सोमवार, 30 अप्रैल 2018

मेरी समझ में तो नहीं आता यह सब ? आपको आता है क्या ?

तलाशी लेने, छापा मारने, किसी को पकड़ने या अपराधी का पीछा करते हुए पुलिस सायरन बजाते क्यों घूमती है ? रात को चौकीदार डंडा पटक, सीटी बजा कर पहरेदारी क्यों करता है ? क्या चोर को बताने के लिए कि भाई मैं इधर हूँ ; तू अपना देख ले ! क्यों लोअर कोर्ट का फैसला हाई कोर्ट में उलट जाता है ? क्या पिछला जज अनुभव हीन होता है ? क्यों माननीय लोगों को अनाप-शनाप सुविधाएं दी जाती हैं ? क्यों नहीं करोड़ों-अरबों के मालिक सांसद वगैरह एक-दूसरे पर लांछन लगाने की बजाए एक-दो गांव गोद ले लेते ? क्यों आदमी जब कुत्ते को काटे तभी मीडिया के लिए खबर बनती हैं ........!
#हिन्दि_ब्लागिंग 
कुछ बातें ऐसी होती हैं जो समझ में नहीं आतीं चूँकि होती चली आ रही हैं इसलिए सब उसे सामान्य रूप से लेते चलते हैं, उनका औचित्य  किसी की समझ में आता हो या ना आता हो,  मुझे तो खैर आज तक नहीं आया ! जैसे

धूम्रपान दुनिया-जहांन में बुरा, सेहत के लिए हानिकारक, शरीर के लिए नुकसानदेह है। सरकार ने सेवन तथा विक्रय करने वालों पर कड़ी नजर तथा दसियों पाबंदियां थोप रखी हैं ! लोगों को इसकी बुराई के बारे में हिदायतें देने पर लाखों रुपये फूँक दिए जाते हैं। पर ना हीं तंबाखू की पैदावार पर कभी रोक लगी और नाहीं सिगरेट इत्यादि बनाने वाले कारखानों पर। अब सोचने की बात यह है कि कोई इंसान करोड़ों खर्च कर इतना बड़ा कारखाना शौकिया तो लगाएगा नहीं; वह तो अपनी लागत निकालने के लिए अपना उत्पाद तो बेचेगा ही। जब सामान बाजार में उपलब्ध होगा, बिकेगा तो खरीदने वाला उसका उपयोग करेगा ही...फिर ? कहते हैं नशीली चीजों से ही सरकार को सबसे ज्यादा आमदनी होती है; तो हुआ करे फिर उनकी बंदी का नाटक क्यों ?

यही बात पान-मसाला, गुटका, मैनपुरी सुपारी, खैनी सब पर उसी तरह लागू होती है। जब बाजार में सामान मिल रहा हो तो शौकीन, लती, आदत से मजबूर लोग उसे खरीदेंगे ही ! आप लाख बंदिशें लगा दें, अनाप-शनाप कीमतें बढ़ा दें, सार्वजनिक उपयोग करने वालों के लिए दंड निर्धारित कर दें, पर उन्हें रोक नहीं पाएंगे, यह ध्रुव सत्य है। जब तक उसका उत्पादन बिल्कुल ख़त्म नहीं हो जाता। शराब को ही लीजिए गुजरात में पचास साल से ऊपर हो गए इसे प्रतिबंधित हुए, पर हर साल वहाँ पकडे जाने वाले इस द्रव्य की कीमत करोड़ों में है ! सैंकड़ों लोग जहरीली शराब के कारण मौत के मुंह में चले जाते हैं। गुजरात की शराबबंदी की हक़ीकत सब जानते हैं. वहाँ शौकीनों को अधिक दाम देकर हर तरह की शराब आसानी से उपलब्ध हो जाती है। जहरीली शराब के हरियाणा, आंध्र प्रदेश, बिहार जहां-जहां इसका सेवन निषेद्ध किया गया वहीँ अपराध और मौतों में इजाफा हुआ। एक तरफ तो कुछ सरकारें इसको बंद करने के लिए कटिबद्ध हैं तो दूसरी ओर छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में सरकार खुद ही इसका वितरण अपने हाथों में ले जगह-जगह दुकाने खुलवा रही है ! एक तरफ तो आप ऐसी चीजों से होने वाले नुक्सान से बचाने की बात करते हो और दूसरी तरफ उसी को बेचने का जुगाड़ भी फिट करते हो; ये दोगलापन समझ के बाहर है कि नहीं ? 
दोषी लोगों के लिए प्राणदंड का प्रावधान है पर धंदा चालू है। कभी सुना है किसी को दंड भुगतते ? 


दो-तीन साल पहले खूब हल्ला मचा प्लास्टिक की थैलियों को लेकर। यह बताने में करोड़ों रूपये बहा दिए कि इससे जमीं-हवा-पानी सब बर्बाद हो जाता है; कुछ दिन असर रहा पर फिर सब यथावत ! ना फैक्ट्रियां बंद हुईँ, ना हीं बिक्री रुकी ! आज सब धड़ल्ले से चल रहा है। बाकी का तो छोड़िए दिल्ली जो प्रदूषित वातावरण से परेशां है वहीँ इसे रोकने वाला कोई नहीं है। अटि पड़ी हैं, सड़कें , नाले-नालियां प्लास्टिक के कचड़े से। जब तक उत्पादन पर रोक नहीं लगेगी तब तक कैसे रुकेगा यह गोरख - धंदा ? सोचने की बात है 

