मंगलवार, 8 मार्च 2016

महिला दिवस, एक छलावा

महिला दिवस ? दुनिया की आधी आबादी के लिए, साल भर में सिर्फ एक दिन ! इतिहास की बात और थी, समय और था,  पर अब ? महिलाओं को यह गवारा ही कैसे है यह बेतुका भेद-भाव ! क्या वे कोई वस्तु हैं ? भुलाया जाता रस्मो-रिवाज हैं ? लुप्त होती प्रजाति है ? कहाँ है पुरानीु पीढ़ियों को तोड़ने को आतुर, मंदिरों-देवालयों में प्रवेश को ले आंदोलन को आयोजित करने वाले संगठन ? उन्हें यह भेद-भाव क्यों नहीं दिखाई देता ? विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं !! 
महिला दिवस। अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर सबसे पहले इसे 28 फ़रवरी 1909  अंतर्राष्ट्रीय कामगार महिला दिवस के रूप में मनाया गया। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अंतर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया और इसे महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा, आदर और प्यार प्रकट करते हुए उनकी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य के तौर पर समर्पित कर इसके लिए फरवरी का आखरी इतवार निश्चित कर दिया गया। 1917 में रूस की महिलाओं ने, महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। उस समय रूस में जुलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर। इन दोनो की तारीखों में कुछ अंतर होता है।
जुलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 की फरवरी का आखरी इतवार 23 फ़रवरी को पड़ा था जबकि ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी। चूँकि इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है। इसी लिये 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।   
पर धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा है जैसे यह दिवस भी एक अौपचारिकता, एक रस्म, एक तारीख भर हो कर रह गया है। क्योंकि सौ साल से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बावजूद महिलाओं की स्थिति में कोई उल्लेखनीय या बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं आ पाया है। अभी भी वे शोषण का शिकार हैं ! अभी भी दुनिया भर में उन्हें दोयम दर्जा ही उपलब्ध है !  सोचने की बात यह है कि दुनिया की आधी आबादी, कायनात के आधे हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन किसने निश्चित किया है ? इतिहास की बात और थी, समय और था, पर अब ? महिलाओं को यह गवारा ही कैसे है यह बेतुका भेद-भाव ! क्या वे कोई वस्तु हैं ? भुलाया जाता रस्मो-रिवाज हैं ? लुप्त होती प्रजाति है ? जिसके संरक्षण के लिए एक दिन निर्धारित कर उसे बचाने के उपाय सोचे-बताए जाते हैं ! कहाँ है पुरानीु पीढ़ियों को तोड़ने को आतुर, मंदिरों-देवालयों में प्रवेश को ले आंदोलन को आयोजित करने वाले संगठन ? उन्हें यह भेद-भाव क्यों नहीं दिखाई देता ? वह शायद  इसलिए, क्योंकि यह सब निर्धारित करने वाला आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। उपर से यह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे।  विडंबना तो यह है कि इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी, मीडिया में कवरेज पाने के लिए,  कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर मीडिया, फिल्म या राजनीती की मेहरबानी से समाज में ऐसा स्थान पा चुकी हैं जिसकी  चकाचौंध उनके कर्मों के अँधेरे को छुपाने में सफल रहती है। आज जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की, अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की। अपने सोए हुए जमीर को जगाने की। 
ऐसा भी नहीं है कि महिलाएं उद्यमी नहीं हैं, लायक नहीं हैं, मेहनती नहीं हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। पर पुरुष वर्ग ने बार-बार, हर बार उन्हें दोयम होने का एहसास करवाया है। आज सिर्फ माडलिंग को छोड दें, हालांकि वहां भी बहुत से तरीके हैं शोषण के, तो हर जगह, हर क्षेत्र में महिलाओं का वेतन पुरुषों से कम है। हो सकता है इक्की दुक्की जगह इसका अपवाद हो। कोई क्यों नहीं इसके विरुद्ध आवाज उठाता।  
जब भी कभी इस आधी आबादी के भले की कोई बात होती है तो वहां भी पुरुषों की ही प्रधानता रहती है। वहां इकठ्ठा हुए बहूरूपिए क्या कभी खोज-खबर लेते हैं, सिर पर ईंटों का बोझा उठा मंजिल दर मंजिल चढती रामकली की। अपने घरों में काम करतीं, सुमित्रा, रानी, कौशल्या, सुखिया की? कभी सोचते हैं तपती दुपहरी में खेतों में काम करती रामरखिया के बारे में? कभी ध्यान देते हैं दिन भर सर पर सब्जी का बोझा उठाए घर-घर घूमती आसमती की मेहनत पर ? नहीं ! क्योंकि उससे अखबारों में सुर्खियां नहीं बनतीं, टी.वी. पर चेहरा नज़र नहीं आता ! और कभी अपने मतलब के लिए यदि ऐसा करने की मजबूरी आन पड़ती है तो पहले कैमरे और माईक का इंतजाम कर अपनी छवि को गरीबों का मसीहा प्रचारित करने पर सारा जोर लगा दिया जाता है। ऐसे दिखावे जब तक खत्म नहीं होंगें, महिला खुद जब तक महिला का आदर करना नहीं शुरु करेगी तब तक चाहे एक दिन इनके नाम करें चाहे पूरा साल। कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। 
आज जरूरत है उस समाज की सोच बदलने की, जो बच्चियों को श्राप समझता है। जिसे इतनी भी समझ नहीं कि ये ना होंगी तो हम क्या दुनिया ही नहीं होगी जरुरत है, इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। महिलाओं को दिल से बराबरी का दर्जा देने की। हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की। इस सब के लिए महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करनी होगी। यह इतना आसान नहीं है,  उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन पुरुष उन्हें परोस कर अपना मतलब साधते रहते हैं। यह क्या पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन, आठ मार्च, महिला दिवस जैसा नामकरण कर उनको समर्पित कर दिया है। कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों?  पर सभी खुश हैं। विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं !!

3 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " दूसरों को मूर्ख समझना सबसे बड़ी मूर्खता " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन का आभार

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

महिलाओं की समस्याओं का हल हमारे व्यवहार और विचार में है | हम बेवजह के विमर्श में उलझ गए हैं, दिखावा ज़्यादा ज़मीनी काम कम |

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