वाले क्रिकेट के "तमाशे" में जा तालियां बजाने लगते हैं ? क्यों इस पर ध्यान नहीं दिया जाता कि जैसे-जैसे पीने के पानी पर हव्वा खड़ा किया जा रहा है वैसे-वैसे बोतल-बंद तथाकथित मिनरल जल की बिक्री बढ़ती जा रही है ? क्या यह भी कोई विदेशी साजिश है कि इस बार "कोल्ड ड्रिंक" ना सही पानी ही या फिर उसको साफ़ करने की मशीन खरीदनी पड़ रही है उनकी ? मशीन भी कैसी जो पानी की सफाई के दौरान करीब उतना ही पानी बर्बाद कर देती हो ! इसके अलावा यह भी सच है कि वर्षों से जिस ख़ास तरह की मशीन को लेने की सिफारिश हमारी एक जानी-मानी माननीय महोदया कर रही हैं, वह हर जगह के पानी के लिए जरूरी नहीं है और उससे बेशुमार पानी का अपव्यय भी होता है पर यहां कोई नैतिकता काम नहीं करती !

आज कोई भी पत्र-पत्रिका, चैनल, अखबार देख लीजिए सब में भविष्य के पर्यावरण का डरावना रूप ही दिखाया बताया जाता है ! चाहे हवा की बात हो, मौसम की बात हो या पानी की सब जगह नकारात्मक बातें की जाती हैं। वहाँ बैठे "उस्ताद लोगों" के पास कोई ठोस उपाय नहीं होते; वह वहाँ बैठे ही होते है दूसरों की या सरकार की आलोचना करने के लिए ! वे सिर्फ समय बताते हैं कि इतने सालों बाद यह हो जाएगा, उतने वर्षों बाद वैसा हो जाएगा; ऐसा करना चाहिए, हमें वैसा करना होगा, इत्यादि,इत्यादि। उनसे कोई पूछने वाला नहीं होता कि जनाब आपने इस मुसीबत से पार पाने के लिए क्या-क्या किया है ? क्या आपने अपने लॉन-बागीचे की सिंचाई के लिए कुछ कटौती की है ? आप के घर से नकलने वाले कूड़े में कितनी कमी आई है ? क्या आप शॉवर से नहाते हैं या बाल्टी से ? आपके 'पेट्स' की साफ़-सफाई में कितना पानी जाया किया जाता है ?  क्या आपके घर के AC या TV के चलने का समय कुछ कम हुआ है ? क्या आप यहां जब आए तो संयोजक से AC बंद कर पंखे की हवा में ही बात करने की सलाह दी ? क्या आप कभी पब्लिक वाहन का उपयोग करते हैं ? कोई पूछेगा भी नहीं क्योंकि यह सब तो मध्यम वर्ग का जिम्मा है ! उसी से उम्मीद की जाती है कि वह सब्सिडी छोड़ दे, इसी वर्ग के बुजुर्गों से गुजारिश की जाती है कि अपने मिलने वाले किराए की छूट को न लें ! समाज के इसी हिस्से के युवाओं को हतोत्साहित किया जाता है सक्षम होने के बावजूद ! इसी वर्ग पर हर तरह के टैक्सों को थोपा जाता है और इसी वर्ग से ही अपेक्षा की जाती है देश सेवा की !!

हर तरफ से उपेक्षित यह वर्ग अभी तो सब चुपचाप सहता जा रहा है: पर कब तक ? जिस दिन इसने सवाल पूछने शुरू कर दिए उस दिन अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाएगी !   

6 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, संस्कृत श्लोक का अर्थ - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

radha tiwari( radhegopal) ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-05-2018) को "वृक्ष लगाओ मित्र" (चर्चा अंक-2993) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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पर्यावरण दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शिवम जी,

हार्दिक धन्यवाद !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राधा जी, आपका और चर्चा मंच का आभार !

shashi purwar ने कहा…

सार्थक पोस्ट

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुछ अलग सा पर सदा स्वागत है, शशि जी

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