कि ऐसी जगहों को बिजली-पानी हर चीज की सुविधा कौन उपलब्ध करवाता है ? क्या आम आदमी ? चाणक्य ने कटीले पौधे की जड़ों में मठ्ठा डाल उसे समूल नष्ट करने की शिक्षा दी थी। पर यहां विडंबना यही है कि आप जड़ को तो ख़त्म कर नहीं रहे पत्तों टहनियों पर जोर दिखा रहे हो तो विष-वृक्ष पनपने से कैसे रुकेगा ? कारण वही है, इन सब चीजों के कारखाने ज्यादातर रसूखदार, भाई-भतीजों, पार्टी नेताओं या आमदनी स्रोतों के पास होते है जो अपने दल-बल-छल से येन-केन-प्रकारेण अपना हित साध लेते हैं। अंदर ही अंदर पैसों का खेल चलता रहता है और हमारे जैसों को कुछ भी समझ नहीं आता। 

इसी संदर्भ में एक बात और...कभी सोचा है आपने कि तलाशी लेने, छापा मारने, किसी को पकड़ने या अपराधी का पीछा करते हुए पुलिस सायरन बजाते क्यों घूमती है ? क्या उसे सचेत करने के लिए ? रात को चौकीदार डंडा पटक, सीटी बजा कर पहरेदारी क्यों करता है ? क्या चोर को बताने के लिए कि भाई मैं इधर हूँ और उधर जा रहा हूँ; तू अपना देख ले ! क्यों लोअर कोर्ट का फैसला हाई कोर्ट में उलट जाता है क्या पिछला जज अनुभव हीन होता है ? क्यों माननीय लोगों को अनाप-शनाप सुविधाएं दी जाती हैं जब कि पिछली पंक्ति के सर्वहारा को पानी तक नसीब नहीं होता ? क्यों नहीं करोड़ों-अरबों के मालिक सांसद वगैरह एक-दूसरे को देश की गरीबी का जिम्मेदार साबित करने की बजाए एक-दो गांव गोद लेकर मिसाल कायम करते ? क्यों आदमी जब कुत्ते को काटे तभी मीडिया के लिए खबर बनती हैं  ?  क्यों मेरी समझ में तो नहीं आता यह सब ? आपको आता है क्या ?           

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

सबकी प्यारी , पर जेब पर भारी......मेट्रो

दिनों-दिन बढ़ाई जाती कीमतों से तो यही लगता है कि मंशा-ए-हाकिम यही है कि मुश्किल हालातों में किसी तरह गुजर कर रहे नागरिकों के पास की दमड़ी को भी तरह-तरह के हथकंडे अपना किसी तरह हथिया लिया जाए। किराया बढ़ाना सबसे सरल और तुरंत उगाही का तरीका है। क्योंकि कमाई के और पचासों उपाय श्रम और समय दोनों की मांग करते हैं। जिसके लिए किसी में सब्र नहीं है ! गरीब-गुरबा तो कहने की बातें है, इस बार तो सायकिल वालों को भी नहीं बक्शा गया ..............!        
#हिन्दी_ब्लागिंग
इस बार सर्दियों में दिल्ली के पर्यावरण का माहौल किसी गैस चेंबर जैसा था। जाहिर है हो-हल्ला मचा, तरह-
तरह के नेताओं ने तरह-तरह की चिंताओं से घिर तरह-तरह के आश्वासन दे तरह-तरह के सब्ज बाग़ दिखलवाए ! जिसमें एक था मेट्रो के उपयोग के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना। समझाइश यह थी कि निजी वाहन कम निकलेंगे तो "स्मॉग" घटेगा। इसके लिए बच्चों की सेहत को सामने रख भावनात्मक रूप से ब्लैकमेलिंग भी की गयी। बहुतेरे लोग झांसे में आ गए ! थोड़ी-बहुत अड़चनों को नजरंदाज कर, अपनी गाड़ियां छोड़, मेट्रो का सहारा लिया। समयानुसार मौसम बदला, वायुमण्डल में जैसे ही कुछ सुधार हुआ, चंट लोगों ने मेट्रो का किराया अनाप-शनाप बढ़ा दिया ! जनता भौंचक्की ! कुछ लोग फिर अपने निजी वाहनों की ओर लौटे; धड़ से पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ गयीं, उनका तो वैसे ही एक अलग इंद्रजाल है जो किसी की समझ में नहीं आता। अवाम के वश में कहाँ कुछ रहता है, लोग बड़बड़ाते रहे
, जेब ढीली करते रहे। कुछ ने बसों की तरफ रुख किया तो उनके किरायों में बढ़ोत्तरी कर दी गयी। ऐसे ही कुछ दिन बीते,  अभ्यस्तता आती देख फिर देश-हित में सदा तत्पर रहने वालों की कमिटी ने मेट्रो पार्किंग लगभग दुगनी कर दी, यहां तक कि सायकिल वालों को भी नहीं छोड़ा ! क्या इनसे कोई पूछने वाला भी नहीं कि भाई इस तरह कीमत बढ़ते रहने से लोग तुम्हारी मेट्रो को क्यों प्राथमिकता देंगे ? जबकि सच्चाई भी यही है कि मेट्रो से लोगों का मोह-भंग हो रहा है ! सोचने वाली बात यह है कि यदि आप सच्चे दिल से देश-समाज-अवाम का हित समझते हुए यह चाहते हैं कि जनता अपने वाहन का उपयोग ना कर सरकारी यातायात से सफर करे तो उसे लगना तो चाहिए कि निजी से सरकारी वाहन में यात्रा फायदेमंद ना सही पर नुक्सान दायक भी नहीं है।
यहां तो उल्टा हो रहा है ! लग रहा है कि मुश्किल हालातों में भी किसी तरह गुजर कर रहे नागरिकों के पास की दमड़ी को भी तरह-तरह के हथकंडे अपना किसी तरह हथिया लिया जाए। क्योंकि यह सबसे सरल और तुरंत उगाही का तरीका है। क्योंकि कमाई के और पचासों तरीके श्रम और समय दोनों की मांग करते हैं। जिसके लिए किसी में सब्र नहीं है। क्या कारण है कि सरकारी ठप्पा लगते ही हर काम घाटे में चलने लगता है और गैर सरकारी उद्यम दिन दुनि रात चौगुनी कमाई करते चले जाते हैं ! वैसे इस बारे में जानते तो सभी हैं !

अब रही उन कमेटियों की बात जो घाटे की पूर्ती के मार्गदर्शन के लिए बनाई जाती हैं। उनमें कौन लोग होते हैं जो ऐसे फैसले लेते हैं ? ये तो साफ़ है उन्हें अवाम से कोई लेना-देना नहीं है, नाहीं उनकी जेब से कुछ जा रहा है !
उल्टे ऐसे बेतुके निर्णयों पर भी उन्हें भारी-भरकम फीस तो चुकाई जाती ही होगी साथ ही तरह-तरह की सरकारी सुविधाएं भी मुहैय्या करवाई जाती होंगी। ऐसे लोगों के नाम भी उजागर होने चाहिए। बहुत इच्छा है ऐसे महानुभावों के नाम और चेहरे देखने जानने की जिनका खुद और उनके परिवार का आवागमन तो कभी-कभार ही धरती से होता हो और होता भी हो तो उन्हें उसके खर्च की जानकारी शायद ही हो ! ऐसे लोगों की न तो रियाया के साथ कोई सहानुभूति होती है ना हीं उसके हालातों पर ! ऐसे लोगों की जानकारी भी पब्लिक को उपलब्ध करवाई जानी चाहिए !

बुधवार, 25 अप्रैल 2018

मलेरिया दिवस, आज मच्छरों को बचाना है कि निपटाना है ? :-)

सुबह से ही भम्भल-भूसे में हूँ कि आज के दिन का उद्देश्य क्या है ? क्योंकि हमारे यहां रिवायत है कि दिवस उसी का मनाया जाता है जिसके अस्तित्व पर हम खुद खतरा मंडरवाते हैं और फिर उसे बचाने का नाटक करने का एक दिन निर्धारित कर देते हैं। जैसे पर्यावरण दिवस, हिंदी दिवस, धरा दिवस ! और तो और हम तो मातृ-पितृ दिवस भी मनाने लगे हैं, गोया कि ये हमारे माता-पिता ना हो कर कोई जींस हों ........! 
#हिन्दी_ब्लागिंग   
जिस तरह दिनों का तरह-तरह के मुद्दों के लिए दिनों का आवंटन हो रहा है, उससे तो यही लग रहा है कि आने वाले दिनों में दिन कम पड़ जाएंगे, मुद्दों की बनिस्पद।  25 अप्रैल ! आज विश्व मलेरिया दिवस है, अखबार से पता चला; पर उसने यह नहीं बतलाया कि इस बिमारी और इसके कीट का संरक्षण करना है या इसे हटाना है! 
सुबह से ही भम्भल-भूसे में हूँ कि आज के दिन का उद्देश्य क्या है ? क्योंकि हमारे यहां रिवायत है कि दिवस उसी का मनाया जाता है जिसके अस्तित्व पर हम खुद खतरा मंडरवाते हैं और फिर उसे बचाने का नाटक करने का एक दिन निर्धारित कर देते हैं। जैसे पर्यावरण दिवस, हिंदी दिवस, धरा दिवस ! और तो और हम तो मातृ-पितृ दिवस भी मनाने लगे हैं, गोया कि ये हमारे माता-पिता ना हो कर कोई जींस हों ! 

खैर, बात हो रही थी मच्छर की तो मुझे यही लगा कि मानव को छोड़ कुत्ते-बिल्लियों-भालू-बंदरों को बचाने वाली संस्थाओं को शायद इस छुद्र कीट का भी ध्यान आ गया हो, क्योंकि जिस तरह वर्षों से इसकी जान के पीछे दसियों देश हाथ धो कर पड़े हुए हैं। करोड़ों-अरबों रूपए इसको नष्ट करने के उपायों पर खर्च किए जा रहे हैं, तो कहीं इसकी प्रजाति नष्ट ही ना हो जाए। वैसे भी इन तथाकथित पशु-प्रेमियों को समाचारों में बने रहने का बहुत शौक होता है। जानकार लोगों का कहना है कि तरह-तरह की सावधानियां, अलग-अलग तरह के उपाय आजमाने के बावजूद साल में करीब चार लाख के ऊपर मौतें इसके कारण हो जाती हैं। इतने लोग तो मानव ने आपस में लडे गए युद्धों में भी नहीं खोए ! तो क्या ! सिर्फ इसीलिए हम प्रभू की एक अनोखी रचना को
मटियामेट कर देंगे ? नहीं ! एक-डेढ़ मिलीग्राम के इस दंतविहीन कीड़े को भी जीने का उतना ही हक़ है जितना इंसान को ! रही बात इंसान की मौतों की तो; लाखों लोग सिगरेट के कारण रोग- ग्रस्त हो दुनिया से कूच कर जाते हैं, अनगिनत लोग शराब के कारण मौत का निवाला बन जाते हैं, ड्रग्स, नकली दवाइयां, दूषित हवा, अशुद्ध जल, मिलावटी खाद्य पदार्थों से लाखों लोग असमय मृत्यु का शिकार हो जाते हैं तो क्या सिगरेट बंद हुई ? शराब के कारखानों पर ताले लगे ? साफ़ सुथरा खान-पान उपलब्ध हुआ ? वायुमंडल सांस लेने लायक बन पाया ? नहीं ! तो फिर इस गरीब के पीछे क्यों पड़े हो भई ? हम तो उस देश से हैं जहां जहरीले सांप को भी दूध पिलाया जाता है, भले ही वह उसे नुक्सान ही पहुंचा दे, चूहों को हम देवता की सके वारी मानते हैं, भले ही वह करोड़ों के अनाज का सत्यानाश कर दे ! कुत्तों के लिए लाखों घरों से रोज रोटियां निकलती हैं, भले ही भूख के कारण किसान मर जाते हों तो फिर इस मासूम जीव ने क्या पाप किए हैं ? यही सब सोच के मुझे लगा कि मलेरिया दिवस पर मच्छरों को संरक्षित करने के लिए ही इस दिन को चुना गया होगा। तो मैंने भी इसके लिए कुछ इंतजामात करने की सोची पर नासमझ विरोधी पक्ष के कारण............... खैर छोड़िए !

वैसे शायद प्रभू की भी यही इच्छा है कि ये नन्हा सा जीव फले-फूले नहीं तो क्या 1953 से इसके उन्मूलन में लगी दुनिया सफल ना हो जाती ? फिर इसकी पूरी फैमिली भी तो हमारी शत्रु नहीं है; बेचारा नर तो फूलों का रस वगैरह पी कर ही गुजारा कर लेता है। रही मादा की बात तो हर नारी जो वंश वृद्धि करती है उसे तो पौष्टिक खुराक चाहिए ही सो वह जरा सा जीवों का खून ले उसकी पूर्ती करती है, तो इसमें बुराई क्या है ? वैसे इंसानों की एक कहावत, "नारी ना सोहे नारी के रूपा" की पूरी हिमायतन है, इसलिए वह महिलाओं का खून विशेष रूप से पसंद करती है। वैज्ञानिकों के अनुसार महिलाओं के पसीने में एक विशेष गंध होती है, वही मादा मच्छरों को अपनी ओर आकर्षित करती है और इसके साथ ही लाल रंग या रोशनी भी इन्हें बहुत लुभाती है। 

सांप भले ही नाग देवता हो, उसकी बांबी में हाथ तो नहीं डालते। वैसे ही इनसे बच कर रहने की जरुरत है और इसका उपाय यही है कि खुद जागरूक रह कर अपनी सुरक्षा आप ही की जाए। क्योंकि ये महाशय "देखन में छोटे हैं पर घाव गंभीर करते हैं"।             

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

ल्ल ! हो गईल चार..!

एक रात जब एक पहरेदार ने सुबह चार बजे की सुचना घंटा बजा कर दी, तो दूसरे ने पूछा, का हो, मिसिर ! केतना बजइले ? पहला बोला, चार ! पर हम तो तीन ठो सुनले हईं ! पहला बोला।  अरे नाहीं, पूरा गिन के चार बार बजइले हईं !  दूसरा, अरे बुड़बक, तीन बार बजइले हउआ, फजिर में बड़ा साब निकाल बाहिर करीहें। अब पहला घबड़ा गया उसे लगा की गल्ती हो गयी है ! उसने मुगदर उठाया और दन्न से घंटे पे दे मारा....,ल्ल ! हो गईल चार.............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
कभी-कभी दिलो-दिमाग पर पड़ी किसी हल्की सी दस्तक से कोई ऐसी याद कपाट खोल सामने आ जाती है जो बरबस तन-बदन को तरंगित कर मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। कल रात सोते समय पता नहीं कैसे-कैसे, क्या-क्या लिंक जुड़ते गए जो धीरे-धीरे मुझे सत्तर के दशक में खींच कर ले गए। अपना बचपन, उस से जुड़े लोग, उनका भोलापन, बड़े लोगों की दयालुता-दानिश्ताई सब जैसे सजीव सा होता चला गया। उसी समय के दो-तीन प्रसंग पेश हैं जो आपके चहरे पर भी मुस्कान बिखेर देंगे। 
एस्पलेनेड के खादी उद्योग भवन पर लगी घडी 

हर की पौड़ी का टॉवर क्लॉक 
उन दिनों हाथ-घड़ियाँ आम नहीं हुआ करती थीं। समाज का ख़ास वर्ग ही उनका उपयोग किया करता था। आज यह जान कर अजीब लगे पर निम्न आय और मजदूर वर्ग तो शायद सोचता भी नहीं था घडी लेने के बारे में। लोगों की सहूलियतों के लिए शहरों-कस्बों के बड़े चौराहे पर बड़ी-बड़ी घड़ियाँ मीनार पर या ऊँची इमारतों पर लगाई जाती थीं। अभी भी ऐसी घड़ियाँ छोटे-बड़े शहरों में देखी जा सकती हैं। इसके अलावा कामगारों की सहूलियत के लिए  कल-कारखानों के साथ-साथ कई जगह रात के समय गजर, जिसे घंटा कहा जाता था, बजाने की परंपरा भी थी। यह एक लोहे का बड़ा सा, भारी आयताकार टुकड़ा होता था जो एक हुक से दोलायमान अवस्था में लटका रहता था इस पर सयानुसार एक लोहे के हथौड़े से चोट कर समय बताया जाता था, जैसे दो बजे, दो प्रहार कर, तीन बजे, तीन प्रहार कर। यह क्रम रात के ग्यारह बजे से शुरू हो सुबह के चार बजे तक हर घंटे, समय के अनुसार चलता था। 
गंगा का किनारा, जहां बचपन बीता ! 

घर गंगा किनारे वाले 
हमारी फैक्ट्री #Reliance Jute & Ind. ltd., का रिहाइश वाला हिस्सा ठीक गंगा नदी के किनारे पर था। वहाँ कोई दिवार वगैरह नहीं थी। उन दिनों चोरी-चकारी का उतना डर नहीं था फिर भी रात दस बजे से सुबह पांच बजे तक दो दरबानों (Guard) की ड्यूटी वहाँ लग जाया करती थी। उन्हीं पर रात को हर घंटे गजर बजाने का भी जिम्मा रहता था। कारखाने का तैयार माल-असबाब, रेल-सड़क और जल-मार्ग तीनों से बाहर भेजा जाता था। इसलिए नदी पर "जेटी" भी बनी हुई थी, जो घरों के पास ही थी। फैक्ट्री में गजर दो जगह बजाया जाता था; एक तो मेन-गेट पर, दूसरा जेटी पर। तो एक रात जब एक पहरेदार ने सुबह चार बजे की सुचना घंटा बजा कर दी, तो दूसरे ने पूछा, का हो, मिसिर ! केतना बजइल ? पहला बोला, चार ! पर हम तो तीन ठो सुनले हईं ! पहला बोला।  अरे नाहीं, पूरा गिन के चार बार बजइले हईं !  दूसरा, अरे बुड़बक, तीन बार बजइले हउअ, फजिर में बड़ा साब निकाल बाहिर करीहें। अब पहला घबड़ा गया उसे लगा की गल्ती हो गयी है ! उसने मुगदर उठाया और दन्न से घंटे पे दे मारा।... ल्ल ! हो गईल चार। दोनों जने संतुष्ट हो खैनी रगड़ने लगे।   
जेटी 

इसी तरह के होते थे गजर 
फिर ?
फिर क्या ! उधर चीफ-इग्ज़ेक्युटिव डागा जी अपने बंगले में जाग चुके थे। उन्होंने जब एक घंटे की आवाज सुनी तो चौंके कि अभी तो चार बजे थे पांच मिनट बाद ही एक कैसे बज गया ? घडी देखी तो सुबह के चार बज के पांच मिनट हुए थे। उस समय तो उन्होंने किसी को नहीं बुलाया पर सुबह छह बजे आफिस पहुंचते ही जेटी पर के उन दरवानों को बुला भेजा। दोनों जने डरते-कांपते हाजिर हुए ! सारी बात बतला सर झुकाए खड़े रहे। आगे से ध्यान रखने की हिदायत और जाने की इजाजत पा दोनों भगवान को धन्यवाद देते हुए भाग खड़े हुए। थोड़ी ही देर में यह बात पूरी मिल में फ़ैल गयी और दोनों जने हफ़्तों मुंह बचाते लुकते-छिपते रहे, खासकर हम बच्चों से.......!

*कल फिर मिसिर जी की पेशी 

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

सीधे पढ़ो तो रामायण, विपरीत पढ़ो तो भागवत; एक अद्भुत ग्रंथ "राघवयादवीयम्"

कवि वेंकटाध्वरि रचित ‘राघवयादवीयम्’ एक विलक्षण ग्रंथ है। इस ग्रंथ की विशेषता और अद्भुत खासियत यह है कि इसमें के 30 श्लोकों को अगर सीधे-सीधे पढ़ते जाएं, तो रामकथा बनती है, पर उन्हीं श्लोकों को उल्टा यानी विपरीत क्रम में पढ़ने पर वह कृष्ण-कथा बन जाती है। श्री राम और कृष्ण दोनों के संयुक्त नामों से इस रचना का नामकरण किया गया है। राघव रघु-कुल में जन्मे राम के महाकाव्य रामायण से है और यादव, यदु-कुल में जन्में कृष्ण जी के भागवत को संदर्भित करता है.......! 
#हिन्दी_ब्लागिंग 
हमारा देश अप्रतिम विचित्रताओं, अनोखी परम्पराओं, दुर्लभ सम्पदाओं,  विलक्षण प्रतिभाओं, अमूल्य धरोहरों से भरा पड़ा है। सबके बारे में जानने-समझने में अच्छी-खासी उम्र भी कम पड़ जाए।       
ऐसे ही इसे विश्व गुरुवत्व का पद प्राप्त नहीं हो गया था। पर आज उत्तम और उचित शिक्षा के अभाव में ज्ञान के बदले सिर्फ आधी-अधूरी जानकारियों की उपलब्धता से उत्पन्न अज्ञानता, अदूरदर्शिता या विदेश-परस्ती के कारण हम अपने उज्जवल अतीत पर ही विश्वास न कर पश्चिम का मुंह जोहने लगे हैं।  पर कभी-कभी अज्ञानता के आकाश पर छाए अंधकार पर किसी विद्वान की विलक्षण प्रतिभा की चमक अपनी कौंध से ऐसा प्रकाश बिखेर जाती है कि लोगों की आँखें चौंधिया कर खुली की खुली रह जाती हैं। आज एक ऐसे ही विलक्षण कवि की अद्भुत रचना की जानकारी प्रस्तुत है, जिसको यदि साक्षात पढ़ा या देखा ना जाए तो विश्वास करना मुश्किल है। विद्वान हैं वेंकटध्वरी तथा उनकी अलौकिक रचना का
नाम है  "राघवयादवियम"; श्री राम और कृष्ण दोनों के संयुक्त नामों से इस रचना का नामकरण किया गया है। राघव रघु-कुल में जन्मे राम के महाकाव्य रामायण से है और यादव, यदु-कुल में जन्में कृष्ण जी के भागवत को संदर्भित करता है. जिसे सीधा पढ़ा जाए तो राम की  रामायण कथा  और उल्टा पढ़ा जाए तो कृष्ण की भागवत कथा का वर्णन होता है। अद्भुत है यह रचना और धन्य है इसका रचनाकार, जिसकी विलक्षणता का दुनिया में कोई सानी नहीं है।  

कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि, जिनको अरसनपलै वेंकटाचार्य के नाम से भी जाना जाता है, 

द्वारा रचित ग्रंथ ‘राघवयादवीयम्’ एक अद्भुत ग्रंथ है। इस को अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। इसको पढ़ कर रचनाकार की संस्कृत की गहन जानकारी, भाषा पर आधिपत्य, अपने विषय में निपुणता और कार्यपटुता का एहसास हो जाता है। इस तरह की रचना कोई महा विद्वान और ज्ञानी विज्ञ ही कर सकता है। इस  इस ग्रंथ की विशेषता और अद्भुत खासियत यह है कि इसमें के 30 श्लोकों को अगर सीधे-सीधे पढ़ते जाएंतो रामकथा बनती है, पर उन्हीं श्लोकों को उल्टा यानी विपरीत क्रम में पढ़ने पर वह कृष्ण-कथा बन जाती है। वैसे तो इस ग्रंथ में केवल 30 श्लोक हैं, लेकिन विपरीत क्रम के 30 श्लोकों को भी जोड़ लेने से  60 श्लोक हो जाते हैं। पुस्तक के नाम, राघवयादवीयम, से ही यह प्रदर्शित होता है कि यह राघव (राम) और यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है । 

उदाहरण स्वरुप पुस्तक का पहला श्लोक हैः-
                                 अनुलोम :
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः । 
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे  1 
अर्थातः मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जो जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंनेअपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे। 
विलोम :
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः 
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम्  1 
अर्थातः मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है। 

इस ग्रंथ की रचना महान काव्यशास्त्री श्री वेंकटाध्वरि के द्वारा की गयी थी। जिनका जन्म कांचीपुरम के निकट अरसनपलै नाम के ग्राम में हुआ था। बचपन में ही दृष्टि दोष से बाधित होने के बावजूद वे मेधावी व

कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। उन्होंने वेदान्त देशिक का, जिन्हें वेंकटनाथ (1269–1370) के नाम से भी जाना जाता है  तथा जिनकी "पादुका सहस्रम्" नामक रचना चित्रकाव्य की अनुपम् भेंट है, अनुयायी बन काव्यशास्त्र में महारत हासिल कर 14 ग्रन्थों की रचना की, जिनमें 'लक्ष्मीसहस्रम्' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ऐसा कहते हैं कि इस ग्रंथ की रचना पूर्ण होते ही उनकी दृष्टि उन्हें वापस प्राप्त हो गयी थी। उनके विषय में अभी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है पर खोज जारी है। 

"राघवयादवीयम्" एक ऐसा ग्रंथ है जिसका दुनिया-जहान में कोई जोड़ या जवाब नहीं है। इसके रचनाकार को शत-शत प्रणाम आज कुछ विदेश-परस्त, तथाकथित विद्वान संस्कृत को एक मरती हुई भाषा के रूप में प्रचारित कर अपने आप को अति आधुनिक सिद्ध करने में

प्रयास-रत हैं। क्या कभी उन्होंने ऐसे अद्भुत ग्रंथों के बारे में सुना भी है ? ऐसे लोग एक बार इसका अवलोकन करें और फिर बताएं कि क्या ऐसा कुछ अंग्रेजी में रचा जा सकता है ? 

आज जरुरत है इस तरह की अद्भुत रचनाओं को अवाम के सामने लाने की जिससे समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत की विलक्षणता से सभी परिचित हो सकें, उसके महत्व को समझ सकें, उसकी सक्षमता से परिचित हो सकें। आज इसका अंग्रेजी में भी अनुवाद उपलब्ध है।   

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

'ठ' से 'ठठेरा' ! कौन है यह ?

युवक अपने बच्चे को हिंदी वर्णमाला के अक्षरों से परिचित करवा रहा था। आजकल के अंग्रेजियत के समय में यह एक दुर्लभ वार्तालाप था सो मेरा सारा ध्यान उन पर ही अटक कर रह गया और मैं यथासंभव उनके साथ ही चलने लगा। कुछ ही देर में "ट वर्ग" की बारी आ गयी। युवक के 'ठ' से 'ठठेरा' बतलाने और बालक द्वारा उसका अर्थ पूछने पर युवक ने बताया, यूटेंसिल्स का काम करने वाले को हिंदी में ठठेरा कहते हैं.... !
#हिन्दी_ब्लागिंग 
कल पार्क में घूमते हुए एक बाप-बेटे की बातचीत के कुछ ऐसे अंश मेरे कानों में पड़े कि मैं सहसा चौंक गया ! युवक अपने बच्चे को हिंदी वर्णमाला के अक्षरों से परिचित करवा रहा था। आजकल के अंग्रेजियत के समय में यह एक दुर्लभ वार्तालाप था सो मेरा सारा ध्यान उन पर ही अटक कर रह गया और मैं यथासंभव उनके साथ ही चलने लगा। कुछ ही देर में "ट वर्ग" की बारी आ गयी। युवक के 'ठ' से 'ठठेरा' बतलाने और बालक द्वारा उसका अर्थ पूछने पर युवक ने बताया, यूटेंसिल्स का काम करने वाले को हिंदी में ठठेरा कहते हैं। यह अर्थ आज की पीढ़ी के अधिकांश लोगों को पता नहीं होगा ! बालक की ठठेरा-ठठेरा की रट सुनते हुए मैं उनसे आगे निकल गया। 
सच बताऊँ तो मुझे पता नहीं था कि पचासों साल पहले पुस्तक की तस्वीर में एक आदमी को बर्तन के साथ बैठा दिखा हमें पढ़ाया गया 'ठ' से 'ठठेरा' अभी तक वर्णमाला में कायम है ! ज़रा सा पीछे लौटते हैं ! पंजाब का फगवाड़ा शहर ! बालक रूपी मैं, अपने ददिहाल गया हुआ था। शाम को काम से लौटने पर दादाजी मुझे बाजार घुमाने ले जाते थे। उन दिनों वहाँ बाजार के अलग-अलग हिस्सों में एक जगह, एक ही तरह की वस्तुओं की दुकाने हुआ करती थीं। जैसे मनिहारी की कुछ दुकाने एक जगह, कपड़ों की एक जगह, आभूषणों की एक जगह वैसे ही बर्तनों का बाजार में अपना एक हिस्सा था, उसे ठठेरेयां दी गली या ठठेरा बाजार कहा जाता था। उसके 
शुरू होते ही पीतल, तांबे, कांसे के बर्तनों पर लकड़ी की हथौड़ियों से काम करते लोग और उनसे उत्पन्न तेज और कानों को बहरा  कर देने वाली ठक-ठन्न-ठननं-ठक-ठन्न की लय-बद्ध आवाजें एक अलग ही समां बांध देती थीं। यह ठठेरों के साथ मेरा पहला परिचय था। तब से सतलुज में काफी पानी बह गया है। तांबे-पीतल-कांसे के बर्तन चलन से बाहर हो चुके हैं ! कांच-प्लास्टिक-मेलामाइन-बॉन चाइना का जमाना आ गया है, ऐसे में तब ठठेरों का क्या हुआ ?


यही सोच कर जब हाथ-पैर मारे तो हैरत में डालने वाली जानकारी सामने आई। पता चला कि ठठेरा एक हिन्दू जाति है, जो परम्परागत रूप से चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी राजपूत हैं; जो अपने को सहस्त्रबाहु का वंशज मानते हैं। इनके अनुसार जब परशुराम जी ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का प्रण लिया तो बहुतेरे लोगों ने अपनी पहचान छुपा बर्तनों का व्यवसाय शुरू कर दिया। जो आज तक चला आ रहा है। कुछ लोग अपने को मध्यकालीन हैहय वंशी भी कहते हैं। कुछ भी हो आज इस कारीगर, शिल्पकार, दस्तकार शिल्पियों की पहचान विश्व भर में हो गयी है, जब 2014 में यूनेस्को ने इनके कांसे और ताम्र शिल्प को भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता दे दी। करीब 47 उपजातियों में अपनी पहचान कायम रखे ये लोग वैसे तो देश-दुनिया में हर जगह के निवासी हैं पर मुख्यता इनका वास पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान है। 




तो आज से जब भी "ठ" से "ठठेरा" पढ़ने या उसका अर्थ बतलाने का संयोग हो तो एक बार उनके समृद्ध इतिहास का स्मरण जरूर कर लें। 

रविवार, 8 अप्रैल 2018

फिल्म "हिंदी मीडियम" असली जीवन में मंचित हुई, दिल्ली में

पिछले साल एक फिल्म "हिंदी मीडियम" आई थी। जिसमें एक धनाढ्य व्यक्ति खुद को गरीब तबके का साबित कर अपने बच्चे को एक प्रतिष्ठित स्कूल में, आरक्षित कोटे के अंतर्गत दाखिल करवा देता है। पर दिल्ली के इन महाशय ने यह कारनामा फिल्म आने के चार साल पहले ही कर दिया था। अभी तक कई बार ऐसा सुनने में आया है कि अपराधी ने पकडे जाने पर अपने अपराध को किसी फिल्म से प्रेरित होना बताया है। पर यहां तो उल्टा हुआ है ! रियल लाइफ के नाटक को सालों बाद रील लाइफ में तब्दील किया पाया गया। कहीं  "हिंदी मीडियम" फिल्म बनाने वालों को इस हेरा-फेरी की भनक तो नहीं लग गयी थी........
#हिन्दी_ब्लागिंग 
भले ही हम कितना भी नकारें पर यह दुखद व कड़वा सच है कि हेरा-फेरी, धोखा-धड़ी, जुगाड़ जैसी विधाएं हमारे "गुणों" में शामिल हैं। हम सदा दूसरों को ईमानदार, सच्चा, नेक और आदर्श इंसान देखना चाहते हैं, किसी में जरा सी बुराई देखते ही उस पर राशन-पानी ले पिल पड़ते हैं, पर जब खुद के स्वार्थ या लाभ की बात होती है तो हमें कुछ भी गलत या अनैतिक नहीं लगता।  
वर्षों से पढ़ते-सुनते आए हैं कि बच्चों को संस्कार देना माता-पिता का फर्ज है जिससे वे एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें। पर जो अभिभावक खुद ही कुकर्मों में लिप्त हों, जिनके लिए अपनी स्वार्थ-पूर्ती ही अभीष्ट हो, वे क्या आदर्श, शिक्षा या नैतिकता का पाठ पढ़ाएंगे अपने नौनिहालों को ? जो बच्चा बचपन से ही झूठ, धोखा-धड़ी, भ्रष्टाचार के माहौल में पलेगा-बढ़ेगा वह बड़ा होकर देश व समाज के हित को तो पैरों की ठोकर पर ही रखेगा ना !
    
आज एक विचित्र अनुभव हुआ जब अखबार में दिल्ली के एक व्यवसाई की करतूत पढ़, पिछले साल मई में आई "हिंदी मीडियम" फिल्म की याद आ गयी। जिसमें एक धनाढ्य व्यक्ति खुद को गरीब तबके का साबित कर अपने बच्चे को एक प्रतिष्ठित स्कूल में, आरक्षित कोटे के अंतर्गत दाखिल करवा देता है। पर इन महाशय ने यह कारनामा फिल्म आने के चार साल पहले ही कर दिया था। पकड़ाई में भी तब आए  जब अपने दूसरे बच्चे को भी उसी तरह वहां दाखिल करवाने का जुगाड़ भिड़ा रहे थे।  
दिल्ली के राजनयिक इलाके, चाणक्यपुरी में एक बहुत ही प्रतिष्ठित, नामी-गिरामी, विख्यात नर्सरी से लेकर बाहरवीं तक का CBSC से सम्बद्धित एक विद्यालय है, जिसका नाम संस्कृति स्कूल है। इसे ख़ास तौर पर सरकारी, सैन्य तथा विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के बच्चों के लिए बनाया गया है। इसकी गिनती देश के बेहतरीन स्कूलों में की जाती है। इसका संचालन एक NGO के द्वारा किया जाता है जिसका गठन वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों की पत्नियों ने किया है। इसमें कुछ सीटें, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों को भी अच्छी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से आरक्षित रखी गयीं हैं। 
अब आज की खबर ! दिल्ली का एक धनाढ्य व्यवसाई, अब नाम क्या लेना, जिसका अपने MRI सेंटर के साथ-साथ अनाज इत्यादि का थोक का व्यवसाय है। जो बीसियों बार विदेश भ्रमण कर चुका है। उसने 2013 में अपने बड़े बेटे को, नकली कागजातों, गलत आय विवरण और खुद को अपने ही MRI सेंटर का कर्मचारी तथा घर के पते में, अपने बंगले की जगह चाणक्यपुरी के पास की बस्ती संजय कैम्प का उल्लेख कर संस्कृति स्कूल में दाखिल करवा दिया था। पांच साल निकल गए, किसी को हेरा-फेरी की भनक तक भी नहीं लगी।  शायद लगती भी नहीं ! पर अपनी पुरानी तिकड़म से कइयों को बेवकूफ बना विश्वास के अतिरेक में डूबा, अपनी "चतुराई" पर इतराता यह इंसान, इस साल अपने छोटे बेटे को, भाई-बहन वाले कोटे के अंतर्गत दाखिला दिलवाने फिर वहीँ पहुँच गया। पर कहते हैं ना कि अपराध कभी ना कभी सामने आ ही जाता है; तो इस बार स्कूल के संचालकों को कागजों पर शक हुआ। छानबीन के दौरान सारी बातें सामने आ गयीं। नतीजा बाप को तो जेल हुई ही, तीसरी क्लास में पढ़ रहे उसके बड़े लड़के को भी स्कूल से निकाल दिए जाने के कारण उसका भविष्य भी अंधकारमय हो गया !  क्या चाहता था यह आदमी ? क्यूँ किया उसने ऐसा ? क्या सिर्फ अपने को चतुर साबित करने के लिए ? एक बार भी उसके दिमाग में यह बात नहीं आई कि सच सामने आने पर उसके बच्चों का भविष्य क्या होगा ? और तो और जब बच्चों को अपने पिता की इस करतूत का पता चलता तो क्या होता ?
अभी तक कई बार ऐसा सुनने में आया है कि अपराधी ने पकडे जाने पर अपने अपराध को किसी फिल्म से प्रेरित होना बताया है। पर यहां तो उल्टा हुआ है ! रियल लाइफ के नाटक को सालों बाद रील लाइफ में तब्दील किया पाया गया। क्या यह संयोग था या कहीं "हिंदी मीडियम" फिल्म बनाने वालों को इस हेरा-फेरी की भनक तो नहीं लग गयी थी ?

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

समय की पाबंदगी, आज एक संस्मरण, श्रीमती जी की जुबानी

शादी-ब्याह में बेचारे समय को कौन पूछता है, खासकर पंजाबियों के यहां तो दो-तीन घंटे की बात कोई मायने ही नहीं रखती, ना ही उभय-पक्ष इस पर ध्यान देते हैं। पर उस समय हम सब आश्चर्य चकित रह गए जब ठीक छह बजे बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुयी। थोड़ी हड़बड़ी तो हुई पर साढ़े आठ बजते-बजते पंडाल तकरीबन खाली हो चुका था। आदतन देर से आने वाले दोस्त-मित्रों को शायद पहली बार ऐसे "समय" से दो-चार होना पड़ा था....!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 
मेरे स्कूल का घर से पैदल पांच-सात मिनट का रास्ता था। ऐसा माना जाता है कि नजदीक वाले ही ज्यादातर विलंब से पहुंचते हैं। पर मुझे शायद ही कभी देर हुई हो। देख-सुन कर अच्छा लगता था जब लोग कहते थे कि मिसेज शर्मा के आने पर अपनी घडी मिलाई जा सकती है। समय की पाबंदगी मुझे अपने पापा से विरासत में मिली थी। यह संयोग ही था कि मेरे ससुराल में भी हर काम घडी की सुइयों के साथ चलता था। वहां तो बाबूजी के काम के साथ जैसे घडी को चलना पड़ता था। शर्मा जी भी समय के पूरे पाबंद हैं, लेट-लतीफी उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं है। इसी पाबंदगी के कारण हमारे दोनों परिवारों का पहला परिचय भी लोगों के लिए एक उदाहरण बन गया था।

बात मेरी शादी के समय की है। दिसंबर का महीना था। दिल्ली की ठंड अपने चरम पर थी। इसी को देखते हुए स्वागत समारोह छह बजे शाम का और रात्रि भोज का समय सात बजे का रखा गया था। शादी-ब्याह में बेचारे समय को कौन पूछता है, खासकर पंजाबियों के यहां तो दो-तीन घंटे की बात कोई मायने ही नहीं रखती, ना ही उभय-पक्ष इस पर ध्यान देते हैं। पर उस समय हम सब आश्चर्य चकित रह गए जब ठीक छह बजे बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुयी। थोड़ी हड़बड़ी तो हुई पर साढ़े आठ बजते-बजते पंडाल तकरीबन खाली हो चुका था। आदतन देर से आने वाले दोस्त-मित्रों को शायद पहली बार ऐसे "समय" से दो-चार होना पड़ा था। इस बात पर मेरी सहेलियां शर्मा जी से अक्सर मजाक में कहती रहीं कि आप को बड़ी जल्दी थी दीदी को ले जाने की। 

आज बच्चे बड़े हो गए हैं, समझदार हैं, फिर भी उन्हें समझाते रहती हूँ कि समय की कीमत को समझो, इस बेशकीमती चीज की कद्र करो, इसे फिजूल बरबाद न करो, यह एक बार गया तो फिर कभी हाथ नहीं आता !आता है तो सिर्फ पछतावा। मुझे ख़ुशी है कि बच्चे भी इस परंपरा को चलाए रख रहे हैं। इस बात को मैं सदा अपने छात्रों को समझाती रही हूँ और मुझे ख़ुशी है कि मेरी बात को किसी ने अनसुना नहीं किया। इसके लिए प्रभु की शुक्रगुजार हूँ। 

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